वीरभद्र मिश्र की पुण्यतिथि : वह वीर थे और भद्र भी!

80 के दशक में दंगों के दौरान प्रो. मिश्र खुद मिश्रित आबादी वाले इलाकों में जाकर लोगों के बीच संदेश देते

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प्रो. वीरभद्र मिश्र की पुण्यतिथि (13 मार्च) पर श्रद्धांजलि

रजनीश त्रिपाठी

अपनी बातों को पूरी दृढ़ता लेकिन विनम्रता से रखना कोई उनसे सीखे। इसीलिए जब भी कोई बात उनकी जुबान से निकलती तो दूर तलक जाती। वह चाहे गंगा की बात हो अथवा सामाजिक सरोकारों की। सत्ता प्रतिष्ठान को हिला देनेवाले तर्कों-तथ्यों की हो, तो भी वह कहीं चूकते नहीं थे। इस विनम्र दृढ़ता पर होनेवाला पलटवार उन्हें कभी डिगा नहीं पाया। तभी तो गंगा निर्मलीकरण के मुद्दे पर एकतरफा कांव-कांव के बीच उनकी प्रतिरोधात्मक कोयल-सी आवाज भी सब पर भारी पड़ती। जिम्मेदार तिलमिला जाते। आरोपों की बौछार करने लगते। फिर भी सच बोलने से उन्हें आजीवन कोई रोक नहीं पाया।

कभी वाच डाग के रूप में तो कभी विशेषज्ञ के रूप में तो कभी एक्टीविस्ट के रूप में सरकारी मशीनरी के इर्द-गिर्द साहस के साथ डटे रहे। उनकी आजीवन कोशिशों को कोई भी गंगा प्रेमी नहीं भूल सकता। उनकी (प्रो. वीरभद्र मिश्रजी) पुण्यतिथि पर सहसा उनकी कई बातें जिनमें गंगा को लेकर उनका संघर्ष विशेषतौर से याद आ रहा है। उन्हें और उनके सद्प्रयासों को चंद शब्दों के जरिए नमन करना चाहता हूं-

[bs-quote quote=”वह काशी के दूसरे सबसे बड़े मंदिर संकटमोचन के महंत थे लेकिन पोंगा पंथ के प्रबल विरोधी। तभी तो गंगा की बात आई, उसके निर्मल जल पर संकट छाया तो वह उसे खुलकर कहने में जरा भी नहीं हिचके। तब के पोंगापंथियों ने यह कहते हुए उन्हें खारिज करने की कोशिश की कि गंगा का जल कभी गंदा नहीं हो सकता। वह तो अमृत है। प्रो. मिश्र ने तब अपने तर्कों-तथ्यों के जरिए साबित किया कि गंगा पर संकट आन पड़ा है। उन्होंने बकायदे तभी से मुहिम छेड़ दी।” style=”style-2″ align=”center”][/bs-quote]

प्रो. मिश्र ने सामाजिक सरोकारों से खुद को कभी अलग नहीं रखा। वाराणसी में जब भी सांप्रदायिक सौहार्द को संकट में देखा, खुद संकटमोचक की तरह सड़क पर आ गए। लोगों को इंसानियत की परिभाषा नए सिरे से समझाई और शहर को असामान्य होने से बचाया। 80 के दशक में दंगों के दौरान प्रो. मिश्र खुद मिश्रित आबादी वाले इलाकों में जाकर लोगों के बीच संदेश देते। इसके लिए कई बार अपने परिजनों की उलाहना भी सुननी पड़ी लेकिन नीयत और इरादे मजबूत हों तो हर किसी को पनाह माननी पड़ती है।

2006 में जब सीरियल बम ब्लास्ट हुआ और संकटमोचन मंदिर को भी निशाना बनाया गया, महंत प्रो. मिश्र मुफ्ती-ए-बनारस मौलाना अब्दुल बातिन नोमानी के साथ सौहार्द की मशाल लेकर निकल पड़े। दर्जनों सौहार्द सभाएं और बैठकें कीं। कुछ मनबढ़ मौके का लाभ उठाकर शहर के भाईचारे को खतरे में डालने की कोशिश करने रहे थे। ऐसे लोगों को हतोत्साहित करने के लिए उन्होंने खुद मोर्चा संभाला। यही वजह थी कि सीरियल ब्लास्ट में तमाम लोगों को खो देनेवाला बनारस चंद दिनों में ही अपनी पुरानी रौ में आ गया।

दोनों वक्त गंगा स्नान, संध्या वंदन:

आईआईटी बीएचयू में प्रोफेसर और विश्वस्तरीय पर्यावरणविद् होने के बावजूद परंपरा का निर्वाह करते हुए प्रो. मिश्र आजीवन दोनों वक्त गंगा स्नान और संध्या वंदन करते। प्रो. मिश्र पारंपरिक, धार्मिक परिवार से ताल्लुक रखने के साथ ही वैज्ञानिक भी थे, सो वह गंगा स्नान नियमित करते, जल को माथे से भी लगाते लेकिन आचमन से पहले रुक जाते। वह कहते कि गंगा भले पवित्र हैं लेकिन यह साफ नहीं हैं। समर्पण, भक्ति व विश्वास गंगा के लिए एक पक्ष है जबकि दूसरा पक्ष है साइंस टेक्नालाजी का। दोनों तटों की मजबूती से मां गंगा की रक्षा होगी।

अपने पूरे जीवनकाल में अमूमन धोती-कुरता पहननेवाले प्रो. मिश्र के मुंह से शुद्ध हिन्दी, संस्कृत और आवश्यकतानुसार फर्राटेदार अंग्रेजी सुनने को मिलती। संस्कृत श्लोकों का उद्धरण देते हुए बुलंद आवाज में वह आमजन की जिज्ञासाओंं को शांत करते नजर आते। सिर पर सफेद बाल, लंबा कद और चेहरे पर हर पल पसरी मुस्कान। यह मुस्कान तब सहसा क्षोभ का रूप ले लेती जब गंगा की चर्चा छिड़ती। वह पीड़ा से भर उठते।

सबसे पहले गंगा के दर्द को पहचाना:

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