कभी गली-गली साड़ियां बेचने वाला आज कमा रहा करोड़ों

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कोई भी अपनी मेहनत और लगन के दम पर फर्श से अर्श तक कैसे पहुंच सकता है ये कोई चांद से पूंछे। जी हां चांद मतलब उस चांद से नहीं जो रोज रात को हमारी छत के ऊपर आकर अपनी चांदनी से सराबोर कर देता है बल्कि उस चांद से जो आज पटना की शान बनें हुए हैं। चांद बिहारी एक ऐसा नाम और शख्सियत जो अब एक चमकता सितारा बन गया है। चांद बिहारी अग्रवाल जयपुर में पैदा हुए और वहीं पांच भाई-बहनों के साथ पले बढ़े। उनके पिता जी को सट्टा खेलने की आदत थी।

सट्टा खेलना आज भले ही अपराध हो गया हो, लेकिन उस वक्त यह काम लीगल हुआ करता था। चांद के पिता ने शुरू में तो सट्टे से काफी पैसे बना लिए, लेकिन धीरे-धीरे उनकी किस्मत खराब होती गई और वे सारे पैसे लुटाते चले गए। घर की हालत इतनी बुरी हो गई कि चांद बिहारी स्कूल ही नहीं जा पाए। उनकी मां नवल देवी अग्रवाल ने घर का पूरा बोझ अपने कंधों पर ले लिया।

ठेले पर मां के साथ बेंचते थे पकौड़े

1966 में जब चांद बिहारी महज 10 साल के थे तब वह अपनी मां और भाई रतन के साथ एक ठेले पर पकौड़े बेचा करते थे। उनके दो छोटे भाई स्कूल जाते थे और उनकी बहन घर का काम-धाम देखती थीं। चांद बताते हैं कि वे रोज 12 से 14 घंटे तक काम किया करते थे। वो कहते हैं, ‘स्कूल जाने का सपना, सपना ही लगता था, क्योंकि हमें पेट भरने के लिए भी पैसे चाहिए थे।’ उनके अनुसार यदि उन्हें स्कूली शिक्षा मिली होती तो वह और जल्दी सफल हो जाते लेकिन हालात ऐसे थे कि वह पढ़ ही न हीं सके।

ऐसे शुरू हुआ सिलसिला

1972 में उनके बड़े भाई रतन की शादी हो गई। शादी के भेंट में मिले 5000 रुपयों से रतन ने जयपुर में 18 पीस चंदौरी साड़ियां खरीदीं और पटना में आकर उन्हें सैंपल के तौर पर दिखाया। यहां उनकी साड़ियां काफी पसंद की गईं। इसके बाद उन्होंने जयपुर से साड़ियां लाकर पटना में बेचने का काम शुरू कर दिया। पटना में ही रतन की ससुराल है। धीरे-धीरे रतन का काम बढ़ता गया और उन्हें मदद के लिए कुछ लोगों की जरूरत महसूस होने लगी।

उन्होंने 1973 में चांद बिहारी को अपने पास पटना बुला लिया। उनके पास पैसे तो ज्यादा नहीं थे, लेकिन उनका सपना बहुत बड़ा था और सपने के साथ ही काम करने की शिद्दत भी थी। पैसे न होने की वजह से वे किराए पर दुकान नहीं ले पाए और उन्होंने पटना रेलवे स्टेशन के पास फुटपाथ पर ही अपनी दुकान शुरू कर दी। चांद बिहारी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘गर्मी की तपती दोपहर में लोगों को बुलाना और उनसे सामान खरीदने के लिए कहना काफी मुश्किल होता था।’

पटना में राजस्थानी साड़ियां बेचने वाले वे अकेले थे। उस वक्त दिन भर की मेहनत से वे 25 प्रतिशत के मार्जिन के हिसाब से 250 से 300 रुपये रोज बना लेते थे। धीरे-धीरे वे हरेक दुकानों पर जा-जाकर लोगों से अपनी साड़ियां खरीदने के लिए कहने लगे। इस प्रोसेस से उन्होंने अपना एक रीटेल नेटवर्क खड़ा कर लिया।

किराए पर लेकर दुकान खोली

ठीक एक साल बाद उन्होंने कुछ पैसे बचाकर पटना के कड़कुआं इलाके में एक दुकान किराए पर ले ली। इसके बाद तो उनकी निकल पड़ी। दुकान लेने के बाद उनकी सेल हर महीने 80,000 से 90,000 रुपये हो गई, लेकिन दुर्भाग्य से 1977 में उनकी दुकान में चोरी हो गई।

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सारा बिजनेस हो गया चौपट

इसी साल चांद बिहारी की शादी हुई थी और खून-पसीने की कमाई से खड़ा किया हुआ पूरा बिजनेस धाराशाई हो गया। लगभग 4 लाख का नुकसान हुआ। उस जमाने में 4 लाख की रकम मायने रखती थी। इसके एक साल पहले ही रतन ने भी साड़ी का काम छोड़कर रत्न और आभूषण का काम शुरू कर दिया था। चांद बिहारी बताते हैं कि यह उनकी जिंदगी का सबसे बुरा दौर था। उस वक्त वे खुद को असहाय और कमजोर मान बैठे थे।

इसके बाद रतन ने चांद बिहारी को संभाला और उनसे ज्वैलरी में हाथ आजमाने को कहा। उन्हें इस बिजनेस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन रतन ने उन्हें सब समझाया। उन्होंने 5,000 रुपये से रत्न और आभूषण की दुकान शुरू की। उनकी किस्मत अच्छी निकली और उनका यह बिजनेस भी चल पड़ा। इसके बाद चांद बिहारी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

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