‘सहानुभूति’ से कैराना जीतेगी भाजपा ?

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हमेशा ही चुनावों के दौरान माहौल बदल जाता है। चुनाव के दौरान यहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण चरम पर होता है। सपा सरकार के दौरान 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगे ने इस ध्रुवीकरण को और धार दी थी। वहीं इस दंगे के बाद जो खाई जाट और मुसलमानों के बीच पैदा हुई थी, उसे पाटने की कोशिश एक बार फिर से जोरों पर चल रही है। इस खाई को पाटने की वजह कैराना और नूरपुर में होने वाले लोकसभा उपचुनाव है।

सहानुभूति और हिंदुत्व कार्ड के भरोसे बीजेपी

बीजेपी के पास इस चुनाव को जीतने के लिए दो अहम मुद्दे हैं और वो हैं सहानुभूति और हिंदुत्व कार्ड। सहानुभूति कार्ड खेलते हुए बीजेपी ने कैराना से स्वर्गीय हुकुम सिंह की बेटी मृगांका को अपना उम्मीदवार बनाया है तो वहीं बिजनौर जिले की नूरपुर सीट से अवनी सिंह को मैदान में उतारा है। अवनी सिंह विधायक लोकेन्द्र सिंह की पत्नी हैं। बता दें कि लोकेन्द्र सिंह की एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी जिसके बाद ये सीट खाली हुई थी। अब ऐसे में दोनों सीटों पर जनता की हमदर्दी मिलती है तो बीजेपी ये सीटें आसानी से जीत सकती है।

28 मई को होगा मतदान

दरअसल, कैराना और नूरपुर में आने वाली 28 मई को उपचुनाव होना है। इसके लिए सभी पार्टियों ने गोलबंदी शुरू कर दी है। आरएलडी ने जातीय समीकरण को साधने के लिए सपा से हाथ मिला लिया है। ऐसे में अब आरएलडी को पिछड़ी जाति और मुसलमानों का वोट भी मिल सकता है।

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आरएलडी ने तबस्सुम हसन को बनाया उम्मीदवार

रालोद के सिंबल पर कैराना लोकसभा उप चुनाव लड़ने वाली समाजवादी पार्टी की तबस्सुम हसन का बेटा नाहिद हसन भी सपा से विधायक है। देखा जाये तो समाजवादी पार्टी ने कैराना लोकसभा उप चुनाव को लेकर बड़ा गेम खेला है। यह नया गेम जयंत चौधरी के साथ अखिलेश यादव की मुलाकात के बाद बना है। मालूम हो कि गोरखपुर में भी निषाद पार्टी के प्रत्याशी ने सपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा था। मजे की बात यह कि समाजवादी पार्टी ने बिजनौर के नूरपुर विधानसभा उप चुनाव के लिए अपना ही प्रत्याशी तय कर दिया है। यहां से नईम उल हसन को समाजवादी पार्टी ने प्रत्याशी बनाया है। नईम को राष्ट्रीय लोकदल पूरा समर्थन भी मिलेगा क्योंकि लोकदल यहां से अपना प्रत्याशी नहीं उतारेगा।

कांग्रेस नहीं उतारेगी अपना प्रत्याशी

कैराना में उम्मीदवार उतारने को लेकर अभी तक शांत बैठी कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि वो अपना प्रत्याशी नहीं उतारेगी। साथ ही कांग्रेस ने नूरपुर सीट पर भी प्रत्याशी उतारने से मना कर दिया है। कांग्रेस के मुताबिक वो उम्मीदवार न उतारकर सपा-आरएलडी को अपना समर्थन देगी। कांग्रेस की तरफ से इमरान मसूद को उतारे जाने को लेकर चर्चाएं काफी तेज चल रही थीं लेकिन अब इमरान मसूद तमाम जद्दोजहद के बाद बैठ गए हैं।

2009 में तबस्सुम हसन ने दर्ज की थी जीत

कैराना सीट पर स्वर्गीय मुनव्वर हसन की भी अपनी साख रही है। 2009 में पत्नी तबस्सुम हसन ने यहां से जीत हासिल की थी। अब एक बार फिर तबस्सुम हसन को समाजवादी पार्टी टिकट देने की तैयारी में थी। उनके बेटे नाहिद हसन शामली के कैराना से समाजवादी पार्टी से ही विधायक हैं। सपा इस सीट पर दलित, मुस्लिम व पिछड़ों के साथ रणनीति बनाने की ओर कदम बढ़ा रही है।

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नामांकन के दौरान वीवीआईपी चेहरों का जमावड़ा

कैराना उपचुनाव का रंग बुधवार यानी 9 मई से चटख हो जाएगा। यहां वीआईपी का जमावड़ा रहेगा। तबस्सुम बुधवार को नामांकन दाखिल करेंगी। इस दौरान आरएलडी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयंत चौधरी, राष्ट्रीय महासचिव त्रिलोक त्यागी, जबकि एसपी के पूर्व मंत्री कमाल अख्तर और संजय लाठर मौजूद रहेंगे।

बीजेपी की मृगांका सिंह गुरुवार को नामांकन करेंगी। उनके साथ बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्रनाथ पांडेय, वेस्ट यूपी अध्यक्ष अश्विनी त्यागी, 6 मंत्री डॉ. धर्म सिंह सैनी, सुरेश राणा, एसपी सिंह बघेल, चौधरी लक्ष्मी नारायण, अतुल गर्ग, बलवीर सिंह औलख, लोकसभा के प्रभारी प्रदेश महामंत्री विजय बहादुर पाठक, देवेन्द्र सिंह, पूर्व कैबिनेट मंत्री डॉ. संजीव बालियान के अलावा 19 विधायक और प्रदेश और क्षेत्रीय संगठन के पदाधिकारी मौजूद रहेंगे।

जाट-मुस्लिंम एकता दिखायेगी रंग

मुजफ्फरनगर दंगों के बाद चुनाव के बहाने पहली बार पश्चिमी यूपी में जाट- मुस्लिम समीकरण को मजबूत करने की कोशिश की जा रही है। खापों के नेता रालोद के बोल बोल रहे हैं। मुस्लिम-जाट दोनों ही फिलहाल भाजपा के खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं। अगर यह विपक्षी फार्मूला फेल रहा तो भाजपा की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जीत की राह कैराना से ही 2019 में निकलेगी। पश्चि़मी यूपी में जाट-मुस्लिम एकता पर ही टिकी है विपक्ष की उम्मीद।

कड़ुवाहट दूर करने की कोशिश

वर्ष 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाटों व मुस्लिमों के बीच पैदा हुई कड़वाहट दूर हुई है या नहीं। राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) प्रमुख अजीत सिंह के प्रति जाटों का भरोसा लौटा है या नहीं, इन्हीं दो सवालों के जवाब पर टिका है रालोद का प्रदर्शन। इसी के तहत तबस्सुम हसन का चयन बेहद सोच समझकर किया गया है। पिछले चुनाव में भाजपा को जाटों ने खुलकर वोट दिया जिससे हुकुम सिंह जीते पर इस बार स्थिति निश्चित ही बदली हुई है। जाटों को तो रालोद गोलबंद कर रहा है लेकिन क्या इसे मुस्लिम वोटरों का समर्थन मिलेगा? तबस्सुम के बहाने यही खेल विपक्ष कर रहा है और इसी गोटी से भाजपा को गोरखपुर और फूलपुर की तरह चित्त करने की दिशा में वह कदम बढ़ा रहा है।

कैराना का जातीय समीकरण

अगर कैराना लोकसभा सीट की बात करें तो ये पांच विधानसभा सीटों को मिला कर बना है। इस लोकसभा सीट पर लगभग 17 लाख मतदाता हैं। जातीय समीकरण देखा जाये तो 3 लाख के करीब मुस्लिम वोटर हैं जबकि साढ़े चार लाख ओबीसी और डेढ़ लाख जाटव वोट भी हैं। जाटव मूलरुप से बहुजन समाज पार्टी के वोटर माने जाते हैं। कैराना में सपा के मूल वोट यादव कम हैं, लेकिन मुसलमानों की आबादी बड़ी तादाद में है, जो सपा का ही वोटबैंक माना जाता है। जबकि इस सीट पर दलित वोट काफी अहम हैं। कैराना लोकसभा सीट 1962 में अस्तित्व में आई थी। मुस्लिम बहुल सीट होने के बाद भी अभी तक सिर्फ चार बार ही मुस्लिम सांसद यहां से चुने गए है।

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