फल उगाकर किसान ने बदल दी खेती की फिलॉसफी

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अलीगढ़ विपरीत जलवायु के बावजूद पश्चिमी उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ में एक प्रगतिशील किसान ने मृदा प्रबंधन और डिप इरीगेशन के जरिये अनार, केले और पपीते का बेहतर उत्पादन कर दिखाया। इससे क्षेत्र में वैकल्पिक कृषि की नई राह खुल गई। कम पानी और कम लागत पर प्रति एकड़ 10 लाख रुपये मुनाफा हो रहा है।1फिलॉसफी में एमए करने वाले अलीगढ़ निवासी प्रवीण भारद्वाज ने छोटी-मोटी नौकरी के लिए इधर-उधर भटकने के बजाय पुश्तैनी खेती को ही जीविका का जरिया बनाने का निर्णय लिया। पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी की तरह उनके लिए यह फैसला कतई कठिन नहीं रहा।

उन्होंने नई तकनीक अपनाकर खेती का फलसफा ही बदल डाला। दक्षिणी राज्यों की जलवायु में होने वाले फलों की सफल खेती यहां कर दिखाई। उन्होंने पांच-पांच एकड़ में अनार, केला और पपीता लगाया है। उपज के उत्पादन, रखरखाव और बाजार तक का फैसला खुद करते हैं। आज उनकी सालाना कमाई सात से दस लाख रुपये प्रति एकड़ है। दूसरों को भी रोजगार दे रहे हैं। सबसे बड़ी बात कि इससे जहां पानी की बचत भी हो रही है वहीं क्षेत्र में वैकल्पिक कृषि की नई राह भी खुल गई है।

फलों से फले-फूले

अलीगढ़ जिला मुख्यालय से 30 किमी दूर इगलास ब्लॉक का गांव गिदौरा बख्सा आज सबके आकर्षण का केंद्र है। यही प्रवीण का गांव है। यहां के अधिकांश लोग सरसों, गेहूं और आलू की ही पारंपरिक खेती करते आए हैं। प्रवीण के परिजन भी इसी का हिस्सा थे, लेकिन तीन साल पहले पढ़ाई पूरी करके खेती करने उतरे प्रवीण ने यहां की बलुई-दोमट मिट्टी में फलों की खेती की तैयारी शुरू की।

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यह काम आसान न था। गुजरात, महाराष्ट्र व कर्नाटक के उलट यहां जलवायु इन फलों के उत्पादन के अनुकूल नहीं है। लेकिन प्रवीण ने चुनौती लेते हुए अनार, पपीता और केले की खेती शुरू की। केले के लिए 10 से 40 डिग्री के बीच तापमान चाहिए, लेकिन उत्तर भारत में सर्दी के दिनों में पारा 10 के नीचे पहुंच जाता है।

समय-प्रबंधन से जीती जंग 

प्रवीण ने समयपूर्व पौधरोपण शुरू किया। मसलन, केला व पपीता का पौधरोपण जहां सितंबर व अक्टूबर में होता है, प्रवीण ने दो माह पूर्व जुलाई में ही चालू कर दिया। इसका लाभ यह हुआ कि दिसंबर से जनवरी के बीच 10 डिग्री से नीचे पारा रहने पर भी फसल को कोई नुकसान नहीं हुआ। वहां फसल मार्च में पकती है, इनकी जनवरी तक ही पक गई। वे जनवरी में फिर पौधरोपण करा देते हैं। इससे जुलाई तक फल मिल जाते हैं। इसके लिए उन्हें किसी पॉलीहाउस की जरूरत भी नहीं पड़ती।

बूंद-बूंद खाद-पानी 

प्रवीण ने सिंचाई की डिप (टपक या बूंद-बूंद) पद्धति को अपनाया। सिंचाई के पानी में वह खाद व अन्य पोषक तत्वों को भी मिला देते हैं। इससे पानी की बर्बादी रुकती है। खाद और पोषक तत्व भी कम लगते हैं। कम पानी, कम खाद से लागत भी कम आती है।

दैनिक जागरण

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