जानिये कौन थे सिख योद्धा हरी सिंह नालवा, जिनसे आज भी खौफजदा रहते हैं अफगानी

किसी भी देश के लिए पूरी सैन्य शक्ति लगा लेने के बाद भी अफगानिस्तान को हासिल कर पाना संभव नहीं हो पाया है।

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अफ़ग़ानिस्तान को पूरी दुनिया में ‘साम्राज्यों की कब्रगाह’ के रूप में जाना जाता है। किसी भी देश के लिए पूरी सैन्य शक्ति लगा लेने के बाद भी अफगानिस्तान को हासिल कर पाना संभव नहीं हो पाया है। अपनी ऊबड़ खाबड़ टीलानुमा जमीन और वहां के कबीलाई बाशिंदों की आक्रमणकारी प्रवृत्ति के जरिये अफगानिस्तान ने दुनियाभर के ताकतवर शक्तियों को अपनी धरती से वापस लौटा दिया है। जिसकी वजह से किसी भी देश की ताकतवर शक्ति कभी इस देश पर पूरा नियंत्रण नहीं कर पाई। सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में 1980 तक अपनी फौज जमाए रखी। अमेरिका ने भी 9/11 के हमले के उपरांत 20 साल पहले अफगानिस्तान में अपनी फौज भेजी थी लेकिन दशकों तक कोई नतीजा नहीं निकला, आखिरकार उन्हें अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी। ऐसे में इतिहास से एक नाम उठता है, जिन्होंने अफगानिस्तान के बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण करने के साथ ही अपने विद्रोही प्रवृत्ति से लोगों की नाक में नकेल डाल दी। उस महान योद्धा का नाम था हरी सिंह नालवा। आज जानते हैं आखिर कौन थे हरी सिंह नालवा?

कौन थे हरि सिंह नलवा:

हरि सिंह का जन्म 1791 में गुजरांवाला में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। कश्मीर, हजारा और पेशावर के गवर्नर भी रहे हरि सिंह नालवा महाराजा रणजीत सिंह की सेना के सबसे भरोसेमंद कमांडर थे। उन्होेंने 1800 की शुरुआत में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में कदम रखा था। उन्होंने न सिर्फ तमाम अफगानों को शिकस्त दी और वहां सीमा के भीतर तमाम धर्मों पर नियंत्रण रखा।
साथ ही भारत में घुसपैठ के प्रमुख रास्ता खैबर के जरिये अफगानियों को पंजाब में घुसने से रोका। खैबर 1000 ई. से 19वीं सदी के शुरू तक विदेशी आक्रमणकारियों के लिए भारत में घुसपैठ का प्रमुख रास्ता था।

नलवा उपनाम कैसे जुड़ा:

हरि सिंह ने युवावस्था में एक बाघ का शिकार कर दिया था, तब उनके नाम के साथ नलवा उपनाम जुड़ा। बाघ के पलक झपकते ही हमला कर दिए जाने से उन्हें तलवार निकालने का भी मौका नहीं मिला था। ऐसी स्थिति में उन्होंने बाघ का जबड़ा पकड़ लिया और धक्का देकर पीछे गिरा दिया। फिर अपनी तलवार निकाली और बाघ को मार गिराया। इस वजह से उन्हें बाघ-मार भी कहा जाता है।

क्यों डरते थे अफगान:

महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में 1807 ई. से लेकर 1837 ई. तक (तीन दशक तक) हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों के खिलाफ कई युद्धों में हिस्सा लिया था ​और अफगानों को उनके कई इलाकों से बेदखल कर दिया था। महज 16 साल की उम्र में नालवा ने 1807 में कसूर (अब पाकिस्तान में) के युद्ध में हिस्सा लिया। इस युद्ध में उन्होंने अफगानी शासक कुतुबुद्दीन खान को पराजित किया था। हरी सिंह नालवा ने दुर्रानी पठानों के खिलाफ सिखों की यह पहली जीत हासिल की थी। उन्होंने 1813 में अटोक की जंग में नलवा ने अन्य कमांडरों के साथ मिलकर काबुल के महमूद शाह की तरफ से यह युद्ध लड़ रहे अजीम खान और उसके भाई दोस्त महोम्मद खान को शिकस्त दी थी। हरी सिंह नालवा ने मुल्तान, हजारा, मानेकड़ा, कश्मीर आदि युद्धों में अफगानों को शिकस्त देकर सिख साम्राज्य को बढ़ाया। इस तरह की जीतों के वजह से अफगानों के मन में नालवा के प्रति खौफ भर दिया था।

भारत के लिए अहम थी नालवा की जीत:

इतिहासकारों का मानना है कि अगर हरि सिंह नालवा ने पेशावर और उत्तरी-पश्चिमी युद्ध न जीते होते तो आज यह इलाका अफगानिस्तान का हिस्सा होता। इन्हीं जीत के वजह से पंजाब और दिल्ली में अफगानों की घुसपैठ को आसानी से रोका जा सका था।

 

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