बिहार का डाला छठ पूजा, कैसे बना ”महापर्व”
एक समय पर बिहार में मनाया जाना वाला पर्व डाला छठ आज देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक भी पहुंच गया है. भगवान सूर्य की आराधना से जुड़ा यह तीन दिवसीय पर्व आज देश के कई हिस्सों में पूरे धूमधाम से मनाया जाने लगा है. इसको लेकर जिला प्रशासन त्यौहार से पहले ही नदी के घाटों की साफ-सफाई संग महिलाओं की सुरक्षा जैसी तैयारी में जुट जाता है. अब यह पर्व सिर्फ अपने देश ही नहीं बल्कि नेपाल में भी मनाया जाने लगा है. ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्व है एक राज्य का लोक पर्व कैसे महापर्व बन गया.
बिहार के लोगों संग धीरे-धीरे हुआ इसका भी विस्तार
छठ पर्व के विस्तार की एक वजह बिहार के लोगों का विस्तार भी है. बेशक आज भी सबसे कम साक्षरता वाला राज्य होने के बाद भी आज बिहार की साक्षरता दर में काफी बदलाव हुआ है. इसके साथ ही यहां के लोगों का उच्च शिक्षा और नौकरी के लिए बाहरी शहरों, राज्यों में जाने के साथ बसना शुरू हुआ.
राज्य के बाहर जिन इलाकों में बिहार के लोगों का बसना हुआ वहां के लोगों ने इस पर्व के प्रति अपनी आस्था, निष्ठा के साथ इस पर्व के महत्व को वहां के लोगों को भी बताया. महिलाओं संग पुरुषों द्वारा किया जाने वाला यह कठिन व्रत संतान की दीर्घ आयु और परिवार की सकुशला के लिए किया जाता है. इससे प्रभावित होकर आस पास की महिलाओं ने भी इस व्रत को प्रारंभ कर दिया. धीमे – धीमे इसका विस्तार बढा और यह पर्व अब बिहार ही नहीं अन्य राज्यों तक भी पहुंच गया है.
रियल के नहीं रील के त्यौहार ने बनाई छवि
यूं तो हर पर्व अब रियल में कम रील का ज्यादा रह गया है. लेकिन रील और मीडिया के बढते प्रभाव ने छठ पर्व के विस्तार में अपनी विशेष भूमिका निभायी है. दरअसल, रील के माध्यम से हर कोई अपनी संस्कृति और संस्कारों को कैद कर देश विदेशों तक पहुंचा पाने में सक्षम हो पाया है.
आप ने देखा होगा कि,छठ पर्व हो या कोई अन्य पर्व उसके शुरूआत से दो चार रोज पहले से ही इस से रिलेटेड रील्स, वीडियो आपको मिलना शुरू हो जाते हैं. इसके जरिए त्यौहार की छवि व्यक्ति के जहन में उतर जाती है. इस बात को उदाहरण के तौर भी समझा जा सकता है, हाल ही में ट्रेड कर रहे मथुरा, वृंदावन के वीडियो ने कृष्ण नगरी के प्रति एक अलग ही छवि लोगों में बना दी है. परिणाम स्वरूप मथुरा, वृदांवन में लोगों की बढती आस्था साफ देखी जा सकती है.
डाला छठ का इतिहास
कहते है इतिहास हमेंशा खास लोगों का होता है, डाला छठ आम लोगों से जुड़ा हुआ है. पुराने समय में, वैद्य राजाओं, सामंतों और अमीर लोगों का इलाज किया करते थे. ऐसे में ईश्वर पर भरोसा करने वाले लोगों ने बीमारी से बचने की प्रार्थना की और डाला छठ इसी भावना से जुड़ा. हालांकि, इस पर्व के बारे में या इसके इतिहास के बारे में कहीं भी लिखित दस्तावेज नहीं मिलते, जो यह बता सकें की इस पर्व की शुरुआत कब से हुई थी.
12वीं सदी से मनाया जाता है उत्सव
बताते हैं कि, पाल वंश ने बिहार में कई मंदिर बनाए, जहां सूर्य के मंदिर भी हैं. इसलिए अनुमान लगाया जाता रहा है कि 12वीं सदी के आसपास लोग बिहार में सूर्य की उपासना करते थे. लेकिन छठ का उत्सव बहुत पहले से मनाया जाता था, इसलिए पाल वंश के राज में सूर्य मंदिर बनाए गए. 13वीं शताब्दी में आज के गुजरात में हिमाद्रि ने चतुर्वग चिंतामणि बनाई. इस पुस्तक में कई व्रत त्योहारों की चर्चा है. इसमें हर महीने की सातवीं तिथि को सूर्य को अर्ध्य देने का उल्लेख है.
‘कृत्यकल्पतरू’ में सूर्य की पूजा का किया उल्लेख
यही नहीं, ‘लक्ष्मीधर’ लगभग 120 साल पहले कन्नोज के गढ़वाल वंश के शासन में एक बुद्धिमान मंत्री थे. लक्ष्मीधर ने अपनी कृति ‘कृत्यकल्पतरू’ में सूर्य की पूजा का उल्लेख किया है. बिहार सरकार के एक गजेटियर ने बताया कि, पटना ज़िले के ही इस्लामपुर में मौजूद सूर्य मंदिर और उसके बाहर के तालाब में डाला छठ पर्व मनाने की बड़ी मान्यता रही है. मौजूदा समय में भी दूर-दराज़ से लोग यहां आकर डाला छठ का त्योहार मनाते हैं.
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क्यों है डाला छठ लोक अस्था का पर्व
यह हिंदू लोगों का त्योहार है. परंपरा से यह त्योहार एक से दूसरे व्यक्ति और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचा है. छठ के त्योहार में 90 फ़ीसदी लोग किसी तरह का मंत्र नहीं पढ़ते हैं. इसमें कोई पुरोहित भी नहीं होता है. इसमें संतान देने वाली छठी मैया और आरोग्य देने वाले भगवान सूर्य की प्रार्थना की जाती है. सूर्य की उपासना कई संस्कृतियों में की जाती है. यह बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए सूर्य की पूजा से शुरू हुई परंपरा है.
ऐसी आस्था आम लोगों में सबसे ज़्यादा होती है. इसलिए इसे लोक आस्था का त्योहार कहते हैं. भारत में अध्यात्म दो तरीकों का रहा है. जप और तप. जप का अर्थ होता है मंत्रोच्चार से उपासना करना, जो पढ़े-लिखे लोग करते थे. जबकि दूसरा है ‘तप’ यानी शरीर को तपाना. आम लोगों की उपासना का माध्यम तप होता है. इस तरह से आम लोग कठिन तप से यह त्योहार मनाते है इसलिए डाला छठ को लोक आस्था का त्योहार कहते हैं