दुष्टता राजधर्म है और दुष्ट सर्वव्यापी- हेमंत शर्मा

0

समाज में जो भी अच्‍छा या बुरा है उस पर रचनाकार अपनी पैनी नजर गड़ाये रहता है। यही समसमायिक विषय रचनाकार की कलम से शब्‍दों की श्रृंखला में आबद्ध होकर वाक्‍यरूप धारण करते हैं और साहित्‍य की रचना होती है। शायद इसी लिए विद्वानों ने साहित्‍य को समाज का दर्पण कहा है। दर्पण भी तो आपके चेहरे का यथार्थ आपके सामने प्रस्‍तुत करता है और साहित्‍य का कर्म भी यही है।

साहित्‍य समाज का यथार्थ रूप आपके सामने प्रस्‍तुत करता है। वर्तमान में समाज कोरोना संकट के दौर से गुजर रहा है। इस संकट के मूल में हमारे भारतीय समाज का बहुत असम्‍मानित प्राणी चमगादड़ है। यह दुष्‍टता का प्रर्याय भी है।

ख्‍यात पत्रकार और टीवी 9 भारत वर्ष के न्‍यूज डायरेक्‍टर हेमंत शर्मा ने लॉकडाउन के दौर में अपने साहित्‍य सृजन की कड़ी को इसी चमगादड और उसकी दुष्‍टता के विषय से आगे बढ़ाया है। फेसबुक के वाल पर अंकित उनकी रचना आप भी पढ़े…

कौन कुटिल खल कामी-

करामाती लड्डू का भेद खोलने के कारण राहुल देव जी ने मुझे प्यार से दुष्ट करार दिया। उन्होंने किसी महिला को जवाब दिया कि मेरे बेसन के लड्डू को इस दुष्ट ने न जाने क्या क्या बता दिया? हालांकि मेरा मानना है कि दुष्टों के लिए भी उदासीन भाव नही रखना चाहिए। उजाले के लिए अगर अंधकार का अस्तित्व जरूरी है तो सज्जनता के अस्तित्व के लिए दुष्टता जरूरी है। राहुल जी भले आदमी हैं। वे सज्जन और दुष्ट का फर्क नही करते हैं। वे इतने भले हैं कि समलैंगिकों के सम्मेलन में बुलाया जाय तो वहां भी चले जाते हैं। भाषण देते हैं। उनके धरना-प्रदर्शन में भी शामिल होते हैं।

बात दुष्टता की चल रही है तो चमगादड़ की याद आई। आजकल चमगादड़ बहुत चर्चा मे है। दुनिया के कई शोध उसे कोरोना वायरस की जड़ बता चुके हैं। मगर तुलसीदास आज से 500 साल पहले ही दुष्टता के वायरसों को चमगादड़ बता गए थे। उन्होंने रामचरित मानस के उत्तरकांड में लिखा-

‘सब कै निन्दा जे जड़ करहीं, ते चमगादुर होइ अवतरहीं’। यानि जो सबकी निंदा करता है, वह अगले जन्म में चमगादड़ बनता है। सोचिए चमगादड़ों ने क्या नही कर दिया। दुनिया की बड़ी बड़ी महाशक्तियों को घुटनों पर ला दिया। इसी से आप दुष्टतों की ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं।

दुष्टता आजकल राजधर्म है और दुष्ट सर्वव्यापी। दुष्टजन सज्जनों को हमेशा से सताते आए हैं। सच पूछिए तो जमाना हमेशा दुष्टों का ही रहा है। वे निराकार ब्रह्म की तरह हर कहीं मौजूद रहते हैं। शायद इसीलिए रामचरित का बखान करने से पहले तुलसीदास को भी खलवंदना करनी पड़ी। सूरदास ने भी खल के अस्तित्व को स्वीकार करते कहा, ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी।’ पूजा पद्धति में भी दुष्ट ग्रहों शनि-राहु-केतु—को पहले पूजते हैं, ताकि वे तंग न करें। दुष्ट हर देशकाल, जाति, वर्ण, लिंग में पाए जाते हैं। ‘पर-संतापी’ और ‘विघ्न संतोषी’ दुष्टों को दूसरों के दुःख से खुशी होती है। लेकिन दुष्टों से मुक्त भी कैसे हुआ जा सकता है, क्योंकि घोर दुष्टता ही सज्जनता को परिभाषित करती है, यानी दुष्टता कसौटी है सज्जनता की। ठीक उसी तरह जैसे अँधेरे के बिना रोशनी का क्या महत्त्व?

दुष्टता एक मनोविकार है जो लोभ, मोह और क्रोध के संयोग से बनता है। यह मनोविकार लोगों को तंग होता, परेशान-हाल, आपस में लड़ते हुए देखना चाहता है। अगर दो लोगों में लड़ाई न हो रही हो तो भी ये दुष्ट कुत्तों, मुर्गों और साँड़ों की लड़ाई में ही आनंदित होते हैं। सड़क पर पड़े पत्थर पर ठोकर मारना हो या किसी के घर की घंटी बजाकर भागना हो, किसी जानवर की पूँछ खींचना हो या चलते-चलते लात चला देना, यह दुष्टों की पहचान की सामान्य प्रवृत्ति है।

यह भी पढ़ें: जीवन भी जुआ है : हेमंत शर्मा

कहते हैं, सभ्यता के मूल में भी एक दुष्ट था, जिसने हव्वा को फल खाने की प्रेरणा दी। जिस कारण उन्हें आदम के साथ मेसोपोटामिया के नंदन वन से निकाला गया। ईसाई, यहूदी, मुसलमान सभी सृष्टि के निर्माण में शैतान के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। अब अगर सृष्टि-निर्माण के मूल में दुष्टता है तो दुष्टों के महत्त्व को तो मानना ही पड़ेगा। हर युग में ‘खलों’ की निर्णायक भूमिका रही है। ईसा को धोखे से पकड़वाकर सूली पर चढ़वाने वाला दुष्ट जूडास ही था। रामकथा से कैकेयी और मंथरा की दुष्टई निकाल दीजिए तो कहानी खत्म हो जाएगी। बुद्ध का दुष्ट भाई देवदत्त न होता तो दुनिया को यह पता ही नहीं चलता कि मारनेवाले से बचानेवाला बड़ा होता है। एक दुष्ट धोबी के आरोप से राम ने निरपराध सीता को जनहित में घर से निकाला था। कृष्ण के ईश्वरत्व और उनकी महानता का बोध हमें न होता, अगर कंस, शिशुपाल और जरासंध उनके जीवन में न आए होते। शकुनि न होता तो कौरवों का अंत कैसे होता। चंद्रशेखर आजाद को इलाहाबाद के ‘आल्फ्रेड पार्क’ में फिरंगियों से पकड़वाने वाला उनका एक दुष्ट साथी ही था।

दुष्ट पंडितों ने विद्योत्तमा का विवाह मूर्ख कालिदास से करा दिया। वह भी विदुषी विद्योत्तमा को नीचा दिखाने के लिए। मेरे विवाह से पहले कुछ दुष्टों ने यह खबर फैला दी कि मैं शराबी और जुआरी हूँ, ताकि विवाह में विघ्न पड़े। ससुरालवालों ने पड़ताल भी कराई। उनके हाथ लंबे थे। पड़ताल में पता चला कि यह बात सही नही है। पर इस बीच एक बात और फैला दी गई कि मैं दोयम दरजे का ब्राह्मण हूँ। यानि दुष्टों की वजह से मुझे अपने विवाह में भी नाको चने चबाने की नौबत आ गई। पर मैने इसे इस प्रकार लिया कि अब अगर संसार प्रभु की लीला है तो दुष्ट और दुष्टता भी उसी के बनाए हुए हैं। सो संतोष करो। चाणक्य कहते हैं कि दुष्ट धरती पर नीम के वृक्ष हैं, जिन्हें दूध या घी से सींचें तो भी उनमें मिठास नहीं आएगी।आजकल कोई भी टी.वी. सीरियल बिना दुष्ट महिलाओं के नहीं बनता, जिसका असर आप अपने घरों में भी देख सकते हैं।

नीच, अधम, पातकी और पापी ये सभी दुष्टों के प्रकार हैं। संस्कृत से चलकर दुष्ट की छाया फारसी पर भी बरास्ता अवेस्ता पड़ी। फारसी में इन्हें ‘दुश्त’ कहते हैं। फारसी के ही बदमाश का ‘बड’ अंग्रेजी के ‘बैड’ से सीधा रिश्ता जोड़ता है। यजुर्वेद में दुष्टों से दूर रखने की बाकायदा प्रार्थना है। अथर्ववेद में कौए जैसी प्रकृतिवाले दुष्टों को आस्तीन का साँप कहा गया है। निंदा रस दुष्टों को बड़ा स्वादिष्ट लगता है। पर-निंदा में उन्हें परम संतुष्टि मिलती है। पर-निंदा इन्हें ऊर्जा देती है। उनका खून साफ करती है, खाना पचाती है,उनकी कमजोरी का शर्तिया इलाज है। हालाँकि कबीर के निंदक दुष्ट नहीं आलोचक हैं। इसलिए उन्होंने निंदक को पास रखने की सलाह भी दी।

दुष्टों के कई राजनीतिक संस्करण भी मिलते हैं। यहाँ कनफुकवा बिरादरी है, जो सिर्फ कान में फूँककर अपना उल्लू सीधा करती है। कान में फूँक मारने वाला यह संप्रदाय सत्ता के केंद्रों में आज भी बड़ा ताकतवर है।

हमारे पास तापमापी यंत्र है, वर्षामापी यंत्र है, शुष्कतामापी यंत्र है, आर्द्रतामापी यंत्र है, मगर दुष्टतामापी यंत्र नहीं है। बढ़ती दुष्टता को कंट्रोल करने के लिए अगर दुष्टतामापी यंत्र हो तो दुष्टों पर नजर रखना आसान होगा। भगवान् कृष्ण ने गीता में बार-बार कहा कि वे दुष्टों के अंत के लिए कलयुग में जन्म लेंगे। हर साल जन्माष्टमी आती है, और चली जाती है, पर वे दुष्टों को मारने के लिए जन्म नहीं लेते। हम उनका जन्मदिन मनाते रहते हैं। शायद वे यह समझ गए हैं कि दुष्टता का अंत संभव नहीं। दुनिया से दुष्ट खत्म हो जाएँगे तो संतों को पूछेगा कौन! इसलिए मैं दुष्टों के अस्तित्व को स्वीकार कर उन्हें प्रणाम करता हूँ, क्योंकि दुष्टों से दोस्ती और दुश्मनी दोनों मुसीबत में डालनेवाली हैं।

यह भी पढ़ें: किसानों को कोरोना योद्धा का दर्जा क्यों नहीं…

[better-ads type=”banner” banner=”104009″ campaign=”none” count=”2″ columns=”1″ orderby=”rand” order=”ASC” align=”center” show-caption=”1″][/better-ads]

(अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक पर ज्वॉइन करें। आप हमें ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं। अगर आप हेलो एप्प इस्तेमाल करते हैं तो हमसे जुड़ें।)

Leave A Reply

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. AcceptRead More