आज भी प्रासंगिक है डॉ लोहिया
जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं.’ गैर-कांग्रेसवाद के जनक और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का यह कथन आज की सरकारों के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1960 के दशक में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की सरकारों के लिए था.आज भी लोग समझते हैं कि सरकार संख्या बल के आधार पर मज़बूत होती है।
लोहिया युग पुरुष थे और ऐसे लोगों का चिंतन किसी एक काल और स्थान के लिए नहीं हर युग और पूरी मानवता के लिए प्रासंगिक होता है. उनकी व्याख्या भी शाब्दिक नहीं भावार्थ के साथ होनी चाहिए. इसलिए अगर उन्होंने उस समय की कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार समाप्त करने और उसके कारण समाज में फैल रही बुराइयों को खत्म करने के लिए गैर-कांग्रेसवाद का आह्वान किया था तो आज अगर वे होते तो निश्चित तौर पर गैर-भाजपावाद का आह्वान करते. दुर्भाग्य की बात यही है उनके तमाम शिष्य या अनुयायी उनके विचारों की ठस व्याख्या करते हैं या फिर उनकी राह पर चलने का साहस नहीं जुटा पाते.
भारत छोड़ो आंदोलन की पचहत्तरवीं सालगिरह और उनकी पचासवीं पुण्य तिथि पर उन्हें स्मरण करने का सबसे बड़ा प्रयोजन यही होना चाहिए कि उनके चिंतन, साहस, कल्पनाशीलता और रणकौशल को आज के संदर्भ में कैसे लागू किया जाए.
डॉ. राम मनोहर लोहिया के संपूर्ण राजनीतिक जीवन का संदेश यही है कि व्यक्ति और समाज की स्वतंत्रता और तरक्की के लिए विवेकपूर्ण संघर्ष और रचना. उन्होंने 1963 के उपचुनाव में लोकसभा पहुंच कर जब धूम मचा दी थी तो उनके साथ संख्या बल नहीं था. उनका साथ देने के लिए पार्टी के कुल जमा दो और सांसद थे. किशन पटनायक और मनीराम बागड़ी. लेकिन जिसके पास नैतिक बल होता है उसे संख्या बल की चिंता नहीं रहती.
लोहिया ने तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस के माध्यम से पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे शक्तिशाली और विद्वान प्रधानमंत्री को निरुत्तर कर दिया था और उनकी बात का जवाब देने के लिए योजना आयोग के उपाध्यक्ष महालनोबिस समेत कई अर्थशास्त्रियों को लगना पड़ा था.
डॉ. लोहिया अपने इस दावे को वापस लेने को तैयार नहीं थे कि किस तरह इस देश का आम आदमी आमदनी तीन आने रोज पर गुजर करता है. जबकि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर तीन आने रोज खर्च होता है और प्रधानमंत्री पर रोजाना पच्चीस हजार रुपए खर्च होता है.
सरकार दावा कर रही थी कि आम आदमी का खर्च तीन आने नहीं पंद्रह आने है. डॉ. लोहिया का कहना था कि अगर सरकार मेरे आंकड़ों को गलत साबित कर दे तो मैं सदन छोड़कर चला जाऊंगा. इस दौरान नेहरू जी से उनकी काफी नोंकझोंक हुई और पंडित नेहरू ने कहा कि डॉ. लोहिया का दिमाग सड़ गया है. इस पर उन्होंने उनसे माफी मांगने की अपील की.
यहां सवाल कांग्रेस या पंडित जवाहर लाल नेहरू को चुनौती देने का नहीं सवाल व्यवस्था को चुनौती देने का है और लोहिया में उसका अदम्य साहस था. ऐसा इसलिए भी था कि वे साधारण व्यक्ति की तरह रहते थे और उनकी कोई निजी संपत्ति थी ही नहीं.
एक बार जब डॉ. लोहिया से किसी ने यह सवाल किया कि उनके भीतर जवाहर लाल नेहरू के प्रति ऐसा रोष क्यों है तो उनका कहना था कि उनका उनसे निजी कोई राग द्वेष नहीं है. वे उनकी उतनी ही इज्जत अभी भी करते हैं जितनी पहले करते थे. उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि वे उनके शिष्य भी रहे हैं. लेकिन यह सारा विरोध वे सिद्धांत के लिए कर रहे हैं और देश में मरे हुए विपक्ष को खड़ा करने के लिए कर रहे हैं. वे जानते थे कि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस एक चट्टान की तरह से है इसीलिए उससे टकराना ही होगा तभी उसमें दरार पड़ेगी.
डॉ. लोहिया का यह साहस उनके पूरे जीवन मे दिखाई पड़ता है. चाहे जर्मनी में पढ़ाई के दौरान लीग आफ नेशन्स में भारत के प्रतिनिधि बनकर बीकानेर रियासत के राजा गंगा सिंह के भाषण के दौरान विरोध प्रदर्शन का मामला हो या भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिगत जीवन और लाहौर किले की जेल में कठिन यातना सहने का सवाल हो या गोवा मुक्ति के लिए वहां की जेल में कष्ट सहने का सवाल हो, लोहिया की निर्भीकता किसी भी निराश हताश कौम में बिजली की तरह हिम्मत पैदा करने की क्षमता रखती थी.
उन्होंने बयालीस के भारत छोड़ो आंदोलन में न सिर्फ नेपाल में जयप्रकाश नारायण के साथ सशस्त्र शिविरों का आयोजन किया बल्कि पकड़े जाने पर थाने से छूट कर भाग भी निकले. डॉ. लोहिया ने बंबई में भूमिगत रेडियो का संचालन किया और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सभी नेताओं की गिरफ्तारी हो जाने के बाद कांग्रेस की तरफ से वे जनता को निर्देश देते थे कि कैसे आंदोलन का संचालन किया जाए और क्या कार्यक्रम लिए जाएं.
गिरफ्तारी के बाद उन्हें लाहौर किले की जेल में उसी कोठरी में रखा गया जिसमें सरदार भगत सिंह को रखा गया था. उसी किले में बंद जयप्रकाश नारायण को भीषण यातना दी जा रही थी तो दूसरी तरफ लोहिया को. उन्हें बर्फ की सिल्लियों पर नंगा करके लिटाया जाता था और कई दिन रात जगाकर रखा जाता था. इससे उनकी आंखें खराब हो गईं और दांत वगैरह भी क्षतिग्रस्त हुए.
डॉ. लोहिया बताते हैं कि उन्होंने मृत्यु के समान इस यातना को योग और आत्मबल के सहारे सहा. यहां एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि डॉ. लोहिया गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के बावजूद भगत सिंह के प्रति असाधारण सम्मान रखते थे. संयोग से जिस 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी हुई उसी दिन डॉ. लोहिया का जन्मदिन पड़ता था. इसी कारण डॉ. लोहिया अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे.
लेकिन लाहौर जेल से छूटने के बाद वे खामोश नहीं बैठे. वे गोवा मुक्ति के संग्राम में लग गए और आश्चर्य की बात यह है कि गोवा मुक्ति के संग्राम में उनके साथ न तो नेहरू थे और न ही पटेल. सिर्फ गांधी जी उनके साथ थे. उन्होंने गोवा के पुर्तगाली शासन का अत्याचार उन्होंने झेला लेकिन जनता को मुक्ति आंदोलन के लिए खड़ा कर दिया.
समाज को बदलने और समता व समृद्धि पर आधारित समाज निर्मित करने के लिए लोहिया निरंतर संघर्षशील रहे और अगर गुलाम भारत में अंग्रेजों ने उन्हें एक दर्जन बार गिरफ्तार किया तो आजाद भारत की सरकार ने उन्हें उससे भी ज्यादा बार. अन्याय चाहे जर्मनी में हो, अमेरिका में हो या नेपाल में उनके रक्त में उसे सहने की फितरत नहीं थी.
वे पूरे साहस के साथ उसका प्रतिकार करते थे फिर कीमत चाहे जो चुकानी पड़े. वे कीमत की परवाह नहीं करते थे और अकेले ही बड़ी से बड़ी ताकतों से टकरा जाते थे. लेकिन उनका संघर्ष सिर्फ टकराने के लिए नहीं बल्कि नई रचना करने और उनका व्याख्यान नया विमर्श खड़ा करने के लिए होता था. इसीलिए उन्होंने अपने साथियों को राजनीति के लिए जेल, फावड़ा और वोट जैसे प्रतीक दिए थे. इसमें जेल संघर्ष का प्रतीक थी तो फावड़ा रचना और वोट लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन का.
डॉ. लोहिया किसानों और मजदूरों से तो प्रेम करते ही थे लेकिन युवाओं से उनको विशेष अनुराग था. उन्होंने 1960 के दशक के आरंभ (संभवतः 1964) में समाजवादी युवजन सभा के नेता ब्रजभूषण तिवारी को एक पत्र लिखा था जो देश के युवाओं के नाम संबोधित था. इस पत्र में उन्होंने ‘परमार्थिक अनुशासनहीनता’ शब्द का प्रयोग किया था और इस सिद्धांत के माध्यम से वे युवाओं का आह्वान करना चाहते थे कि जहां भी जरूरत पड़े वे सरकार के कानूनों को मानने से इनकार कर दें. अन्यायपूर्ण कानूनों और सरकारी आदेशों का यही प्रतिकार गांधी के चंपारण सत्याग्रह में दिखाई पड़ता है तो जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के आह्वान में.
आज लोहिया के तमाम शिष्यों के पतन और जातिवादी राजनीति की चर्चा करते हुए या तो लोहिया के सिद्धांत को खारिज किया जाता है या गैर-कांग्रेसवादी राजनीति के कारण उन्हें फासीवाद का समर्थक बता दिया जाता है. कुछ लोग तो डॉ. लोहिया के जर्मनी प्रवास के दौरान उन पर नाजियों के सम्मेलन में जाने का आरोप भी लगाते हैं. लेकिन ऐसा वे लोग करते हैं जो न तो लोहिया के विचारों से अच्छी तरह वाकिफ हैं और न ही उनकी राजनीतिक बेचैनी से.
लोहिया स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि वे न तो मार्क्सवादी हैं और न ही मार्क्सविरोधी. उन्हें मार्क्स से प्रेरणा पाने लायक बहुत सारी बातें लगती हैं और उनसे मतभेद भी हैं. इसी तरह वे गांधी के समर्थक होते हुए भी पूरी तरह से अपने को गांधीवादी नहीं कहते. वे गांधी के सत्याग्रह के सिद्धांत से तो सहमत हैं और अहिंसा के पक्ष में हैं. लेकिन वे अनशन करने के पक्षधर नहीं हैं. हालांकि महात्मा गांधी को वे समाजवादी नहीं मानते लेकिन उनके रास्ते को समाजवाद लाने के लिए अपनाने के हिमायती हैं.
महात्मा गांधी के बारे में डॉ. लोहिया का यह कथन बेहद प्रासंगिक है कि बीसवीं सदी की बड़ी खोजें हैं एक महात्मा गांधी और दूसरा एटम बम. सदी के आखिर में एक ही जीतेगा. वे राजनीति को हिंसा और अनैतिकता से मुक्त करने के पक्ष में है इसलिए धर्म के मूल्यों को राजनीति को संवारने के विरुद्ध नहीं हैं. ऐसा गांधी ने किया भी था. इस अंतर्संबंध की एक बेहद कल्पनाशील व्याख्या करते हुए डॉ. लोहिया कहते हैं-
‘धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है. धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म. धर्म श्रेयस की उपलब्धि का प्रयत्न करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है. हम आज दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में हैं जिसमें बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है वह निर्जीव हो गया है, जबकि राजनीति अत्यधिक कलही हो गई और बेकार हो गई है.’
ये लेखक के नि़जी विचार है. लेखक आनंद मोहन समाजवादी विचारधारा के हैं। काशी हिन्दू विश्विद्यालय की छात्र राजनीति से गहराई से जुड़े रहे हैं ।