आलोचना के नामवर
[bs-quote quote=”यह आर्टिकल हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से लिया गया है। वह देश के जाने-माने पत्रकार, लेखक और TV9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर है।” style=”default” align=”center” color=”#dd3333″ author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/05/hemant.jpg”][/bs-quote]
गुरूदेव नामवर सिंह का आज जन्मदिन है। होते तो वे आज चौरानबे साल के होते। हम सुबह सुबह उनके घर पहुंचते। जमावड़ा होता। वे किचन से कुछ मिठाई लाते। उत्सव होता। वे उत्सवप्रिय थे।
नामवर सिंह मेरे गुरू थे।मैं उनका स्नेह पात्र।मेरी दो किताबों की उन्होंने भूमिका लिखी।लिखने में वे आलसी थे। पर भाषण के चैम्पियन।इसके वावजूद उन्होंने मेरी किताब ‘तमाशा मेरे आगे’ की सात पेज की भूमिका लिखी।आप समझ सकते है कि मैं उनका कितना प्रिय शिष्य था।गुरूदेव ने मुझे भाषा के संस्कार दिए।दबाब डाल लगातार लिखवाते रहे।कहा जो देखते हो वहीं लिखो।जैसा बोलते हो वैसा लिखो।
बहुपठित, विलक्षण याददाश्त और बेजोड ‘विट्’ के कारण चालीस बरस तक नामवर के बरक्स कोई आलोचक खड़ा नहीं हो पाया।वे संवादी आलोचक थे।उन्होंने आलोचना की वाचिक परम्परा को जीवित रखा।वे गुरूकुल परम्परा के अध्यापक थे।कक्षा में या निजी तौर पर प्रवचन नहीं संवाद करते थे।बहुत कठिन और गूढ़ विषय को भी वे संवादी शैली में सरल और बोधगम्य बना देते।नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की तीसरी परम्परा थे।पहली परम्परा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,दूसरी आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और तीसरी खुद उनसे निकली है।शुक्ल जी हिन्दी आलोचना के जनक है।आचार्य द्विवेदी उसे विस्तार देते है।नामवर सिंह उसे धार देते है।
नामवर सिंह एक ‘फेनोमिना’ थे।उन्होंने अपनी ज़ुबान से कलम का काम लिया।उनका भाषण,सुनने वाले के दिमाग़ पर लिख जाता था।कबीर अनल पक्षी( फ़ीनिक्स) के मुरीद थे।क्यों कि वह अपनी राख से फिर पैदा हो जाता है।पक्षी तो और भी है,चातक है,चकोर है,मोर है,पक्षीराज गरूण है। फिर अनल ही क्यों ? १९५० में आलोचना पत्रिका छपनी शुरू हुई।लेकिन थोड़े समय में बंद हो गयी और फिर बंद होती शुरू होती रही।१९६७ में ये फिर छपनी शुरू हुई तो नामवर जी संपादक बने।तब नामवर जी ने अपने सम्पादकीय में लिखा आलोचना ‘अग्निप़क्षी’है।अपनी ही राख से फिर पैदा हो जाती है ।जीवन में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आयी जब नामवर सिंह को भी शून्य यानी राख से शुरू करना पड़ा।शायद इसीलिए नामवर जी को ‘अग्निपक्षी’ प्रिय था।तभी तो वे राख से प्रतिभाएँ गढ़ देते थे।
जिस बनारसी मिट्टी ने नामवर को बनाया, वह सृजन के अक्षुण्ण प्राणतत्व से भरी पूरी थी। उसमे कबीर का साहस, तुलसी का लोकतत्त्व, प्रेमचंद का समाजशास्त्र और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का पांडित्य था। जब ये सारे तत्त्व एक साथ मिलते हैं तब एक नामवर सिंह बनते हैं। उनकी यही पहचान उनके जीवन भर साथ रही।गुरूदेव जीवन को मकसद देते थे ।वे कलम की प्रेरक शक्ति थे। कलम जब कभी थक जाती थी।जीवन के दूसरे उद्देश्यो में फंस जाती थी तो वे ही उसमें उर्जा की स्याही भरते थे।हौसले का आकाश दिखाते थे। मैं आज भी जब कलम उठाता हूं तो कानों में उनके शब्द गूंजते हैं।मानो एक अदृश्य सी शक्ति कलम की देह में नई सांस भर रही हो। ये सब गुरूदेव की आत्मीय भावनाओं का आर्शीवाद ही तो है।
दो साल पहले बीमारी में जब मैं उन्हें देखने एम्स गया था।उस समय उनकी तबीयत में सुधार हो रहा था।वेन्टिलेटर हट गया था। रक्तचाप, ह्रदयगति सामान्य थी।चेतना लौट आई थी। हल्की फुलकी बात भी कर रहे थे।दिमाग में चोट थी इसलिए थोड़ी गफ़लत महसूस कर थे।बातचीत भटक रही थी। फेफड़ों में संक्रमण बना हुआ था। डॉक्टरों का कहना था कि स्थिति मे सुधार है।पर उनकी उम्र को देखते हुए उन्हें ख़तरे से बाहर नही कहा जा सकता था।मैं उनसे आई सी यू में मिला।मुझे देखते ही वे पहचान गए। हालाँकि मैं आई सी यू की वर्दी में था, सिर पर टोपी, चेहरे पर मास्क। सामान्य आदमी को पहचानने में वक्त लगता। वे तो गम्भीर बीमारी के सदमें में थे।मुझे सिर्फ अपना नाम बताना पड़ा। और वे हमेशा की तरह मुस्करा दिए थे।उनके भीतर का जिंदादिल शख्स इस अवस्था में भी बोल पड़ा था-
”आ गईला। अब सब ठीक हो जाईं। हमार पट्टी हटवावा।”
उनके दोनों हाथ में पट्टियाँ बँधीं थीं ताकि वे तन्द्रा में अपनी जीवन रक्षक प्रणाली न हटा दे।मैने कहा डॉक्टर से बात हो गयी है वो एक दिन बाद खोल देंगें।वे इस बात पर अडे रहे कि तुम कहो तुम्हारे कहने से खोल देगें। फिर इधर उधर की बात करने लगे।जो ज्यादा समझ में नही आ रही थी। फिर बोले अभी तुम्हारे किताब की समीक्षा करनी है मुझे। मैंने उनसे बताया कि आप ही ने भूमिका लिखी है।वे बोलते रहे मुझे दूरदर्शन पर समीक्षा करनी।मैं उनकी गफ़लत समझ गया था।इसलिए फिर उनके कहे में हाँ में हॉं मिलाने लगा।तब तक डॉक्टर आ गए ।उन्होने बताया गुरू जी पहले से ठीक हैं। इतनी जल्दी ऐसी ‘रिकवरी’की उन्हे उम्मीद नही थी।डॉक्टर की उम्मीद मेरे जेहन की तमाम आशंकाओं को परास्त कर गई।मैं व्यग्र होकर अस्पताल गया था, पर उम्मीद लेकर वापिस लौटा।
हालांकि बिस्तर पर नामवर जी को लाचार देख मन उद्दीग्न हो गया। जिस आदमी को पूरे ताप के साथ आपने देखा हो जम्मू से लेकर त्रिवेन्द्रम तक जिस व्यक्ति की तेजस्विता के सामने तमाम हिन्दी विभाग काँपते हों। जिसकी मर्ज़ी तीस बरस तक हिन्दी आलोचना की धारा तय करती रही। जिसका कहा एक एक शब्द हिन्दी आलोचना का बीज शब्द बनता था।मैंने उन नामवर की तेजस्विता का सूर्य देखा था।आने वाली नस्ले हम पर रश्क भी कर सकती हैं कि मै गुरूदेव के प्रिय शिष्यों में रहा हूँ।
कभी कभी तो मुझे समझ नही पड़ता था कि वे आलोचना के नामवर थे या फिर नामवर की आलोचना।मैनेजर पांडेय कहते हैं कि नामवर के संसार में भांति भांति के लोग हैं। जो उन्हें तो परेशान नहीं करते। पर दूसरों को काट भी सकते हैं।ऐसा क्यों न हो,वे शिव की नगरी के थे।भोला-भंगड़ तो बाराती होंगे ही।उनका कौन सा परिचय दूं यहां? हिंदी साहित्य के शिखर पुरूष।आलोचना की धारा। आलोचना की संस्कृति। तर्क के डिक्टेटर।आलोचना की कसौटी।उन्हे न जाने कितने नाम दिए गए थे।मेरा मानना है कि आलोचक और अध्यापक होने के साथ ही वे अपने युग के सबसे बड़े वक्ता भी थे। अपने भाषण से मंत्रमुग्ध करते थे।
उनका नाम ही नहीं दिल भी बड़ा था ।चार साल पहले नामवर जी नब्बे के हुए थे।नब्बे के नामवर पर इंदिरा गांधी कला केंद्र में संवाद रखा गया था।राम बहादुर राय आयोजक थे।गृहमंत्री राजनाथ सिंह मुख्य अतिथि थे। दोनो ही दक्षिणपंथी।उस आयोजन में नामवर सिंह के होने से वामपंथी खेमे में तूफान मच गया।नामवर वहां कैसे? उन पर वहॉं न जाने का दबाव पड़ा।डिगाने की कोशिशें हुईं।सोशल मीडिया पर नामवर जी के सठियाने जैसी टिप्पणियां हुईं।पर वे अविचलित रहे।अडिग रहे।वे समारोह में आए और सौ साल तक जीने की इच्छा प्रकट थी।ये नामवर थे।
नामवर जी बहुत समय तक बीएचयू में आते नही थे। एक लोकसभा का चुनाव लड़ने के कारण गुरूदेव को दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में बीएचयू छोड़ना पड़ा था।फिर उन्होने आना जाना बन्द किया।पर जब उनके व्यक्तित्व का सूर्य पूरी प्रखरता पर था, उस दौरान एक कुलपति के निवेदन पर वे विश्वविघालयी संगोष्ठियों में आने लगे थे।
मै जब जनसत्ता में आया तो मेरी जो रिपोर्ट उन्हे अच्छी लगती तो वे फ़ौरन मुझे फ़ोन करते।वे जनसत्ता के नियमित पाठक थे।बाद के दिनों में वे “तमाशा मेरे आगे” के कॉलम पर मुझे इतवार को फ़ोन करते।“वाह ! पंडित जी अईसन कौउनव बनारसीए लिख सकला।”किताब के कवर पर उनकी लिखी टिप्पणी का चित्र नीचे नत्थी है।याददाश्त इतनी तेज कि गुरूदेव जब मुझे मिलते, हमेशा मेरे लिखे हुए किसी लेख की चर्चा करते और हर बार कुछ नया लिखने के लिए प्रेरित करते।अयोध्या वाली किताब तो हर इतवार तगादा कर के उन्होंने ही लिखवाई।उसके कवर पर भी उन्होंने टिप्पणी लिखी।
एक बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से किसी ने पूछा कि आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति क्या है? आचार्य हजारी प्रसाद के मुंह से एक नाम निकला- “नामवर सिंह।”वही नामवर जिन्होंने हिंदी साहित्य का एक युग गढ़ा, उसे ध्वनि दी। भाषा के अद्भुत अलंकारों से सुशोभित किया।नामवर सिंह के व्यक्तित्त्व की सबसे बड़ी खूबी उनकी समग्रता थी और उसी समग्रता की जड़ों में घुली हुई अनोखी विशिष्टता रही।इसी खूबी ने उन्हें बड़ी-से-बड़ी परंपरा को खारिज करने, अपना झंडा गाड़ने और हिंदी आलोचना में सबसे ऊँचा, आला और अलहदा स्थान बनाने में मदद की।हर खूबी के कुछ फायदे होते हैं तो कुछ नुकसान भी।नामवरजी ने अपनी इसी खूबी के लिए नुकसान भी उठाया। नामवरजी को बनारस में काफी विरोध झेलना पड़ा, हालाँकि ऐसा विरोध तुलसी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी झेलना पड़ा था।नामवर जी बनारस के जिस मोहल्ले लोलार्क कुंड में रहते थे,वह भदैनी इलाके में पड़ता है।यहाँ से काशी के पुराण पंडितों ने तुलसीदास को भगा दिया था।उनकी ‘रामचरित मानस’ को गंगा में फेंक दिया था क्योंकि तुलसी लोकभाषा में रघुनाथगाथा लिख रहे थे।पुराण पंडितों के केंद्र अस्सी से भागकर ही तुलसी ने उस मुहल्ले का नाम ‘भयदायिनी’ रख दिया था। जो बाद में बिगड़कर ‘भदैनी’ बना।कवि केदारनाथ सिंह कहते थे कि ‘‘भदैनी में ‘सरवाइव’ करना आसान नहीं है। नामवर सिंह सरवाइव कर गए, शायद इसलिए भी वे नामवर सिंह बन गए।’’
नामवर हिन्दी आलोचना का अकेला ऐसा नाम था जो हिन्दी साहित्य के आदिकाल से लेकर उत्तर आधुनिक युग तक किसी भी कालखण्ड पर अधिकार से अपनी बात रखते थे।उनके जाने से हिन्दी आलोचना की सबसे सजग, सतर्क, बहुपठित और संवादी परम्परा का अवसान हुआ है।पूरे तीस बरस से मैं नामवर के होने का मतलब ढूँढ रहा था और अब उनके न होने के मायने ढूँढा है।एक बड़ा शून्य है। संस्कृत,पालि, प्राकृत,अपभ्रंश से लेकर अब तक के भाषायी साहित्य में।उद्भट और मुँहफट प्रतिभा के धनी नामवर सिंह की ‘नामवरियत’ बनारस में ही जन्म ले सकती थी। इसकी भी एक वजह है। बनारसीपन एक अति आधुनिक सांस्कृतिक दृष्टि है।उसमें जन्मे ,पगे ,बढे नामवर जी पांडित्य से भरे विविध रंगों वाले बिंदास बनारसी थे। जमाने को ठेंगे पर रख अपनी बात को पूरी ताकत के साथ रखने का अंदाज इसी दृष्टि की उपज थी क्योंकि जाति, वर्ग, संप्रदाय और धर्म से आगे की चीज है बनारसीपन। समूची पांडित्य परंपरा से लैस नामवर जी अति आधुनिक औजारों से ‘दूसरी परंपरा’ यहीं ढूँढ़ सकते थे।नामवर सिंह का कर्मक्षेत्र भले ही दिल्ली रहा हो, पर उनका भाव क्षेत्र हमेशा बनारस रहा।
बनारस में नामवरजी का अनुभव अच्छा नहीं रहा,मगर यह भी उतना ही सच है कि वे दिल्ली में बनारस को ‘मिस’ करते रहे। वह दिल्ली में हमेशा बनारस ढूँढ़ते रहे।अपने आस-पास, मित्रों में, खान-पान में, पहनावे में और अपनी भाषा में।उन्होंने गुस्से में बनारस छोड़ा।लोकसभा का चुनाव लड़ा। नौकरी गई।बेरोज़गारी देखी।समकालीन साहित्यकारों ने काम भी लगाया।मगर जब बनारस छोड़ा तो पलटकर नही देखा।उनके भीतर का जो बनारसी था, उसी ने उनके भीतर यह दृढ़ता और जिद पैदा की।आख़िरी के दिनों में वे मुझसे कहा करते थे कि उन्होंने क्षेत्र सन्यास ले लिया है।अब वे इस क्षेत्र के बाहर नही जाना चाहते हैं पर एक बार बनारस जाने का मन है।“देखल जाय कईसन हौअ बनारस, कईसन हऊअन बाबा विश्वनाथ “ पर जहाज़ से यात्रा की उन्हे इजाज़त नही थी।सो अपने मूल पर लौटने की उनकी इच्छा धरी रह गयी।गुरुदेव की बनारस जाने की इच्छा इतनी बलवती थी कि वे बार बार कहते एक बार फिर बनारस जाने का मन है, अब जीवन का क्या ठिकाना। वामपंथी होते हुए भी बार बार बाबा विश्वनाथ के दर्शन का आग्रह उनके संस्कारों का असर था। बनारस के प्रति अपने मोह को वे बार बार इन वाक्यों में परिलक्षित करते कि मैंने क्षेत्र संन्यास ले लिया है। उनका शरीर भर बनारस से दूर रहा मगर आत्मा बनारस की मिट्टी में ही पगी बसी रही।
नामवर सिंह पिछले तीन दशकों से हिंदी साहित्य के केंद्र में थे।वे आलोचना को बंद गली से आगे ले गए।उसको गंभीरता से मुक्त कर आसान, सरस और ऐसा पठनीय बनाया कि वह रचना का आनंद देने लगी।लिखने से ज्यादा महत्त्व बोले जाने को दिया जाने लगा।किताबों की तुलना में संगोष्ठियों का महत्त्व बढ़ा और इस पूरी परंपरा के अलमबरदार बने नामवरजी।क्योंकि नामवर सिंह कलम के सिपाही नहीं हैं, बातों के जादूगर थे।बातूनी नामवर सिंह को दिल्ली में सब जानते हैं।लेकिन इस बातूनीपन के पीछे वे एक गंभीर अध्येता थे।इस लिहाज़ से नामवर सिंह शायद हिंदी में समकालीन विश्व साहित्य के सबसे बडे़ बौद्धिक पुरुष थे। नामवरजी बेहद अध्ययनशील थे। वे मिर्जा गालिब से लेकर आलोक श्रीवास्तव ,कहीं से भी शुरू कर, कहीं भी खत्म कर सकते थे।जितना अधिकार उनका कालिदास और भवभूति पर था, उतनी ही सहजता से वे ब्रेख्त और लुशुन को भी समझाते थे।
नामवर जी अपनी आवाज, असाधारण स्मरण-शक्ति, ‘सहज प्रत्युत्पन्न मति’ आदि की बदौलत पिछले 30 वर्ष से न सिर्फ साहित्यिक संगोष्ठियों को लूटते आए थे, बल्कि अपने साहित्यिक रण कौशल से अपनी विचारधारा के विरोध में खडे़ विद्वानों को भी गिराते, पछाड़ते और उखाड़ते आए थे। वे भाषा के बेजोड़ खिलाड़ी थे। उनकी भाषा मुहावरे गढ़ती है और यही मुहावरे साहित्य की चौहद्दी बनाते हैं। नामवरजी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। आलोचना ही नहीं कविता की परंपरा से भी उनका उतना ही गहरा संबंध था। नामवर सिंह ‘पुनीत’ को बहुत कम लोग जानते हैं। वे इस नाम से अपने लेखक जीवन की शुरुआत में कविताएँ लिखते थे। अध्यापक नामवर। चंदौली से चुनाव लड़नेवाले राजनेता नामवर। आलोचक नामवर और अब किंवदंती बन चुके नामवर।
रिश्ते-नाते उन्हें ज्यादा प्रभावित नहीं करते थे। घटना, मनुष्य और विचार इन तीनों में वे विचार को अधिक महत्त्व देते रहे। वे विद्यार्थियों को आलोचना पढ़ाते ही नहीं, आलोचना सिखाते भी रहे।वे सामने वाले की बात को सिरे से खारिज करने का दम रखते थे पर साथ ही सामने वाले की बहस और असहमति के अधिकार की हिफाजत करने के लिए भी उतने ही दमखम से खडे़ होते थे। शायद यही वजह है कि नामवर सिंह जिन्हें खारिज करते थे, उन्हें ज्यादा पढ़ते थे। बिना पढे़ विरोध, केवल लोकतंत्र में विपक्ष की औपचारिक भूमिका भर है, मगर नामवर सिंह खाँटी विपक्ष की नहीं, बल्कि विद्वत और संवेदनशील प्रतिपक्ष की भूमिका अदा करते थे।
कवि केदारनाथ सिंह और नामवर जी की ख़ूब छनती थी। केदार जी कहते थे -‘‘यह कोई साधारण बात नहीं है कि पिछले तीन दशक के इतने बडे़ कालखंड में समकालीन हिंदी साहित्य के केंद्र में एक आलोचक हैं। कोई रचना नहीं।’’ इस गुत्थी को सुलझाना होगा, तभी हमें नामवर सिंह होने के सही मायने पता चल सकेंगे। एक पूरी की पूरी पीढ़ी है जिसके लिए वे एक संस्था की तरह थे।ये संस्था सिर्फ साहित्य तक सीमित नही थी।नामवर जी अपने आप मे जीवन की प्रयोगशाला थे।मानवीय भावनाओं के संवेदनशील चितेरे थे।साहित्य के कैनवास पर उनका जितना बड़ा कद था, उससे भी लंबी लकीर वे मानवता के कैनवास पर खींचते थे।
उनकी स्मृति को प्रणाम।
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