लॉकडाउन में फंसे बच्चे और उनके माता-पिता

दो दिन पहले स्विट्जरलैंड में रहने वाले एक परिजन से बात हो रही थी। उनका आठ साल का बच्चा कंप्यूटर के सामने था। उसकी ऑनलाइन पढ़ाई चल रही थी। बच्चा अपने माता-पिता की इकलौती संतान है। इन दिनों दोस्तों, स्कूल, सबसे दूर है। दिन काटना मुश्किल है। अमेरिका में रहने वाली एक लड़की ने फेसबुक पर जैसे ही लिखा कि महीनों तक स्कूल बंद करने की बात कही जा रही है, वैसे ही वहां रहने वाली बहुत सारी कामकाजी माताओं ने इस बात पर चिंता प्रकट की कि ऐसे में वे बच्चों को कैसे संभालेंगी?

ये बातें तो विदेश की हैं, जहां कामकाजी माता-पिता के लिए कई ऐसी सुविधाएं उपलब्ध हैं, जो हमारे यहां नहीं हैं। लेकिन कोरोना वायरस के कारण पैदा महामारी की विपदा सब जगह एक जैसी है, और सब एक ही तरह से अपने-अपने घर में रहने को मजबूर हैं। जिन देशों में अभी तक लॉकडाउन नहीं किया गया है, जैसे अमेरिका के कई प्रांत या ऑस्ट्रेलिया आदि, तो वहां माता-पिता अपने बच्चों और अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। आगे क्या होने वाला है, यह किसी को पता नहीं है। कब तक स्कूल बंद हैं, कब तक दफ्तर बंद हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता। मेरी हाउसिंग सोसाइटी में दो पार्क हैं। एक पार्क जो रसोई की खिड़की से दिखता है, वहां बच्चों के खेलने के लिए तरह-तरह के झूले लगे हैं। सर्दी में छुट्टी के दिन पूरे समय बच्चे इस पार्क में खेलते हैं। शाम के समय तो बच्चों के शोर-शराबे, चिड़ियों जैसी उनकी आवाज से यह पार्क गुलजार रहता है। लेकिन 22 मार्च के ‘जनता कफ्र्यू’ के बाद से ही यह पार्क सुनसान है। जिन झूलों पर चढ़ने के लिए बच्चे एक-दूसरे से होड़ करते थे, वहां खामोशी पसरी है। बैडमिंटन या फुटबॉल खेलने वाले बच्चों-किशोरों का भी कोई अता-पता नहीं है। इतनी शांति है कि धीमी आवाजें भी अब तेज मालूम पड़ रही हैं। लेकिन घरों में बच्चों के संग बंद माता-पिता की समझ में नहीं आ रहा कि उन्हें कैसे समझाएं कि पार्क में क्यों नहीं जा सकते?

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कुछ बडे़ बच्चे तो फिर भी समझ सकते हैं, मगर जो एक-दो साल के हैं, तीन से पांच साल के हैं, वे बच्चे बहुत परेशान हैं। फ्लैट छोटे हैं। वे दौड़ते-भागते किसी न किसी चीज से टकरा जाते हैं, या तो किसी को चोट लगती है या फिर वे डांट खा जाते हैं। आखिर वे कब तक इनडोर गेम्स खेलें? कब तक कंप्यूटर से चिपके रहें? दोस्तों से भी नहीं मिल सकते। इन छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल करने वाली आया भी छुट्टी पर हैं। इन दिनों जब बहुत से माता-पिता को ‘वर्क फ्रॉम होम’ करना पड़ रहा है, तो मुश्किल चौतरफा है। घर का काम करें, ऑफिस का काम करें, बच्चों को पढ़ाएं, न केवल उन्हें संभालें, बल्कि रोने, जिद करने जैसी बच्चों की तरह-तरह की परेशानियों से भी अपने दम पर निपटें?

जिन झूलों पर चढ़ने के लिए बच्चे एक-दूसरे से होड़ करते थे, वहां खामोशी बैठी है। इतनी शांति है कि धीमी आवाजें भी तेज लगती हैं।

हमारी सोसाइटी में रहने वाली दो महिलाओं और पुरुषों ने कहा कि दिन में तो किसी तरह के आराम का सवाल नहीं है, रात में भी नींद नहीं आती। ऐसा लगता है, जैसे कि अवसाद में हैं। ऊपर से बच्चों के तरह-तरह के सवाल। यही नहीं, खाने या न खाने की जिद और नई-नई चीजों की फरमाइश भी, जिनको पूरा करने के लिए अभी घर से बाहर भी नहीं जा सकते। कोई दुकानदार ऐसे सामान भेजने को तैयार भी हो जाए, तो अधिकांश सोसाइटी के गेट बाहर वालों के लिए बंद हैं। अगर सामान आ भी जाए, तो यह चिंता कि पता नहीं, किसके जरिए घर तक कोरोना वायरस आ धमके? अब चॉकलेट, बिस्कुट जैसी बच्चों के खाने की चीजों को भला कैसे सैनिटाइज करें? और करें भी, तो खाने के लिए कई घंटों का इंतजार करना पड़ता है। जबकि बच्चे इन चीजों को देखते ही मचलने लगते हैं। जो बच्चे कुछ ज्यादा बड़े हैं, उनके इम्तिहान आगे के लिए स्थगित कर दिए गए हैं, तो कई जगहों पर बिना इम्तिहान के ही बच्चों को अगली कक्षा में प्रमोट कर दिया गया है।

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[bs-quote quote=”(यह लेखिका के अपने विचार हैं, यह लेख हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित है।)” style=”style-13″ align=”left” author_name=”क्षमा शर्मा ” author_job=”वरिष्ठ पत्रकार” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/03/chhama-sharma.jpg”][/bs-quote]

साफ है, लॉकडाउन के इन दिनों में घर में रहते हुए भी घर का चक्र जैसे रुक-सा गया है। वैसे भी, माता-पिता के दौर की पीढ़ी ने इस तरह की चुनौती कभी देखी नहीं है। पिछली पीढ़ी के मुकाबले उसमें किसी समस्या से निजात पाने के लिए धैर्य भी कम है, जबकि बच्चों को समझाने, उन्हें मुश्किलों से निपटने के लिए तैयार करने के लिए धैर्य ही इस वक्त की सबसे बड़ी मांग है।

 

 

 

 

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