बकरीद पर क्यों दी जाती हैं कुर्बानी, जानें इससे जुड़ी पूरी कहानी…

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मुस्लिम समाज में ईद उल-फितर यानि मीठी ईद के बाद ईद उल-अजहा यानि बकरीद दूसरा सबसे बड़ा पर्व है, जिसे आज पूरे देश में मनाया जा रहा है. इस्लाम धर्म से जुड़े लोग इस पर्व को हर साल रमजान खत्म होने के लगभग 70 दिन बाद मनाते हैं. धुल्ल हिज – जिल हिज्जा की 10वीं तारीख को मनाई जाने वाली बकरीद के पर्व को कुर्बानी के पर्व के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस दिन लोग बकरे की कुर्बानी देते हैं. जैसे हर त्योहार को मनाने के पीछे कोई न कोई वजह और उसका इतिहास होता है. वैसे ही बकरीद मनाने के पीछे भी कई वजह छिपी हुई हैं. आज हम आपको बकरीद के मौके पर उसके मनाने के कारण और इतिहास के बारे में बताने जा रहे हैं. कि आखिर इस दिन बकरे की कुर्बानी क्यों दी जाती है और क्या है इसके पीछे की मान्यता क्या है? आइए जानते हैं कि आखिर कब कैसे शुरु हुई कुर्बानी की परंपरा?

कुर्बानी की परंपरा कैसे हुई शुरू…

इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार, ईद उल अजहा का पर्व साल के आखिरी महीने यानी 12वें महीने में आता है. इस महीने में बकरीद के अलावा धू-अल-हिज्जा के दिन भी आते हैं. ईद उल अजहा के पीछे कहानी यह है कि हजरत इब्राहिम को अल्लाह ने ख्वाब में हुक्म दिया था. कि वह अपने प्यारे बेटे हजरत इस्माइल को कुर्बान कर दें. हजरत इब्राहिम के लिए यह एक इम्तिहान था. जिसमें एक तरह प्यारा बेटा और दूसरी तरह अल्लाह का हुक्म था. इब्राहिम ने अल्लाह का हुक्म मानते हुए अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गया. जब हजरत इब्राहिम कुर्बानी दे रहे थे, तभी छुरी के नीचे एक मेमना आ गया. और कुर्बान हो गया. इसके बाद से ही बकरे की कुर्बानी देने का दौर शुरू हुआ। मेमने के कुर्बानी के बाद फरिश्तों के सरदार जिब्रली अमीन ने इब्राहिम को खुशखबरी सुनाई की अल्लाह ने आपकी कुर्बानी को कबूल कर लिया है।इसके बाद से ही बकरे की कुर्बानी देने की परंपरा शुरू हुई।

तीन हिस्सों में बांटी जाती है कुर्बानी 

बता दे कि बकरे या जिस भी जानवर की कुर्बानी दी जाती है. उसके मांस के तीन हिस्से किए जाते हैं. कुर्बानी का पहला हिस्सा रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए होता है. ईद पर गरीबों का भी ख्याल रखा जाता है. कुर्बानी का दूसरा हिस्सा गरीब और जरूरतमंद लोगों के लिए होता है. तीसरा हिस्सा घर परिवार के सदस्यों के लिए होता है।

मीठी ईद और बकरीद में क्या हैं अंतर…

बकरीद को मीठी ईद के करीब 70 दिनों बाद मनाया जाता है. दोनों त्योहारों में काफी अंतर है. लेकिन सामाजिक रूप से एक जैसे हैं. दोनों में अल्लाह को शुक्रिया अदा किया जाता है. मीठी ईद पर लोग सभी को ईदी देते हैं. और खूब खुशी से इस दिन को मनाते हैं. कहते हैं जंग ए बदर खत्म होने के बाद पैंगबर मोहम्मद ने ईद उ फितर का जश्न मनाया था. इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से इसे हिजरी सन भी कहते हैं. इसके मुताबिक चांद की चाल के आधार पर रमजान का महीना आता है. बकरीद को कुर्बानी का दिन कहते हैं. इस दिन कुछ नियमों का पालन किया जाता है।

कुर्बानी के हैं नियम

  • अल्‍लाह सिर्फ इंसान की मंशा को देखते हैं. वास्‍तव में बकरीद पर बकरे की कुर्बानी केवल प्रतीकात्‍मक है. कुर्बानी का असल मतलब ऐसे बलिदान से है, जो चीज आपको अति प्रिय हो और आप उसे भी अल्‍लाह को समर्पित कर सकें।
  • नियम के अनुसार जो व्‍यक्ति पहले से कर्ज में डूबा हो, वो कुर्बानी नहीं दे सकता. कुर्बानी देने वाले के पास किसी भी तरह कोई कर्ज नहीं होना चाहिए।
  • कुर्बानी के लिए बकरे के अलावा ऊंट या भेड़ की भी कुर्बानी दी जा सकती है. लेकिन भारत में इनका चलन काफी कम है।
  • उस पशु को कुर्बान नहीं किया जा सकता जिसको कोई शारीरिक बीमारी या भैंगापन हो, सींग या कान का भाग टूटा हो. शारीरिक रूप से दुबले-पतले जानवर की कुर्बानी भी कबूल नहीं की जाती।
  • बहुत छोटे बच्चे की बलि नहीं दी जानी चाहिए. कम-से-कम उसे एक साल या डेढ़ साल का होना चाहिए।
  • कुर्बानी हमेशा ईद की नमाज के बाद की जाती है. कुर्बानी के बाद मांस के तीन हिस्से होते हैं. एक खुद के इस्तेमाल के लिए, दूसरा गरीबों के लिए और तीसरा संबंधियों के लिए. वैसे, कुछ लोग सभी हिस्से गरीबों में बांट देते हैं।
  • बकरीद के दिन कुर्बानी देने के बाद अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार गरीबों को दान पुण्य भी करना चाहिए.

 

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