बनारस: 96 हजार दुर्लभ पांडुलिपियों के संरक्षण हेतु कार्यशाला का उद्घाटन

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राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के द्वारा विश्वविद्यालय में संरक्षित दुर्लभ पांडुलिपियों के माध्यम से भारतीय ज्ञान परंपरा का संरक्षण एवं प्रसार लोगों के लिये उपयोगी बनेगा तभी दुर्लभ पांडुलिपियों में संरक्षित ज्ञान का महत्व होगा. ऋषि तुल्य आचार्यों के ज्ञान राशि के भंडार प्रयोग आमज़न को प्राप्त हो इसी प्रयास से सोमवार को राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन, नई दिल्ली के द्वारा इंदिरा गांधी कला केंद्र संस्थान के अंतर्गत राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन कार्यशाला का आयोजन सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रांगण में किया गया. निदेशक डॉ. अनिर्वाण दास के निर्देशन में बनायी गयी टीम के द्वारा 01 जनवरी 2024 से 15 जनवरी 2024 तक, 15 दिवसीय कार्यशाला के माध्यम से पांडुलिपियों का संरक्षण किया जायेगा. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बिहारी लाल शर्मा के द्वारा योगसाधना केंद्र में आयोजित कार्यशाला का उद्घाटन किया गया.

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राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के द्वारा होगा संपादित

कुलपति ने कहा कि सरस्वती भवन पुस्तकालय में संरक्षित दुर्लभ पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए देश के प्रधानमन्त्री, भारत सरकार की संस्कृति मंत्रालय, मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्र, अपर मुख्य सचिव डॉ सुधीर कुमार बोबड़े के अथक प्रयास से आज पूर्ण हुआ है. इंदिरा गांधी कला केंद्र के राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के द्वारा इसको संपादित किया जा रहा है.

संवर्धन निष्ठा और ईमानदारी से हो पांडुलिपि का अनुरक्षण

अनुरक्षण कार्य को प्रशिक्षित कर्मियों के द्वारा पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से साथ पूरा किया जाए क्योंकि पांडुलिपि विश्वविद्यालय की संपदा के साथ राष्ट्र की संपदा भी है.

सरस्वती भवन पुस्तकालय में संरक्षित है दुर्लभ पांडुलिपियाँ

कुलपति प्रो. शर्मा ने कहा कि तत्कालीन रेजिडेंट द्वारा 1791 ई. मे स्थापित संस्कृत पाठशाला के साथ ही विश्वविद्यालय की सरस्वती भवन पुस्तकालय की स्थापना हुई थी. जिसमें दुर्लभ पांडुलिपियाँ को संरक्षित किया गया है, जिसका उद्देश्य संस्कृत वांग्मय के अभ्युदय, संरक्षण तथा विकास का भाव निहित था.


कार्यशाला के माध्यम से 40 लोगों को प्रशिक्षण दिया जाएगा

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के निदेशक डॉ. अनिर्वाण दास ने कहा कि यहां संरक्षित दुर्लभ 96 हजार पांडुलिपियों का संरक्षण तीन चरणों में किया जाएगा. प्रथम सूचीकरण, द्वितीय चरण कंजर्वेशन तथा तृतीय चरण में डिजिटलाइजेशन कार्य को किया जाएगा. कार्यशाला में 40 लोगों को प्रशिक्षित करके उनसे इस पवित्र कार्य को कराया जाएगा. इसमें देश के उद्भट विद्वानों का भी सहयोग प्रशिक्षक के रूप में लिया जाएगा.
संस्कृति मंत्रालय के द्वारा 5 करोड़ रुपये की धनराशि प्रथम किश्त के रूप में जारी कर दिया गया है.

सरस्वती भवन पुस्तकालय का इतिहास

हस्तलिखित सरस्वती भवन पुस्तकालय का शिलान्यास 16 नवंबर, 1907 ई. को सरजान हिवेट द्वारा किया गया. लगातार सात वर्षों तक संस्कृति तथा संस्कृत के प्रेमी राजाओं, नागरिकों तथा कर्तव्यनिष्ठ राजकीय कर्मचारियों के द्वारा इस पुस्तकालय की देख-रेख की गयी. पुस्तकालय की वर्तमान भवन 1914 ई. में निर्मित किया गया था. संस्कृत महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डॉ. आर्थर वेनिस ने इसकी निर्माण की नींव रखी थी.

96 हजार दुर्लभ पांडुलिपियाँ संरक्षित-

सरस्वती भवन पुस्तकालय में 96 हजार दुर्लभ पांडुलिपियाँ संरक्षित की गई हैं. जिसमें मुख्यतः
1-श्रीमद्भागवतम् (पुराण) संवत-1181 देश की प्राचीनतम कागज़ आधारित पाण्डुलिपि है.
2- भगवद्गीता (पुराण) – स्वर्णाक्षरों में लिपि है.
3- दुर्गासप्तशती कपड़े के फीते पर दो इन्च चौड़ाई रील में अतिसूक्ष्म (संवत 1885 मैग्नीफाइड ग्लास से देखा जा सकता है.
4- रासपंचाध्यायी (सचित्र)-पुराणोतिहास विषय से युक्त देवनागरी लिपि (स्वर्णाक्षर युक्त) इसमें श्री कृष्ण जी के सूक्ष्म चित्रण निहित है.
5- कमवाचा (त्रिपिटक पर अंश), वर्मी लिपि- लाख पत्र पर स्वर्ण की पालिस.
6-ऋग्वेद संहिता भाष्यम,
इसके साथ ही यहां लाह, भोजपत्र, कपड़ा, काष्ठ, कागज आदि पर लिपिबद्ध पांडुलिपियाँ संरक्षित की गई हैं.

संस्कृत विश्वविद्यालय का परिचय-

यह विश्वविद्यालय मूलतः ‘शासकीय संस्कृत महाविद्यालय’ था जिसकी स्थापना सन् 1791 में की गई थी. विश्वविद्यालय की सरस्वती भवन ग्रंथालय में हजारों पाण्डुलिपियाँ संग्रहित हैं. 22 मार्च, 1958 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. सम्पूर्णानन्द के अथक प्रयास के कारण इसे विश्वविद्यालय का स्तर प्रदान किया गया. उस समय इसका नाम ‘वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय’ था. सन् 1974 में इसका नाम बदलकर ‘सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय’ रख दिया गया.

उपस्थित ज़न-

उक्त अवसर पर कुलसचिव राकेश कुमार, प्रो. रामपूजन पाण्डेय, रजनीश कुमार शुक्ल, प्रो. हरिप्रसाद अधिकारी, प्रो. जितेन्द्र कुमार, प्रो महेंद्र पाण्डेय, प्रो. अमित कुमार शुक्ल, प्रो. विजय कुमार पाण्डेय, प्रो. विधु द्विवेदी, डॉ. रविशंकर पाण्डेय आदि उपस्थित थे.

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