‘जिस देश में जाकर अपनी धाक जमाई, उसके एक नागरिक से पार नहीं पाया’

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बात साल 2004 की है। हम सोच रहे थे कि जॉन राइट का उत्तराधिकारी का कौन होगा?, तो मेरे दिमाग में सबसे पहले उनका नाम आया। मुझे लगा था कि ग्रैग चैपल हमें चैलेंजर की पोजिशन से निकालकर नंबर वन की पोजिशन तक ले जाने के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति होंगे। मैंने अपनी पसंद के बारे में जगमोहन डालमिया को बताया। कुछ लोगों ने मुझे ऐसा न करने की भी सलाह दी। सुनील गावसकर उनमें से एक थे। उन्होंने मुझे कहा था, ‘सौरभ, इस बारे में सोच लो। उसके साथ टीम चलाना मुश्किल हो सकता है। उनका पुराना कोचिंग रेकॉर्ड अच्छा नहीं है।’

‘जिस देश में अपनी धाक जमाई, उसके एक नागरिक से पार नहीं पाया’

डालमिया ने भी मुझे एक सुबह अर्जेंट बातचीत के लिए अपने घर बुलाया। उन्होंने मुझसे कहा कि यहां तक कि ग्रेग के भाई इयान चैपल का भी कहना है कि उन्हें कोच बनाना भारत के लिए ठीक नहीं होगा। खैर, मैंने सभी बातों को इग्नोर कर अपने सहज ज्ञान के साथ चलने का फैसला किया। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। खैर, यही जिंदगी है। कुछ चीजें आपके हिसाब से होती हैं, जैसाकि मेरा ऑस्ट्रेलिया दौरा, कुछ आपके हिसाब से नहीं होतीं, जैसे ग्रेग अध्याय। मैंने उस देश में जाकर अपनी धाक जमाई, लेकिन उसके एक नागरिक से पार नहीं पा पाया।

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2005 मेरे जीवन का सबसे बुरा अध्याय रहेगा। न सिर्फ बिना किसी वजह के मेरी कप्तानी छीन ली गई बल्कि एक खिलाड़ी के तौर पर भी मुझे टीम से बाहर कर दिया गया। मुझे यह लिखते हुए भी गुस्सा आ रहा है। जो हुआ मैं उस बारे में सोच भी नहीं सकता। वह अस्वीकार्य था। वह अक्षम्य था।

इतिहास में ऐसे मौके ज्यादा नहीं मिलेंगे, जब एक विजयी कप्तान को यूं हटाया गया हो। वह भी तब जब उसने अपनी पिछली सीरीज में सेंचुरी लगाई हो। भारतीय क्रिकेट में इस तरह की और कोई घटना नहीं हुई और मुझे नहीं लगता कि ऐसा कभी किसी के साथ होगा। तो मिस्टर ग्रेगरी स्टीफन चैपल और किरण मोरे की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने मेरे साथ ऐसा किया।

(साभार- नवभारत टाइम्स)

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