सष्मिता के ‘जस्बे और जूनुन’ ने दिलाई सफलता

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प्रो-कबड्डी लीग (पीकेएल) ने खिलाड़ियों को तो तमाम शोहरत से नवाजा और देश ने भी उन्हें खूब प्यार दिया, लेकिन इन सभी की नजरों से ओझल लीग में हिस्सा लेने वाली महिला रेफिरियों को शायद ही कोई जानता हो।

सष्मिता दास जो पहले ऊंची कूद खिलाड़ी थीं

किसी भी खेल में जितना महत्व खिलाड़ियों का होता है, उतना ही महत्व या यूं कहें कि उससे अधिक महत्व रेफरी का होता है। जो खेल के नियमों और दायरों में रहते हुए निष्पक्ष होकर परिणाम देते हैं। पीकेएल के अभी तक की संस्करणों में महिला रेफरियों की भूमिका बेहद खास और नियमित रही है। हर मैच में एक महिला रेफरी को सभी लोग आसानी से देख सकते हैं। इनमें से ही एक हैं भुवनेश्वर की रहने वाली सष्मिता दास जो पहले ऊंची कूद खिलाड़ी थीं।

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सष्मिता का कबड्डी से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन देश की दूसरी सबसे ज्यादा देखी जाने वाली लीग में वह इस खेल की रेफरी की भूमिका में हैं। अपने इसी सफर के दौरान आए उतार चढ़ाव के बारे में सष्मिता ने  मीडिया के साथ साक्षात्कार में तफसील से बात की।

अपनी काबिलियत के दम पर कुछ बनके दिखाएंगी

कबड्डी लीग में पिछले चार सीजन से नियमित तौर पर रेफरी की भूमिका निभा रहीं सष्मिता ने जीवन की शुरुआत खो-खो की खिलाड़ी के रूप में की थी। हालांकि, कई लोगों की राजनीति के कारण वह आगे नहीं जा पाई, लेकिन उन्होंने ठान ली थी कि वह इन सभी को अपनी काबिलियत के दम पर कुछ बनके दिखाएंगी।

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बकौल सष्मिता, “भुवनेश्वर में कोच सूर्यकांत महांत के समर्थन से मैं आगे गई। मैं इस तरह ऊंची कूद की एथलीट बनीं। इसके बाद राज्य स्तर पर प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया, लेकिन भाग्य ने यहां भी मेरा साथ नहीं दिया। अपेंडिक्स के ऑपरेशन के कारण और अन्य कई परेशानियों के चलते मुझे इस खेल से भी अलग होना पड़ा। 10 साल जीवन के ऐसे ही बीत गए।”

रेफरी बनने तक का सफर सष्मिता के लिए आसान नहीं था

सष्मिता को 10 साल बाद महांत और उनकी बहन द्वारा बनाए गए कबड्डी क्लब में शामिल होने का मौका मिला। इस तरह आगे बढ़ते हुए साल 2011 में सष्मिता ने अखिल भारतीय कबड्डी संघ की परीक्षा दी और इसे पास करने के बाद उन्हें 2014 में सब-जूनियर की रेफरी बनने का मौका मिला।सष्मिता ने कहा, “इसमें मेरे अच्छे प्रदर्शन को देखते हुए मुझे फरवरी 2015 में केरल में आयोजित हुए राष्ट्रीय कबड्डी टूर्नामेंट में रेफरी के तौर पर शामिल किया गया।”एक एथलीट से कबड्डी रेफरी बनने तक का सफर सष्मिता के लिए आसान नहीं था।

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बकौल सष्मिता, “आपको पता है कि जब एक महिला अपनी पहचान बनाने के लिए बाहर निकलती है, तो उसे कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा है। जब मैंने राष्ट्रीय स्तर पर इसकी शुरुआत की, तो इस दौरान कई अधिकारी थे, जिन्होंने मुझे कमजोर करने की कोशिश की। हालांकि, मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि पीठ पीछे कई लोग बोलेंगे और मैं उन लोगों की बात को नजरअंदाज कर देती थी।”

चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करती रहीं

सष्मिता ने उनकी आलोचनाओं को सकारात्मक रूप से लिया, क्योंकी उनके अनुसार, कहीं न कहीं उनकी आलोचानाएं सुष्मिता को जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करती रहीं।

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तो मंजिल तक पहुंचने का आनंद नहीं आता

सष्मिता अविवाहित हैं और अपने बूढ़े माता-पिता का ध्यान रख रही हैं। कबड्डी के अलावा, पेशे से वह एलआईसी एजेंट का काम करती हैं। उन्होंने लोगों से मिलने वाली आलोचनाओं को अपनी तारीफ समझा और आगे बढ़ी, क्योंकि सष्मिता का कहना था कि कहीं न कहीं अगर जीवन में आप किसी चीज में आगे बढ़ते हैं और उस राह में परेशानियां न हो, तो मंजिल तक पहुंचने का आनंद नहीं आता।

टीम के खिलाड़ी भी हमारा काफी सम्मान करते हैं

सष्मिता ने कहा कि जहां कई लोगों ने उन्हें कमजोर करने की कोशिश की, वहीं कई लोगों ने उनका समर्थन भी किया।उन्होंने कहा, “कबड्डी संघ के सदस्यों और स्वयं संघ ने मेरी काफी मदद की। मेरे आगे बढ़ने में उन्हीं का हाथ है। आज मेरी एक पहचान है। टीम के खिलाड़ी भी हमारा काफी सम्मान करते हैं और उनसे भी हमें प्रोत्साहन मिलता है। प्रबंधन में शामिल वरिष्ठ रेफरी भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। मैं कहूंगी कि कबड्डी के कारण मुझे बहुत कुछ मिला है और सबसे खास एक पहचान मिल गई है।”

हर रोज अपनी टीम के साथ अभ्यास करते हैं

सष्मिता ने कहा कि खिलाड़ियों की तरह वह भी हर रोज अपनी टीम के साथ अभ्यास करते हैं, जिसमें वह सही तरीके से सीटी बजाना और टीम का किस प्रकार नाम लेना है, यह सिखाया जाता है।अहमदाबाद में हुए कबड्डी विश्व कप में शामिल चार रेफरियों में से एक सष्मिता भी थीं। अपने आप को इस स्तर पर देखकर उन्हें पीछे की परेशानियों का मलाल नहीं है।

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