अंबेडकर को हथियाने की होड़!

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उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव को देखते हुए राजनीतिक दल करीब 22 फीसदी दलित मतदाताओं में पैठ बढ़ाने की कोशिशें तेज कर दिए हैं। कांग्रेस, सपा, बसपा और बीजेपी चारों ही दलें अंबेडकर के नाम पर सियासत तेज कर दिए है। कांग्रेस जहां डॉ. भीमराव अंबेडकर के नाम से भीम ज्योति यात्रा निकालकर दलितों के नजदीक पहुंचने की कोशिश कर रही, वहीं भाजपा डॉ. अंबेडकर की जयन्ती (14 अप्रैल) से जन स्वराज अभियान शुरू करने जा रही है।

सपा नेता अपने भाषणों में अंबेडकर गांव विकास योजना की शुरुआत मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्वकाल में शुरू होना बताना नहीं भूलते हैं। अन्य दलों के नेताओं के अंबेडकर के नाम लेने या दलितों को अपनी ओर आकर्षित करने के प्रयास मात्र से ही बसपा अध्यक्ष तिलमिला उठती हैं। वह अपने दलित वोट बैंक को हर हाल में बनाए रखना चाहती हैं।

अंबेडकरवाद की भावना से प्रेरित होकर भारतीय राजनीति में अवतरित होने वाले जितने भी नेता है वह शायद उनके कर्तव्यों की अपेक्षा अधिकारों को ज्यादा अहमियत देते हैं। यही कारण है कि अधिकारों की चकाचौंध ने उनकी वैचारिक क्षमता को पंगु बना दिया है और वह डॉ. अंबेडकर को हथियार बनाकर वोटों की फसल तो काटते रहते हैं, लेकिन समतामूलक समाज के निर्माण का चिरपोषित लक्ष्य अभी भी अधूरा है।

भेदभाव के खिलाफ लड़ते रहे अंबेडकर

संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के आदर्शों एवं सिद्धातों को अपने अंत:करण में संजोकर समतामूलक समाज की स्थापना का दावा करने वाले राजनेता आजादी प्राप्ति के 6 दशक बीतने के बाद भी यह समझ नहीं पाए हैं कि डॉ. अंबेडकर को राजनीतिक हथियार बनाकर वोटों की फसल अवश्य काटी जा सकती है, लेकिन डॉ. अंबेडकर का सामाजिक समानता पर आधारित व्यवस्था का सृजन करने के लिये कठिन तपस्या व बेमिसाल त्याग की जरूरत होती है।

डॉ. अंबेडकर ने मजलूमों अर्थात समाज के दबे, कुचले, शोषित, वंचित, पीड़ित तथा प्रताड़ित वर्गों के लोगों में न सिर्फ समता, समरसता व समानता के आधार पर अपना हक अर्जित करने की जिद, जज्बा व जुनून पैदा किया।

अंबेडकर का सफर

डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई मुरबादकर की 14वीं व अंतिम संतान थे। उनका परिवार मराठी था और वो अंबावडे नगर (जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है) से संबंधित था। अनेक समकालीन राजनीतिज्ञों को देखते हुए उनकी जीवन-अवधि कुछ कम थी। वे महार जाति के थे जो अछूत कहे जाते थे। किन्तु इस अवधी में भी उन्होंने अध्ययन, लेखन, भाषण और संगठन के बहुत से काम किए जिनका प्रभाव उस समय की और बाद की राजनीति पर है।

भीमराव अंबेडकर का जन्म निम्न वर्ण की महार जाति में हुआ था। उस समय अंग्रेज निम्न वर्ण की जातियों से नौजवानों को फौज में भर्ती कर रहे थे। अंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे। भीमराव के पिता रामजी अंबेडकर ब्रिटिश फौज में सूबेदार थे और कुछ समय तक एक फौजी स्कूल में अध्यापक भी रहे। उनके पिता ने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। वह शिक्षा का महत्त्व समझते थे और भीमराव की पढ़ाई लिखाई पर उन्होंने बहुत ध्यान दिया।

29 अगस्त 1947 को अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में अंबेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। अंबेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 1948 से अंबेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो नैदानिक अवसाद और कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। 6 दिसंबर 1956 को अंबेडकर जी की मृत्यु हो गई।

छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष

देश में दलितों को लेकर उन दिनों जो व्यवहार हो रहा था उस प्रथा के खिलाफ अंबेडकर ने आवाज उठाई और सभी को समान अधिकारों की बात इन्होनें समाज में रखी थी।

दलितों के नाम पर राजनीति

दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले पार्टियों के नेता जैसे लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान, बसपा प्रमुख मायावती, आरपीआई प्रमुख रामदास अठावले आदि की तो राजनीति ही दलित क्रांति और अंबेडकरवाद पर आधारित है, लेकिन उल्लेखित राजनेताओं के बारे में यह कहा जाता है कि सिर्फ सत्ता से दूर रहने पर ही इन्हें अंबेडकरवाद व दलित हितों की याद आती है, सत्ता प्राप्त करते ही या सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित होते ही यह राजनेता अपने मूल मुद्दों को भूल जाते हैं। यही कारण है कि इन राजनेताओं की विश्वसनीयता दिनों-दिन घटती गई है तथा विश्वास के संकट से उबरने के लिये मौजूदा राजनीतिक हालातों में इन्हें खासी जद्दोजहद करनी पड़ रही है।

अंबेडकर की ओर क्यों देख रही है भाजपा?

बसपा ने अपना जनाधार खो दिया है और बिहार और उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव दूर नहीं हैं। ऐसे में भाजपा को लग रहा है कि बाबा साहेब उसके लिए तुरूप का पत्ता साबित हो सकते हैं। भाजपा युवा किंतु परिपक्व राजनैतिक दल है। देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में उसने लगभग साढ़े तीन दशक पूरे कर लिए हैं। भाजपा की जड़ें उसके पितृसंगठन आरएसएस में हैं। आरएसएस और भाजपा, दोनों ही बाबासाहेब से अपनी नजदीकी साबित करने की कोशिश में जुटे हुए हैं।

संयुक्त राष्ट्र में पहली बार मनाई जाएगी अंबेडकर जयंती

संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार डॉक्टर भीम राव अंबेडकर की जंयती मनाने की घोषणा की है। जिसके अंतर्गत विकास पर और असमानताओं से लड़ने पर ध्यान दिया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र में भारत का स्थायी मिशन कल्पना सरोज फाउंडेशन और फाउंडेशन फॉर ह्यूमन होराइजन के सहयोग से अंबेडकर की जयंती से एक दिन पहले 13 अप्रैल को यहां संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में उनकी 125वीं जयंती मनाएगा।

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