हमारी चर्चा में बार-बार क्यों लौट आते हैं भगवान राम
घोर मुगल शासन काल में कबीर लिख रहे थे, हरि मोरा पिउ, मैं राम की बहुरिया। मेरी ही तरह कई लोग यह सोचते होंगे कि कबीर को आखिर भगवान राम का ही पतित्व या स्वामित्व क्यों चाहिए? भारत में एक बड़ा वर्ग है, जो अपने नाम में बडे़ गर्व से राम जोड़ता है। पिछले दशक तक भी गांव की कोई भोली-भाली स्त्री बहुत सहज ढंग से यह बताती थी कि हमारे भगवान राम परदेस गए हैं कमाए खातिर।
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मैं उन महिलाओं की बात नहीं कर रही, जिनके लिए पति राम नहीं, बल्कि ‘हसबैंड’ से भी आगे ‘पार्टनर’ हो गए हैं। मैं उन दुखियारी महिलाओं की भी बात नहीं करती, जिनके पति रावण से भी बदतर आचरण करने लगे हैं। लेकिन अधिकांश मध्य और निम्न मध्यवर्गीय भारतीय स्त्रियों के लिए उनके पति राम ही होते हैं। दूसरी ओर, शास्त्रों और मंत्रों से परे अपढ़ जन भी राम ही राम रटन करूं जिभिया रे गुनगुनाता है। स्वयं भरत के मुख से भी निकल जाता है, जननी मैं न जिऊं बिन राम। अंतिम यात्रा की गति भी बिना राम नाम के सत्य नहीं होती।
विचारणीय प्रश्न यह है कि यह राम आखिर हैं कौन, जो चिर नवीन स्मृति की तरह बार-बार कौंध उठते हैं? क्यों इनके बिना किसी भी काल या क्षण में जीवन संभव नहीं होता, मरण अनंत यात्रा का द्वार नहीं बन पाता? कोई राम को रोम-रोम से झटककर अलग करने पर तुला है, तो किसी की सांसें उसी के नाम पर चलती हैं। क्रौंच वध से उद्वेलित वाल्मीकि को देववाणी हुई कि रामकथा लिखो, तो दूसरी ओर, सनातन मान्यता के अनुसार, एक पूरा युग ही राम के नाम हो गया। आखिर कौन हैं राम? राम केवल राजा होते, न्यायी होते, सदाचारी होते, धर्म प्रवर्तक होते, तो शायद उनकी स्मृति भी आज क्षीण हो चुकी होती। वह भी मात्र इतिहास बनकर रह गए होते, लेकिन राम इतिहास नहीं हैं। वह हर पल वर्तमान हैं। धर्म का कोई अपना पंथ न चलाते हुए भी धर्म का आदि-अंत बने हुए हैं। स्थूल रूप में अपने युग में नर-लीला करते हुए भी अतीत नहीं हुए हैं, वर्तमान हैं। निर्गुनिया कबीर को भी पिय या स्वामी के रूप में राम ही भाए। राम की बहुरिया बन पूर्णता प्राप्त की उन्होंने। फूटा कुंभ, जल जलहि समाना द्वारा आत्मा-परमात्मा, जीव और ब्रह्म का अद्वैत स्थापित किया। ऐसे घट घट राम हैं दुनिया देखे नाहि कहकर हम सबको राम को देखने की एक दृष्टि प्रदान की।
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हिंदी साहित्य कोश में राम और राम-कथा साहित्य के विकास की एक विस्तृत व्याख्या मिलती है। उसके अनुसार, वैदिक काल के पश्चात लगभग ई.पू. छठी शताब्दी में राम-कथा विषयक गाथाओं की सृष्टि होने लगी थी। आगे चलकर रामकथा की लोकप्रियता को ध्यान में रखकर बौद्धों और जैनियों ने भी राम को अपने-अपने धर्म में महत्वपूर्ण स्थान दिया। बौद्ध धर्म में दशरथ जातक तथा दशरथ कथानकम् जैसे जातक साहित्य में राम को बोधिसत्व मानकर रामकथा को स्थापित किया गया है। जैन धर्म में बौद्ध धर्म की अपेक्षा अधिक समय तक रामकथा की लोकप्रियता दिखती है। भारत के लगभग सभी समाजों और सभी भाषाओं में रामकथा का समृद्ध साहित्य मौजूद है।
विदेश में रामकथा का प्रसार बौद्धों द्वारा भी हुआ। अनामकं जातकम् और दशरथ कथानकम् का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ। उसके बाद संभवत: आठवीं शताब्दी में तिब्बती रामायण की रचना हुई। खोतानी रामायण का काल लगभग नौवीं सदी का है और यह पूर्वी तुर्किस्तान से संबद्ध है। कंबोडिया में राम केति तथा ब्रह्मदेश में यों तो ने राम यागन की रचना की, जो उस देश का महत्वपूर्ण काव्यग्रंथ माना जाता है।
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[bs-quote quote=”(यह लेखिका के अपने विचार हैं, यह लेख हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित है)
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अयोध्या नगरी की महिमा का वर्णन करते हुए स्कंद पुराण में कहा गया है- अयोध्यायै नमस्तेऽस्तु राममूत्र्यै नमो नम:। अर्थात राम स्वरूप अयोध्या नगरी को बार-बार प्रणाम है। स्कंद पुराण में राम जन्मभूमि के माहात्म्य और उसकी चौहद्दी का भी वर्णन मिलता है। जिस प्रकार ईसा मसीह का जन्मस्थान स्वत:सिद्ध है, पैगंबर का जन्मस्थान नहीं बदला जा सकता, उसी तरह राम का जन्मस्थल स्वत:सिद्ध है और बदला नहीं जा सकता। इसी अयोध्या में राजा दशरथ के पुत्र के रूप में राम ने जन्म लिया। राम लगभग पूरे भारतीय साहित्य के केंद्र में हैं, वैश्विक क्षितिज पर विराज रहे हैं। हर पल, हर प्राणी के साथ हैं, प्राण हैं, इसलिए झुठलाए नहीं जा सकते।
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