राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को घेरने की तैयारी

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इधर बसपा(BSP) सुप्रीमो मायावती और उधर आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री व तेलुगु देशम् पार्टी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू भाजपा को ललकार रहे हैं। दोनों पार्टियां कभी भाजपा का सहयोगी रह चुकी हैं। टीडीपी का तो अभी दो सप्ताह पहले ही नाता टूटा है। कांग्रेस भी अपने स्तर से राष्ट्रीय स्तर पर पहल कर रही है तथा भाजपा को घेरने के लिए किसानों, छात्रों और युवकों के मुद्दे उठा रही है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने चंद्रबाबू नायडू को लिखी चिट्ठी में गठबंधन तोड़ने का उन पर आरोप लगाते हुए इसे “एकतरफा व राजनीति से प्रेरित” बताया है।

इस पर पलटवार करते हुए चंद्रबाबू नायडू ने अमित शाह की चिट्ठी को “झूठ का पुलिंदा” बताते हुए कहा कि राज्य के हित में लिया गया यह फैसला है। खत में इस्तेमाल की गई भाषा पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह “एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष जैसा नहीं है।” विसंगतियों व गलतियों से भरा है। इसमें कोई गरिमा नहीं है। यह भी पूछा है कि जब नरेन्द्र मोदी 10 -12 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे तो क्या केन्द्रीय योजनाओं के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व सोनिया गांधी की तस्वीरों का इस्तेमाल किया था ? एक भी ऐसी तस्वीर हो तो दिखाइए। आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने पर बहस कराने से आखिर भाजपा क्यों कतरा रही है।

और यूपी में पर्याप्त संख्या न होने के बावजूद राज्यसभा की नौवीं सीट भी जीतकर भाजपा जश्न मना रही है। इसे गोरखपुर और फूलपुर में हुए लोकसभा उपचुनाव में हुई हार का बदला बताया जा रहा है। भाजपा यह भी कह रही है कि भतीजे ने बुआ को रिटर्नगिफ्ट नहीं दिया। ऐसा कहकर भाजपा चाहती है कि सपा-बसपा गठबंधन बनने से पहले ही परस्पर अविश्वास के चलते बिखर जाए। लेकिन बसपा(BSP) सुप्रीमो मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस करके भाजपा की इस चाल की हवा निकाल दी। कहा कि सपा से गठबंधन अटूट है।

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भाजपा पर मायावती ने आरोप लगाया कि उसने राज्यसभा की नौवीं सीट जीतने के लिए धनबल और सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग कर क्रासवोटिंग कराई है। राज्यसभा की नौवीं सीट की जीत भाजपा के गले की फांस बन गई है। उल्लेखनीय है कि यूपी में सपा को 28 और बसपा(BSP) को 22 फीसदी वोट मिला था। यदि दोनों का गठबंधन हो गया तो यह 50 प्रतिशत हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसी भी राजनीतिक दल के लिए उन्हें हराना मुश्किल हो जाएगा। गोरखपुर और फूलपुर में हुए उपचुनाव में इसका परिणाम देखने को मिला। सपा और बसपा पर अब उसके कार्यकर्ताओं का नेताओं पर गठबंधन करने के लिए दबाव है। और भाजपा की चिंता का यही सबसे बड़ा कारण है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मायावती और चंद्रबाबू नायडू द्वारा भाजपा का मुखर विरोध करने की सराहना करते हुए उनका समर्थन की हैं। तेलंगाना में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और महाराष्ट्र में शिवसेना जो एनडीए की सहयोगी हैं भी आंखें दिखा रही है। यूपी में सरकार में शामिल सुहेलदेव समाज पार्टी के मंत्री ओमप्रकाश राजभर भाजपा की खुलेआम आलोचना कर रहे हैं।

और महाराष्ट्र के 50 हजार किसानों के 180 किमी तक सफल लांगमार्च से भी भाजपा घबराई है। यही कारण है कि चार साल बाद सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे दिल्ली के रामलीला मैदान में अपना तम्बू लगा दिए हैं। उनके धरना-प्रदर्शन पर प्रतिदिन रामलीला मैदान का किराया ही 50 हजार रुपये है। वहां आने वाले लोगों के खाने-पीने का खर्च अलग है। महाराष्ट्र से अन्ना चार्टरप्लेन से दिल्ली पहुंचे और धरने पर बैठ गए। महाराष्ट्र के किसानों की पदयात्रा पर खाने-पीने आदि के खर्च पर सवाल उठाने वाले टीवी चैनल व भाजपा के नेता अब नहीं पूछ रहे हैं कि अन्ना हजारे को आर्थिक मदद कहां से मिल रही है। रामलीला मैदान में तिरंगा फहराने के पीछे भी राजनीति है, जिसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है।

दिल्ली में जेएनयू के छात्रों-अध्यापकों के जुलूस पर हुए लाठीचार्ज पर अन्ना हजारे की चुप्पी कई सवाल खड़ा करती है। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक व छात्र भी शिक्षा के बाजारीकरण के विरोध में आन्दोलन कर रहे हैं। आखिर किसके इशारे पर अन्ना रामलीला मैदान में पहुंच गए ? यह सवाल तो पूछा ही जाएगा।

पूरे देश में किसान व छात्र-नौजवान आन्दोलन कर रहे हैं। लेकिन मीडिया उनके सवाल पर कोई बहस नहीं चला रही है। बल्कि उसकी उपेक्षा की जा रही है और नकली मुद्दों पर टीवी के प्राइमटाइम पर बहस चल रही है। संसद में भी किसानों और छात्रों का सवाल कोई उठा नहीं रहा है ? तो सड़क पर चर्चा और हंगामा तो होगा ही। भाजपा की आर्थिक नीतियों, नोटबंदी, जीएसटी, बैंक घोटाले आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जो बहस के केन्द्र में आ गए हैं। अब इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

(सुरेश प्रताप के फेसबुक वाल से)

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