सालों से संग्रहालय की धूल फांक रहा था ‘सेंगोल’, जिसने बनाया था उसी ने किया ठीक

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सालों संग्रहालय के किसी कोने में पड़े सेंगोल को आखिर में अपनी सही जगह मिल गई। आज जब तमिलनाडु से आए अधीनम ने पीएम मोदी ने सेंगोल को सौंपी तो पीएम मोदी ने उसे नए संसद भवन में स्थापित कर दिया। इस तरह इतिहास के कई पन्नों को समेटो हुए सेंगोल  गुमनामी  के गलियारे से निकल कर अस्तित्व में आ गई। कई सालों से जिसका जिक्र तक नहीं हुआ, आज उस सेंगोल को हर कोई अपनी जुबान पर लाते नही थक रहा। यह वही सेंगोल है, जो हर सदी में सत्ता का प्रतीक और गौरव बना है। भारत में भी दशकों से सत्ता संभालने के लिए सेंगोल ने बड़ा महत्व निभाया है। सेंगोल की दास्तां इतिहास के हजारों अभिलेखों में दर्ज है। 1947 से खोये सेंगोल को जब नया जीवन मिला तो उसकी स्थित बहुत खराब थी।  मगर, आपको जानकर हैरानी होगी कि जिसने इसे सालों पहले बनाया था, वह ज्वेलर आज भी जीवित है। सेंगोल को बनाने वाले ने ही मरम्मत कर इसे फिर से नया रूप दिया है… आइए जानते हैं सेंगोल की इस अनूठी यात्रा के बारे में…

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज दिल्ली में नए संसद भवन का भव्य उद्घाटन किया। इसी के साथ आज पीएम मोदी ने तमिल संस्कृति के प्रतीक सेंगोल को भी नए संसद भवन में स्थापिक कर दिया है। पीएम मोदी ने संसद भवन में एतिहासिक सेंगोल को लोकसभा कक्ष में स्थापित किया है। तीन महीने पहले तक यह राजदंड (सेंगोल) प्रयागराज के संग्रहालय में रखा था। यहां से राजदंड को तमिलनाडू ले जाया गया और फिर से राजदंड का रख-रखाव किया गया। तमिलनाडु से आए अधीनम ने पीएम मोदी को सेंगल यानी राजदंड एक दिन पहले 27 मई को सौंपा था।

क्या है गोल्डन स्टिक सा दिखने वाला सेंगोल

‘सेंगोल’ राजदंड महत्वपूर्ण ऐतिहासिक महत्व रखता है। सेंगोल का सत्ता का प्रतीक माना जाता है। तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से व्युत्पन्न ‘सेंगोल’ शक्ति और अधिकार के अवतार का प्रतिनिधित्व करता है। यह सेंगोल राजा के सामने हमेशा न्यायशील बने रहने और प्रजा के लिए राज्य के प्रति समर्पित रहने के वचन का स्थिर प्रतीक भी रहा है। इतिहास में सेंगोल नए राजा को सत्ता संभालने के समय दिया जाता था। जिसके प्रमाण महाभारत में युधिष्ठिर के राज्यभिषेक के समय भी मिलते हैं। आजादी के बाद यह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दिया गया था, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से अधिकार सौंपने का प्रतिनिधित्व करता था।

सेंगोल शब्द का अर्थ

सेंगोल शब्द की उत्पत्ति तमिल तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से बताई गई है। इसे हिंदी भाषा में राजदंड कहते हैं। सेम्मई का अर्थ है ‘नीतिपरायणता’, यानि सेंगोल को धारण करने वाले पर यह विश्वास किया जाता है कि वह नीतियों का पालन करेगा। यही राजदंड कहलाता था, जो राजा को न्याय सम्मत दंड देने का अधिकारी बनाता था। ऐतिहासिक परंपरा के अनुसार, राज्याभिषेक के समय, राजा के गुरु के नए शासक को औपचारिक तोर पर राजदंड उन्हें सौंपा करते थे।

प्रयागराज के संग्राहालय में रखा था सेंगोल

तमिलनाडू की संस्कृति का प्रतीक सेंगोल (गोल्डन स्टिक) तीन महीने पहेल तक प्रयागराज के संग्रहालय में रखा था। खोजकर्ताओं को सेंगोल प्रयागराज म्यूजियम की पहली मंजिल पर बनी नेहरू गैलरी के एंट्रेंस गेट पर बने शोकेस में रखी मिली। इस गैलरी में पंडित नेहरू के बचपन की तस्वीरों से लेकर उनके घरों के मॉडल ऑटो बॉयोग्राफी और उपहार में मिली हुई तमाम वस्तुएं रखी गईं हैं। जानकारी के मुताबिक, केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के निर्देश पर यह सेंगोल तकरीबन 6 महीने पहले 4 नवंबर 2022 को प्रयागराज म्यूजियम से दिल्ली के नेशनल म्यूजियम भेज दी गई थी। जिसे तीन  महीने पहले ही प्रयागराज से तमिलनाडु भेजा गया था। जहां सेंगोल का रख-रखाव का कार्य हो रहा था।

पीएम मोदी को क्यों आई सेंगोल की याद

जब नया संसद भवन बनकर तैयार हो रहा था। तभी पीएम मोदी के सामने किसी अधिकारी द्वारा ‘सेंगोल’ का जिक्र किया गया। सेंगोल शब्द सुनते ही पीएम मोदी ने अधिकारियों को सेंगोल से जुड़ी जानकारियां इक्ट्ठा करने को कहा। तभी इस 5 हजार पुराने सेंगोल की तलाश शुरू हो गई। ये बात आज डेढ़ साल पुरानी है। सेंगोल की तलाश तीन महीने बाद उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में पूरी हुई। पुराने रजवाड़ों के तहखानों और संग्रहलयों की तलाशी के दौरान प्रयागराज संग्रहालय के एक कर्मचारी से सेंगोल की जानकारी मिली। कर्मचारी ने बताया था कि उसने दंड जैसी कोई वस्तु को संग्रहालय के एक कोने में देखी है। जिसके बाद खोजकर्ताओं ने संग्रहालय से सेंगोल को अपने कब्जे में ले लिया। अथक प्रयास के बाद मिले सेंगोल की स्थित काफी दयनीय थी। अधिकारियों ने संगोल मिलने की सूचना तुरंत पीएम मोदी को दी।

सेंगोल निर्माता से कराया गया पुन: रिपेयर

जब ‘सेंगोल’ मिलने की जानकारी पीएम मोदी को मिली तो उन्होंने इसकी पूरी तरह से जांच परख करवाई।  सेंगोल का इतिहास जानने के लिए अधिकारियों ने 1947 से 1960 तक के तमिल अखबारों को खंगाला। जिसमें एक आर्टिकल मिला, उसमें 1975 में शंकराचार्य ने अपनी जीवनी लिखवाई थी। इसी आर्टिकल में सेंगोल यानी राजदंड का जिक्र हुआ था। इसके बाद सेंगोल को फिर से नवीन रूप देने के लिए सेंगोल के निर्माता की खोज की गई। संयोग से सेंगोल को 1947 में चेन्नई के जिस ज्वेलर ने बनाया था वह आज भी जीवित हैं। उस ज्वेलर की उम्र 96 वर्ष है। जब उन्हें प्रयागराज के संग्रहालय से लाई गई ‘सेंगोल’ को दिखाया गया तो उन्होंने तुरंत पहचान लिया। जिसके बाद उसी ज्वेलर्स ने सेंगोल को फिर से ठीक किया।

क्या है सेंगोल की परंपरा

तमिल की संस्कृति से जुड़े सेंगोल यानी राजदंड को लेकर एक कहावत  प्रचलित है। ‘राजदंड राजा का धर्म है, दंड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है।’इतिहास के पन्ने खंगालें तो सेंगोल का महत्व देखने को मिलता है। सेंगोल के सूत्र चोल राज शासन से जुड़ते हैं। जहां सत्ता का उत्तराधिकार सौंपते हुए पूर्व राजा नए बने राजा को सेंगोल सोंपता था। यह सेंगोल राज्य का उत्तराधिकार सौंपे जाने का जीता-जागता प्रमाण होता था। जो  राजा को राज्य को न्यायोचित तरीके से चलाने का निर्देश देता था।

भारत में राजदंड का महत्व

यह तमिल ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत में ही राज्याभिषेक के समय एक पद्धति होती थी। राजा जब गद्दी पर बैठता है तो तीन बार ‘अदण्ड्यो: अस्मि’ कहता है, तब राजपुरोहित उसे पलाश दंड से मारता हुआ कहता है कि ‘धर्मदण्ड्यो: असि’। राजा के कहने का तात्पर्य होता है, उसे दंडित नहीं किया जा सकता है। ऐसा वह अपने हाथ में एक दंड लेकर कहता है। यानि यह दंड राजा को सजा देने का अधिकार देता है, लेकिन इसके ठीक बाद पुरोहित जब यह कहता है कि, धर्मदंडयो: असि, यानि राजा को भी धर्म दंडित कर सकता है। ऐसा कहते हुए वह राजा को लेकिन इसके ठीक बाद पुरोहित जब यह कहता है कि, धर्मदंडयो: असि, यानि राजा को भी धर्म दंडित कर सकता है। ऐसा कहते हुए वह राजा को राजदंड थमाता है। यानि कि राजदंड, राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाने का साधन भी रहा है। महाभारत में इसी आधार पर महामुनि व्यास, युधिष्ठिर को अग्रपूजा के जरिए अपने ऊपर एक राजा को चुनने के लिए कहते हैं।

सेंगोल की नक्काशी

अद्भुत है सेंगोल की नक्काशी

सेंगोल की बनावट व नक्काशी में प्राचीन चोल के इतिहास की झलक दिखाई पड़ती है। सेंगोल के ऊपर नंदी की प्रतिमा स्थापित है। इसमें नंदी का आकृति एक गोल मंच पर की गई है। यह गोल मंच संसार का प्रतीक है। इसका अर्थ ये लगाया जाता है कि इस संसार में स्थिर, शांतचित्त और कर्मशीलता ही सबसे ऊपर है। सेंगोल की लंबाई का भी खास महत्व है। यह पांच फीट की एक छड़ी नुमा संरचना है। इसे अगर हाथ में सीधा पकड़ कर खड़ा किया जाए तो यह मनुष्य की औसत ऊंचाई के बराबर है। सेंगोल की लंबाई सम्यक दृष्टि का प्रतीक है, जो दिखाता है कि सभी नागरिक एक समान हैं और इनमें जाति, वेश-भाषा, धर्म-पंथ के आधार पर कोई अंतर नहीं।

राजदंड में नंदी की आकृति 

राजदंड के ऊपर नंदी की आकृति बनी है। सेंगोल के सबसे ऊपर बैठे हुए नंदी की प्रतिमा स्थापित है। नंदी की प्रतिमा इसका शैव परंपरा से जुड़ाव दर्शाती है। इसके साथ ही नंदी के होने के कई अन्य मायने भी हैं। हिंदू व शैव परंपरा में नंदी समर्पण का प्रतीक है। यह समर्पण राजा और प्रजा दोनों के राज्य के प्रति समर्पित होने का वचन है। दूसरा, शिव मंदिरों में नंदी हमेशा शिव के सामने स्थिर मुद्रा में बैठे दिखते हैं। हिंदू मिथकों में ब्रह्मांड की परिकल्पना शिवलिंग से की जाती रही है। इस तरह नंदी की स्थिरता शासन के प्रति अडिग होने का प्रतीक है। जिसका न्याय अडिग है, उसी का शासन अडिग है। इसलिए नंदी को सबसे शीर्ष पर स्थान दिया गया है, जो कर्म को सर्वोपरि रखने की प्रेरणा देता है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी इसी आधार पर सेंगोल को निष्पक्ष, न्यायपूर्ण शासन का प्रतीक बताया है।

नेहरू के कक्ष से पहुंचा था संग्रहालय

सवाल उठता है कि इतने सालों तक ‘सेंगोल’ का क्या हुआ था? कहा रखा गया था? इतने सालों बाद ही सरकार को कैसे इसकी याद आई और इसे ही क्यों चुना गया? जवाब हैरान करने वाला तो है ही, परेशान करनेवाला भी है. जानकारी के अनुसार ‘सेंगोल’ आज़ादी के समय सत्ता हस्तांतरण का पवित्र प्रतीक के रूप में धारण किया गया था। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसे अपनाया था। हालांकि आजादी मिलने के बाद नेहरू शायद सत्ता और प्रशासन में मशगूल हो गए और ‘सेंगोल’ धूल फांकने लगा। यहां तक कि इसे दिल्ली में ठिकाना भी नहीं मिला।

सालों से संग्रहालय में धूल फांक रहा था सेंगोल

ये दिल्ली से इलाहाबाद पहुंच गया और वो भी नेहरू के पैतृक निवास यानी ‘आनंद भवन’ में रख दिया गया। यानी जो देश के गौरव का प्रतीक था, कहा जा सकता है कि वो तब नेहरू का निजी सामान बन गया. निजी जागीर आनंद भवन की शोभा बढ़ाने लगा। हालांकि जल्द ही इसे शोभा पात्र से भी हटा दिया गया। नेहरू के समय ही इसे 1960 में इलाहाबाद संग्रहालय में भेज दिया गया और इस तरह ‘सेंगोल’ भूले बिसरे गीत की तरह भुला दिया गया। ये संग्रहालय के किसी कोने में धूल फांकने लगा। न किसी को याद रहा और न किसी ने याद दिलाई इस पवित्र प्रतीक के बारे में। ये आज भी किसी के संज्ञान में नहीं आता अगर संसद का नया भवन नहीं बनता।

 

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