जीवन भी जुआ है : हेमंत शर्मा

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लेखक किसी भी विषय को जब हास्‍य और मनोरंजन के पुट के साथ शब्‍दबद्ध करता है, तब जो रचित होता है वह विषय को और भी ग्राही बना देता है। विद्वानों ने लेखन की इसी तकनीक को ललित निबंध कहा है। बस ऐसे ही बात किस्‍से कहानी के साथ बहुत ही हल्‍के अंदाज में शुरू होती है और लेखक अपने पाठक को अनेक प्रकार के मनोरंजक, व्‍यंगात्‍मक प्रसंगों की बारिश में भिगोते हुए अपने अन्‍वेषण की अनंत गहराइयों की सैर कराता चला जाता है। वरिष्‍ठ पत्रकार टीवी 9 भारतवर्ष न्‍यूज डायरेक्‍टर हेमंत शर्मा लॉकडाउन के इस दौर को लेखन के इसी विधा से सार्थक कर रहे हैं। फेसबुक के वाल पर अपने परम सखा अजय त्रिवेदी के जीवन के कुछ गूढ़ रहस्‍यों से स्‍वछंदतापूर्वक पर्दा उठाते हुए उन्‍होंने उनके पपलू प्रेम (जुआ) को अपने लेखन का विषय बनाया और उसका अंत उसके इतिहास-भूगोल के साथ जीवन दर्शन से की है। हम उनकी शब्‍द रचना ठीक वैसे ही लाये हैं। खास आपके लिए…

अजय गुरु यानि अजय त्रिवेदी। मेरे मित्र , बाल सखा। विश्वविद्यालयी दोस्त । देश-विदेश के सहयात्री। अच्छे-बुरे के साथी। अब तक हमारी सत्तर फीसदी उम्र साथ साथ कटी। धनबल, बाहुबल, बुद्धिबल में चैंपियन। मित्रों में ‘जे’ गुरू के नाम से मशहूर। अल्ट्रा राष्ट्रवादी। गाड़ी चलाने के मामले में माइकल शूमाकर। स्त्रियों के मामले में टाइगर वुड्स। आइडिया के स्तर पर आइंस्टीन के पिता। वे मेरे कुमार्ग के गुरू हैं। ये सब उनकी शान के वेदमंत्र हैं।

आप गुरु सुनकर परेशान न हों। गुरु बनारस में एक संबोधन है। हर बनारसी अपने को गुरु समझता है। गुरु का मतलब यह कतई नही है कि जिसने आपको पढ़ाया हो। बनारस में गुरुओं का बहुत बड़ा वर्ग है। पेले गुरु, फुटेले गुरु, कट्टा गुरु, डंडा गुरु आदि आदि। यह दीगर है कि हर गुरु में कुछ न कुछ सीखने के तत्व है। कल अजय पंडित का फोन आया। कहने लगे, ‘सत्यानाश हो गया! बर्बाद हो गया!’ मैने पूछा, ‘हुआ क्या?’ बोले कि बगल में कोरोना मरीज बरामद हुआ है। पूरा इलाका सील हो गया है। मैने कहा, ‘हिम्मत से काम लें। आप साठ पार कर गए हैं। बाहर न निकलें। खुद को घर में कैद कर लें। बाहर से आए सामान को सैनिटाइज करें। जो करना है सिर्फ घर में करें। जैसे इतना दिन कटा, वैसे ही बाकी भी कट जाएगा।’ इस पर गुरू ने अजीब ही तर्क दे दिया। गुरु मुझसे बोले, ‘इस लॉक डाउन में तरल पदार्थ का जो क्राइसिस है, वो तो है ही। उसका फिर भी इंतजाम कर रखा है। मगर इलाका सील होने के बाद घर में कोई आएगा नही, तो फिर पपलू कैसे होगा। शाम का चार घंटा पपलू खेलते हुए द्यूत क्रीड़ा में कट जाता था। अब क्या होगा?’

पंडित जी, बड़े विकट किस्म के पपलू प्रेमी हैं। रात रात भर खेलते रह जाते हैं। पढ़ते वक्त इस चक्कर में वे कई मित्रों के माता-पिता को दिवंगत कर चुके हैं। वजह ये है कि मित्रों के ठिकाने पर सारी रात पपलू खेलते हुए जब कई बार घर नही पहुंच पाते हैं। ऐसे में सुबह घर पहुंचकर रात भर बाहर रहने का कारण किसी न किसी दोस्त के माता पिता की असमय मृत्यु को बताया जाता। गुरु के कई मित्रों के माता-पिता अब तक पपलू की भेंट चढ़ चुके हैं। यह है पत्तों के प्रति गुरु की आस्था और निष्ठा।

गुरु जो भी करते हैं, पूरे मनोयोग से करते हैं। खाना, पीना, घूमना, पत्ते खेलना, गुरु ने जो भी शुरू किया, हमेशा टॉपर ही रहे। कभी समय की परवाह नही की। विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी को मुन्ना भाई एमबीबीएम का आइडिया बहुत बाद में आया। गुरु इस सृष्टि के आदि मुन्ना भाई हैं। वे खुद तो टॉप करते ही थे, जिसके लिए यूनिवर्सिटी में इम्तेहान दिया, वह भी टॉप कर गया। प्रवेश पत्र किसी और का था, लेकिन दोस्ती यारी में इम्तिहान अजय गुरु दे रहे थे। अब अगर अजय गुरु की कृपा से उनका वह दोस्त सिर्फ पास भर हो जाता तो कोई बड़ी बात न होती। गुरु की इस मुन्नाभाई गिरी का राज कभी नही खुलता। मगर मुसीबत ये हुई कि वह छात्र जिसके लिए काला अक्षर भैंस और सांड दोनो के सम्मिलित आयतन के बराबर था, टॉप कर गया। नतीजे में विश्वविद्यालय में हल्ला मच गया और जांच-पड़ताल की आंच गुरु तक पहुंच गई।

गुरु तरल पदार्थ के खासे शौकीन हैं। उनकी नजर में तुलसीदास ने मूल रूप में मानस में लिखा था- तरल पदारथ एहि जग माही, कर्म हीन नर पावत नाही। पर प्रूफ की गलती से ‘तरल’की जगह ‘सकल’ छप गया। खैर चूंकि बात शुरू हुई है गुरु की द्यूत क्रीड़ा के प्रति ललक, समर्पण और निष्ठा से तो इसी बहाने द्यूत क्रीड़ा के संसार का विचरण कर लेते हैं। अजय गुरु अपना इलाका सील होने के चलते जो कर्म कर नही पा रहे हैं, उसका वे पढ़कर आनंद ले लेंगे। मेरे इस लिखे को जुए के खेल में गुरु की अखंड निष्ठा के प्रति एक मामूली सी भेंट समझा जाए।

जुआ जीवन की बेहद दार्शनिक सामग्री है। इसे यूं भी समझ सकते हैं कि जुआं धन से मोह छोड़ने की विपश्यना है। पैसे के क्रूर और चंचल स्वभाव को समझने का अनुष्ठान है। जो लोग पैसे और सम्पत्ति के पीछे फ़ाईल लेकर दौडते है उन्हे इस जुए का अनुष्ठान समझ नही आएगा। जो जीवन को ही फायदे और नुकसान के अंतहीन चक्रव्यूह में उलझा चुके हैं, उन्हें भी इसे समझने में विशेष तौर पर दिक्कत आएगी। पर जो जुए के खेल को दर्शन और अध्यात्म से जोड़कर देखते हैं, वे जरूर अपने कर्मों पर स्वयं को धन्य महसूस करेंगे। इसे कृष्ण ने खेला। शिव ने पार्वती के साथ खेला। पार्वती ने शिव को हराया। स्कंद पुराण (2.4.10) कहता है कि पार्वती ने यह ऐलान किया कि जो भी दीपावली में रात भर जुआ खेलेगा, उस पर वर्ष भर लक्ष्मी की कृपा रहेगी। अजय गुरु पठन पाठन के शौकीन व्यक्ति हैं। यूं तो देश और दुनिया की कई किताबें उन्होंने पढ़ रखी हैं पर वैदिक ग्रंथों में केवल एक ही ग्रंथ पूरा पढ़ा है और वो है स्कंद पुराण। स्कंद पुराण तो दीपावली की रात भर जुआ खेलने की बात करता है पर गुरू इतने समर्पित हैं कि वे हर रात स्कंद पुराण को अपनी जिंदगी में उतार देते हैं। ये भी एक सुखद संयोग है कि गुरु पर लक्ष्मी की कृपा जमकर रही है। अब ये बहस का विषय हो सकता है कि ये कृपा गुरु के पुरुषार्थ का नतीजा है या फिर जुए के प्रति उनकी अटूट निष्ठा का।

मेरा मानना है कि जुए को दर्शन की तरह खेलना चाहिए। इसका आदती या लती नही होना चाहिए। इस समाज में जुए पर उंगली उठाने वाले लोगों की कमी नही है। पर सत्य यही है कि जुए पर उंगली उठाने वाले लोग जीवन भर उस धन पर कुंडली मारकर बैठे रहते हैं जो जुएं के दांव स्वरुप लगाया जाता है। यानि जुए से बैर है पर जुए के दांव से खतरनाक किस्म का मोह। अजीब दोहरापन है जीवन का। कुछ भी ही जाए, पर उन लोगों ने कभी भी धन का साथ नही छोड़ा। संपत्ति का मोह उनके जीवन की बैटरी बन चुका है। बस यही बैटरी उनके जीवन को आगे बढ़ाती है। इसे ही रिचार्ज करने के उहापोह में जीवन बीता जा रहा है। मॉल से लेकर कानून के बवाल तक उनके जीवन में हमेशा धन ही प्रधान रहा। उन्होंने पीढ़ियों से सिर्फ धन से चिपकने के सबक लिए और यही सबक विरासत में छोड़ने का उद्यम किया है। ऐसे लोगों को कभी जुए के असली मायने समझ नहीं आएंगे।

जुए और दीपावली का बेहद गहरा रिश्ता है। अजय गुरु बरसों से इस रिश्ते के अंतराष्ट्रीय ब्रांड एंबैसडर हैं। दीपावली सम्पन्नता का अनुष्ठान है। सम्पन्नता को सिध्द करने का साधन पैसा है। पर पैसे का स्वभाव क्या है? पैसा तो हाथ का मैल है। छूटता ही रहता है। बस इसी बात को समझाने के लिए दिवाली पर जुआ खेलने की प्रथा है। जुए के इस खेल में पैसा अपने स्वामियों को तेज़ रफ़्तार से बदलता रहता है। दिवाली में खेला गया जुआ व्यसन नही है। यह अनुष्ठान है। यह अनुष्ठान इस सूत्र की सिद्धि के लिए है पैसा स्थायी नही है। उसके चंचल स्वभाव से हमें परिचित रहना चाहिए। पैसा हमारी सम्पन्नता का माध्यम हो सकता है। पर पैसा सम्पन्नता का पर्याय नही है। जिस समाज में पैसा सम्पन्नता का पर्याय हो जाता है, उसकी सम्पन्नता लम्बे वक़्त तक टिकाऊ नही रह सकती है। इसलिए जुए का संदेश यही है कि हम पैसे के क्रूर और चंचल स्वभाव को समझें।

जुआ दीपावली का शगुन माना जाता है। मान्यता है कि अगर दीपावली में जीते तो साल भर जीतेंगे। जुए की परम्परा सदियों पुरानी है। ईसा से तीन हज़ार साल पहले मेसोपोटामिया में छह फलक वाला पाँसा पाया गया। इसी के आसपास मिस्र के काहिरा से एक टैबलेट मिला, जिस पर यह कथा उत्कीर्ण है कि रात्रि के देवता थोथ ने चन्द्रमा के साथ जुआ खेल कर पांच दिन जीत लिए जिसके कारण 360 दिनों के वर्ष में पांच दिन और जुड़ गए। चीनी सम्राट याओ के काल में भी 100 कौड़ियों का एक खेल होता था जिसमें दर्शक बाज़ी लगा कर जीतते हारते थे। यूनानी कवि और नाटककार सोफोक्लीज़ का दावा है कि पाँसे की खोज ट्रॉय के युद्ध के समय हुई थी। हालांकि मुझे इस पर भरोसा नही है। मैं इस विद्या की जन्मस्थली भारत को मानता हूं। हमारे यहां द्यूत-क्रीड़ा को 64 कलाओं में आदरणीय स्थान दिया गया और इसका पूरा शास्त्र विकसित किया गया।

ऋग्वेद के 10वें मण्डल में भी जुए का ज़िक्र है। इसमें जुए को दर्शन की जगह लत और नशा समझने वाले जुआड़ियों को सावधान भी किया गया है। ‘जुआड़ी का प्रलाप’ के सूक्त 34 के कुछ अंश इस प्रकार हैं-

“मैं अनेक बार चाहता हूँ कि अब जुआ नहीं खेलूंगा। यह विचार करके मैं जुआरियों का साथ छोड़ देता हूँ परंतु चौसर पर फैले पांसों को देखते ही मेरा मन ललच उठता है और मैं जुआरियों के स्थान की ओर खिंचा चला जाता हूँ।”

“जुआ खेलने वाले व्यक्ति की सास उसे कोसती है और उसकी सुन्दर भार्या भी उसे त्याग देती है। जुआरी का पुत्र भी मारा-मारा फिरता है जिसके कारण जुआरी की पत्नी और भी चिन्तातुर रहती है। जुआरी को कोई फूटी कौड़ी भी उधार नहीं देता। जैसे बूढ़े घोड़े को कोई लेना नहीं चाहता, वैसे ही जुआरी को कोई पास बैठाना नहीं चाहता।”

“जो जुआरी प्रात:काल अश्वारूढ़ होकर आता है, सायंकाल उसके शरीर पर वस्त्र भी नहीं रहता।.”हे अक्षों (पांसों)! हमको अपना मित्र मान कर हमारा कल्याण करो। हम पर अपना विपरीत प्रभाव मत डालो। तुम्हारा क्रोध हमारे शत्रुओं पर हो, वही तुम्हारे चंगुल में फँसे रहें!”

“हे जुआरी! जुआ खेलना छोड़ कर खेती करो और उससे जो लाभ हो, उसी से संतुष्ट रहो!”

पूरे संसार के प्राचीन साहित्य को खंगाल डालिए, द्यूत-क्रीड़ा का ऐसा सुन्दर काव्यात्मक वर्णन नहीं मिलेगा। यद्यपि वैदिक ऋषि ने पहले ही सावधान कर दिया कि जुए का दुष्परिणाम भयंकर है, लेकिन इसका नशा ऐसा है कि इसके आगे मदिरा का नशा भी तुच्छ है। युधिष्ठिर इसी नशे के शिकार हुए। जुए के खेल में जिस धोखेबाज बुद्धि की जरूरत पड़ती है वैसी बुद्धि युधिष्ठिर के पास नही थी। जबकि शकुनि इस कला में अत्यंत निपुण था। यह जानते हुए भी वे दुर्योधन के निमंत्रण पर जुआ खेलने को तैयार हो गए और राजपाट व अपने भाइयों समेत खुद को तथा द्रौपदी को भी हार गए। नल और दमयंती की कहानी भी इसी से मिलती जुलती है।

संस्कृत व्याकरण की मूल किताब पाणिनि (500 ई.पू.) के ‘अष्टाध्यायी’ में भी जुआ मौजूद है। पाणिनि ने जुए के पाँसों को अक्ष और शलाका कहा है। अक्ष वर्गाकार गोटी होती थी और शलाका आयताकार। तैत्तरीय ब्राह्मण और अष्टाध्यायी से अनुमान होता है कि इनकी संख्या पाँच होती थी जिनके नाम थे-अक्षराज, कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। अष्टाध्यायी में इसी कारण इसे ‘पंचिका द्यूत’ के नाम से पुकारा गया है। कोटियों के चित्त और पट गिरने के विविध तरीक़ों के आधार पर हार और जीत का निर्णय कैसे होगा, पाणिनी ने इसे भी समझाया है। पतंजलि ने भी जुआड़ियों का ज़िक्र किया है और उनके लिए ‘अक्ष कितव’ या ‘अक्ष-धूर्त’ शब्द का प्रयोग किया है। अग्नि पुराण में द्यूतकर्म का पूरा विवेचन है। स्मृतियों में भी हार-जीत के नियम बताए गए हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से यह मालूम पड़ता है कि उस ज़माने में राजा द्वारा नियुक्त द्यूताध्यक्ष यह सुनिश्चित करता था कि जुआ खेलने वालों के पाँसे शुद्ध हों और किसी प्रकार की कोई बेईमानी न हो। जुए में जीत का पांच प्रतिशत राज्य को कर के रूप में चुकाना पड़ता था। कौटिल्य ने जुए की निन्दा की है और उन्होंने राजा को परामर्श दिया है कि वह चार व्यसनों शिकार, मद्यपान, स्त्री-व्यसन तथा द्यूत से दूर रहे।

दीपावली की अगली तिथि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का नामकरण ही ‘द्यूत प्रतिपदा’ के रूप में कर दिया गया। गीता के ‘विभूति-योग’ अध्याय में कृष्ण ने कहा है-“द्यूतं छलयतामस्मि” अर्थात “हे अर्जुन! मैं छल संबंधी समस्त कृत्यों में जुआ हूँ।” यानी जुआ भी कृष्णमय है*।

मैं बार बार इस बात का जिक्र किए जा रहा हूं कि जुए को दर्शन की तरह लेना चाहिए न कि नशेड़ी के नशे की तरह। मनु महाराज जुए के लत में बदल जाने के साइड इफेक्ट्स से बहुत आशंकित रहते थे। शायद इसीलिए उन्होंने ‘मनुस्मृति’ में यहां तक लिख दिया कि जुए और बाज़ी लगाने वाले खेलों पर प्रतिबंध होना चाहिए। आपस्तंब धर्मसूत्र में जुए को केवल ‘अशुचिकर’ पापों की श्रेणी में रखा गया। ये पाप ऐसे हैं जिनसे आदमी जाति से बहिष्कृत नहीं होता। मज़ेदार बात यह है कि फलित ज्योतिष द्वारा जीविका साधन भी इसी श्रेणी का पाप है यानी ज्योतिष का धंधेबाज़ और जुआड़ी दोनों बराबर!! शूद्रक के नाटक “मृच्छकटिकम्” में ‘संवाहक’ नामक जुआड़ी का बडा ही मनोरंजक वर्णन है। मृच्छकटिकम् के एक श्लोक से उस वक़्त के जुआड़ियों का चाल-चरित्र और जुए के प्रति उनके समर्पण का पता चलता है:-

” द्रव्यं लब्धं द्यूतेनैव दारा मित्रं द्यूतेनैव,
दत्तं भुक्तं द्यूतेनैव सर्वं नष्टं द्यूतेनैव।”

अर्थात मैंने जुए से ही धन प्राप्त किया। मित्र और पत्नी जुए से ही मिले। दान और भोजन भी जुए से ही किया और मैंने जुए में ही सब कुछ गँवा दिया।

मुग़ल काल में भी शतरंज, गंजीफा और चौपड़ खेला जाता था। राजाओं के यहाँ खूब जुआ खेला जाता था। लोग सब कुछ लुटा कर दरिद्र हो जाते थे। यही सब देख कर कबीरदास जी ने कहा-“कहत कबीर अंत की बारी। हाथ झारि कै चलैं जुआरी।” इस्लाम में जुआ खेलना हराम कहा गया है, लेकिन इसके बावजूद अधिकांश मुस्लिम देशों में जुए पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लग सका। इंग्लैण्ड में कभी जुए पर पूरा प्रतिबंध लगा रहा और अचानक 1660 ई. में चार्ल्स द्वितीय ने सभी को जुआ खेलने की अनुमति दे दी। चार साल बाद 1664 ई. में क़ानून पास हुआ कि केवल धोखाधड़ी और बेईमानी से खेले जाने वाले जुए पर रोक रहेगी तथा कोई आदमी जुए का धन्धा नहीं कर सकेगा। बाद में तो ब्रिटिश सरकार ने लाटरी शुरू की जिसकी आय फ्रांस से हुए युद्ध में ख़र्च हुई। फ्रांस ने भी पेरिस में सीन नदी पर पत्थर के पुल-निर्माण का ख़र्च लाटरी से ही निकाला। भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में “पब्लिक गैंब्लिंग एक्ट 1867″ लागू हुआ और कई राज्यों ने अपने क़ानून बना कर जुए पर रोक लगाई। स्वतंत्र भारत में भी जुआ खेलना दण्डनीय अपराध है लेकिन इसके क्रियान्वयन की स्थिति से सभी लोग परिचित हैं। भारत में सरकारी और निजी लाटरी का धंधा कई बार चला और बन्द हुआ। यह समझ के परे है कि सरकार प्रायोजित जुए में कोई बुराई नहीं और आम जनता खेले तो जेल की हवा खाए!

अजय गुरू जिन ताश के पत्तों से पपलू के ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतते हैं, उन ताश के पत्तों का भी दिलचस्प इतिहास है। ताश के पत्तों के चलन से जुए की दुनियाँ में क्रान्ति आ गई। चीन में जुए का इतिहास कम-से-कम 2500 ई.पू. पुराना है। वहां तांग राजवंश (698-907 ई.) के दौरान ताश के पत्ते पाए गए। चौदहवीं सदी के अंत में ताश के पत्तों ने मिश्र से यूरोपीय देशों में प्रवेश किया। हुकुम, पान, ईंट और चिड़ी के 52 पत्तों वाले ताश का इस्तेमाल सर्वप्रथम सन् 1480 में हुआ। तब से अब तक इन पत्तों की सज-धज और आकार-प्रकार में अनेक परिवर्तन हुए। ताश के तरह-तरह के खेल जैसे पोकर, ब्रिज, रमी आदि बहुत लोकप्रिय हुए। ख़ूबी यह है कि कई खेलों में रुपए-पैसे की बाज़ी लगाने की जरूरत नहीं है, इसलिए उन्हें जुए की कोटि में नहीं रखा जाता। जुए को लोग संयोग का खेल कहते है पर मेरे हिसाब से यह दक्षता का खेल है।

नतीजा कितना भी दु:खदायी हो, जुए के खेल का रोमांच और नशा ऐसा है कि वह आज दुनिया का सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला खेल है। अमेरिका का शहर लॉस वेगास जुआ खेलने वालों का स्वर्ग है। गुरू वहॉं हो आए है। वहाँ की यूनिवर्सिटी ऑफ नेवादा में जुए से संबंधित शोध केंद्र के अलावा इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ गैंबलिंग एंड कॉमर्शियल गेमिंग की स्थापना हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद जुए का खेल पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक विरासत का अंग नहीं बन सका। धरती पर केवल भारत ही ऐसा देश है जहां ऋग्वैदिक काल से लेकर आज तक द्यूत-क्रीड़ा की अविच्छिन्न परंपरा चलती आई। जुए को लेकर यहाँ जैसा उच्च कोटि का शास्त्र रचा गया, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।

तो अजय गुरू के जुआ मोह के दर्शन को समझिए। जुए के इतिहास को समझिए। उसके शास्त्र को समझिए। उसके पीछे की मूल भावना को समझिए। गुरू अब ऑन लाईन हो गए है। उन्होंने अब ऑनलाइन पपलू खेलने की शुरूआत कर दी है। जहां चाह, वहां राह…

[bs-quote quote=”लेखकनेशनल चैनल टीवी9 भारत वर्ष के न्‍यूज डायरेक्‍टर की जिम्‍मेदारी निभाते हुए लगातार लगातार साहित्‍य सृजन में लगे हुए हैं। बाबरी मस्जिद विध्‍ंवस पर लिखी इनकी पुस्‍तक ‘अयोध्‍या का चश्‍मदीद’ और ‘युद्ध में अयोध्‍या’ ने खासी
” style=”style-13″ align=”center” author_name=” हेमंत शर्मा ” author_job=”ख्‍यातिलब्‍ध पत्रकार” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/05/hemant.jpg”][/bs-quote]

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