इंसान से भगवान बने आदिवासी की अनोखी दस्तान….
कहते है, ”जीवन बड़ा होना चाहिए लंबा नहीं”… ! कुछ ऐसा ही प्रभाव झारखंड निवासी जनजाति के लोगों में बिरसा मुंडा का है. वहां के स्थानीय लोग तो आज भी उन्हें अपने बीच महसूस करते हैं. कहते हैं कि आज भी जब नागपुर के जंगलों में पुराने पेड़ो के पत्ते हवा में डोलते है तो लगता है कि आज भी बिरसा मुंडा उनके बीच हैं. उनके साहस और शौर्य की गाथा वे कहते हैं. जनजाति में इस शौर्य से मशहूर बिरसा मुंडा देश के अन्य हिस्से के लोग बहुत ही कम जानते हैं. बिरसा मुंडा की कहानी उस 25 वर्षीय आदिवासी लड़के की कहानी है, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी. आइए जानते है क्या बिरसा मुंडा से जुडा इतिहास …..
1857 के दो दशक के बाद धरती आबा बिरसा मुंडा का उदय हुआ. बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को खूंटी के उलिहातू में हुआ था. चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा हुई. बिरसा की क्रांतिकारी तेवर पढ़ाई के दौरान ही मालूम हो गया था.
यह भी बता दें कि बिहार से अलग झारखंड राज्य का गठन भी बिरसा मुंडा की जयंती के दिन ही हुआ था, जो उनका झारखंड पर कितना प्रभाव और सम्मान था को दिखाता है. बिरसा मुंडा, छोटानागपुर पठार क्षेत्र की मुंडा जनजाति के सदस्य थे. उन्होंने अपना बचपन आदिवासी गांवों में बिताया. सालगा में उन्हें जयपाल नाग ने मार्गदर्शन दिया था. यही नहीं, बिरसा मुंडा ने जयपाल नाग के कहने पर जर्मन मिशन स्कूल में शामिल होने के लिए ईसाई धर्म भी अपना लिया था. कुछ समय बाद ही उनका ईसाइयत से मोहभंग हो गया. जबकि वे जानते थे कि मिशनरी केवल आदिवासियों का धर्मांतरण करने में लगे हैं.
धर्मांतरण का विरोध कर पूजा का किया आह्वान
यही नहीं, उन्होंने ब्रिटिश शासन और उसके समर्थन से चल रहे मिशनरी के काम को भी समझा था, जो जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को धर्मांतरित कर रहे थे. बिरसा मुंडा ने धर्मांतरण का विरोध किया और आदिवासी लोगों से प्रकृति पूजक धर्म का पालन करने का आह्वान कर उन्हें इसके लिए प्रेरित किया. इसके बाद वे एक धर्मगुरु बन गए और आदिवासी लोगों को अपना धर्म सिखाने लगे। उन्होंने एक समुदाय का रूप लिया और उनके अनुयायी बिरसैत कहलाने लगे.
धर्मांतरण के खिलाफ अंग्रेजी हुकुमत की बजा दी थी ईंट से ईंट
मुंडा और ओरांव जनजाति के लोग ही प्रमुखता से बिरसैत बने थे. इसके बाद मिशनरियों की धर्मांतरण की कोशिश को मुश्किलों का सामना करना पड़ा. साल 1886 से 1890 तक, बिरसा मुंडा चाईबासा में थे. सरदारों के आंदोलन का केंद्र यह क्षेत्र था. इसका उन पर गहरा असर था, जिससे वे धीरे-धीरे सरकार विरोधी और एंटी-मिशनरी बन गए. तीन मार्च 1900 को बिरसा मुंडा, जिनकी आयु 25 साल भी नहीं थी, ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया जब वह अपनी गुरिल्ला सेना के साथ सो रहे थे. 9 जून 1900 को बिरसा मुंडा ने सिर्फ 25 वर्ष की ही उम्र में जेल में अपना दम तोड़ दिया.
विद्रोह खत्म हुआ, प्रभाव नहीं ..
उम्र में बहुत छोटे होने के बावजूद बिरसा मुंडा का प्रभाव आदिवासी समाज पर गहरा पड़ा, जो आज तक खत्म नहीं हुआ है. बेशक मुंडा को गिरफ्तार करके अंग्रेजों में उनके विद्रोह को लगाम लगा दी थी, लेकिन वे जनजाति पर हुए उनके प्रभाव को कभी खत्म नहीं कर पाएं. उन्हें अपने धर्म पर अडिग रहने का पाठ पढ़ाया गया था. ‘उनकी आँखों में बुद्धिमता की चमक थी और उनका रंग आम आदिवासियों की तुलना में कम काला था,’ जॉन हॉफ़मैन ने अपनी किताब ‘इनसाइक्लोपीडिया मंडारिका’ में बिरसा मुंडा के बारे में लिखा था कि, बिरसा एक महिला से शादी करना चाहते थे, लेकिन जब वे जेल में थे, वह उनके प्रति ईमानदार नहीं थी, इसलिए उन्होंने उसे छोड़ दिया।”
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ईसाई अध्यापक ने मुंडा जनजाति पर टिप्पणी की तो छोड़ी पढ़ाई
आदिवासी नायक बिरसा के ईसाई धर्म छोड़ने को लेकर भी एक किस्सा मशहूर है। कहा जाता है कि उनके एक ईसाई अध्यापक ने क्लास में मुंडा लोगों के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। बिरसा ने विरोध में अपनी कक्षा का बहिष्कार कर दिया। उसके बाद उन्हें कक्षा में वापस नहीं लिया गया और स्कूल से भी निकाल दिया गया। फिर बिरसा ने भी ईसाई धर्म छोड़ दिया और अपने मत का प्रचार करने लगे। बिरसा मुंडा को अंग्रेज बड़ी चुनौती मानते थे और उन पर 500 रुपये का इनाम भी घोषित किया था।