‘इच्छा मृत्यु’ की वसीयत को कानूनी मान्यता, लेकिन ये हैं शर्तें…

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सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) ने एक ऐतिहासिक फैसले में मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छा मृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) को गाइडलाइन्स के साथ कानूनी मान्यता दे दी है। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि कब वह आखिरी सांस ले। कोर्ट ने कहा कि लोगों को सम्मान से मरने का पूरा हक है।

लिविंग विल’ एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में पहुंचने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए। ‘पैसिव यूथेनेशिया’ (इच्छा मृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मौत की तरफ बढ़ाने की मंशा से उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है।

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने पिछले साल 11 अक्टूबर को इस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था। पांच जजों की बेंच आज इस बात पर फैसला सुनाया। इस बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस एके. सिकरी, जस्टिस एएम. खानविलकर, जस्टिस डीवाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे। अब कोई मरणासन्न शख्स ‘लिविंग विल’ के जरिए अग्रिम रूप से बयान जारी कर यह निर्देश दे सकता है कि उसके जीवन को वेंटिलेटर या आर्टिफिशल सपॉर्ट सिस्टम पर लगाकर लम्बा नहीं किया जाए।

कॉमन कॉज ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की थी याचिका

गौरतलब है कि एक एनजीओ कॉमन कॉज ने सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) में याचिका दाखिल कर कहा था कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जिस तरह नागरिकों को जीने का अधिकार दिया गया है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है। इस पर केंद्र सरकार ने कहा कि इच्छा मृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, लेकिन मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न का सपॉर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है।

पैसिव यूथनेशिया का किया था समर्थन

एनजीओ कॉमन कॉज ने 2005 में इस मसले पर याचिका दाखिल की थी। कॉमन कॉज के वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों को ‘लिविंग विल’ बनाने का हक होना चाहिए। ‘लिविंग विल’ के माध्यम से शख्स यह बता सकेगा कि जब वह ऐसी स्थिति में पहुंच जाए, जहां उसके ठीक होने की उम्मीद न हो, तब उसे जबरन लाइफ सपॉर्ट सिस्टम पर न रखा जाए। प्रशांत ने स्पष्ट किया कि वह ऐक्टिव यूथनेशिया की वकालत नहीं कर रहे, जिसमें लाइलाज मरीज को इंजेक्शन दे कर मारा जाता है। वह पैसिव यूथनेशिया की बात कर रहे हैं, जिसमें कोमा में पड़े लाइलाज मरीज को वेंटिलेटर जैसे लाइफ सपॉर्ट सिस्टम से निकाल कर मरने दिया जाता है।

कैसे तय होगा, मरीज ठीक नहीं हो सकता

सुनवाई के दौरान इस पर अदालत ने सवाल किया था कि आखिर यह कैसे तय होगा कि मरीज ठीक नहीं हो सकता? प्रशांत भूषण ने जवाब दिया कि ऐसा डॉक्टर तय कर सकते हैं। फिलहाल कोई कानून न होने की वजह से मरीज को जबरन लाइफ सपॉर्ट सिस्टम पर रखा जाता है। कोमा में पहुंचा मरीज खुद इस स्थिति में नहीं होता कि वह अपनी इच्छा व्यक्त कर सके इसलिए उसे पहले ही ये लिखने का अधिकार होना चाहिए कि जब उसके ठीक होने की उम्मीद खत्म हो जाए तो उसके शरीर को यातना न दी जाए।

लिविंग विल आत्महत्या की तरह

केंद्र ने कहा था कि मामले में गठित की गई कमिटी ने विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथनेशिया (कोमा में पड़े मरीज का लाइफ सपॉर्ट सिस्टम हटाने) को सही बताया है, लेकिन लिविंग विल का सरकार समर्थन नहीं करती। ये एक तरह से आत्महत्या जैसा है। गौरतलब है कि लगभग 35 साल से कोमा में पड़ी मुंबई की नर्स अरुणा शानबॉग को इच्छा मृत्यु देने से सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में इनकार कर दिया था।

नवभारत टाइम्स

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