क्या होगा भारत में एजुकेशन सिस्टम का “New Normal”
COVID-19 महामारी के प्रसार को रोकने के लिए लगाये गये लॉकडाउन के चलते विश्व स्तर पर स्कूली शिक्षा कई चुनौतियों का सामना कर रही है और भारत इससे कोई अलग नहीं है।
COVID-19 महामारी ने जहां एक ओर दुनिया को स्वास्थ्य संबंधी एक ऐसी परेशानी में डाल दिया है जिसका समाधान खोज पाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है। स्वास्थ्य के साथ तकरीबन हर क्षेत्र पर इस महामारी का असर दिखायी दे रहा है। एजुकेशन भी इस महामारी से अछूता नहीं रहा है।
महामारी के प्रसार को रोकने के लिए किये गये लॉकडाउन के चलते एक ओर जहां स्टूडेंट्स एकेडमिक ईयर ब्रेक का सामना कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर लंबे समय तक स्कूल में नहीं पढ़ने से “School-Learning” का कांसेप्ट पर अस्तित्व का संकट पैदा होने की आशंका है। इसके अलावा एक बड़ी परेशानी उन बच्चों पर भी पड़ रही है जो शहरों से गावों की ओर जा रहे हैं। इनके परिवार की आर्थिक तंगी इनके बच्चों की शिक्षा में बाधा के रूप में आती दिख रही है।
लॉकडाउन ने फेर दिया पानी-
स्कूलों, समुदाय और बच्चों पर लॉकडाउन के प्रभाव की मात्रा आनुपातिक रूप से बहुत अधिक है। 2016-2017 में भारत में स्कूली शिक्षा पर एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1.4 मिलियन स्कूल हैं, क्लास 1-8 से 2.01 मिलियन बच्चे सरकारी स्कूलों में रजिस्टर्ड हैं और क्लास 9-10 में अतिरिक्त 3.8 मिलियन बच्चे रजिस्टर्ड हैं। भारत की लगभग 29% जनसंख्या बच्चों की है, और 19.29% 6-14 वर्ष की आयु वर्ग में है।
यह समूह कानूनी रूप से शिक्षा के अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 के तहत शिक्षा का हकदार है। भारत के बहुस्तरीय समाज को हमेशा एक ऐसे एजुकेशन सिस्टम की ज़रूरत थी जो कि भेद-भाव से मुक्त हो, एक ऐसी शैक्षिक व्यवस्था जो कि हमे समग्र दृष्टि प्रदान करे। लेकिन हमारे निति-निर्माताओं ने इस पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना ज़रूरी था, और फिर इस महामारी ने सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।
नार्मल लर्निंग प्रॉसेस हुआ है प्रभावित-
अगर विश्व स्तरीय स्वास्थ आपदाओं के इतिहास को पढ़ा जाए तो आपको ये ज़रूर पता चलेगा कि इन आपदाओं से उन देशों की शिक्षा व्यवस्था परेशान है जिनके पहले से एकेडमिक रिजल्ट्स अच्छे नहीं थे। तमाम प्रयासों के बावजूद भारत में ड्राप-आउट रेट्स ज़्यादा है और अवेयरनेस प्रोग्राम के बाद भी हमारे देश को शिक्षा अभी तक नहीं सुधर पाई है।
NSSO और मिनिस्ट्री ऑफ़ ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट ने 2014 में एक जॉइंट रिपोर्ट निकली थी जिसमे उनका दावा था कि अभी तक करीब 60 लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पाते है।
समझने की बात ये है कि इन आपदाओं से स्कूलों पर दो तरह के प्रभाव पड़ते है। ये दोनों ही प्रकार के प्रभाव आमतौर पर स्कूली शिक्षा के लिए बाधा बन सकते है। डायरेक्ट इम्पैक्ट की बात करें तो इसमें आपदाओं की वजह से इंफ्रास्ट्रक्चर डैमेज हो जाता है जैसे कि स्कूलों की बिल्डिंग टूट जाए, या फिर आपदाओं की वजह से स्कूलों तक की कनेक्टिविटी टूट जाए जिसकी वजह से स्कूलों में बच्चों की अटेंडेंस कम हो जाए।
वही दूसरी ओर इनडायरेक्ट इम्पैक्ट की बात की जाए तो इसमें स्कूल और कॉलेज को रिहैबिलिटेशन सेंटर बना दिया जाए, या फिर टेम्पररी जेल। ऐसी स्थिति से भी बच्चों के इर्रेगुलर अटेंडेंस का ग्राफ बढ़ जाता है। जिसके कारण नार्मल लर्निंग प्रॉसेज बुरी तरह प्रभावित होता है।
डिजास्टर रिस्क रिडक्शन मैनेजमेंट है फेल-
ऐसी कई चीज़ें है जिसे इग्नोर नहीं किया जा सकता है, आपको मालूम होगा कि भारत में करीब 76 प्रतिशत ऐसी स्मार्ट सिटीज़ है जिन्हे डिजास्टर प्रोन सिटीज कहा जा सकता है। वही अगर हम बात करे डिजास्टर रिस्क रिडक्शन मैनेजमेंट की तो ये योजना काफी सालों से भारत में चली आ रही है। ये सुनने में आश्चर्यजनक है, कि सोसाइटी के अलग-अलग स्टेकहोल्डर्स के डायलाग के बाद भी हम डिजास्टर रिस्क रिडक्शन मैनेजमेंट के क्षेत्र में किसी भी तरह से सफल नहीं रहे है। हमें इस चीज़ को लेकर क्लियर होना चाहिए की DRR ऐसी आपदाओं से बचने के लिए बनाई गई है। लेकिन असलियत में इसकी तस्वीर कुछ और ही है।
कोविड-19 को लेकर इनकी कोई भी तैयारी नहीं थी। जब की भारत में कोरोनावायरस के केसेस आने के दो महीने पहले से ही हम चीन को इस महामारी से जूझते देख रहे थे। इसके बावजूद हमारी DRR टीम इस मामले को लेकर चुप्पी साधे रही।
देश में DRR के दृष्टिकोण की कमी के बहुत ही बुरे परिणाम हो सकते है, जिनमे से कई हमें देखने को मिल भी रहे है।
टीचर्स पर भी विपरीत असर-
ऐसा नहीं है कि सिर्फ स्टूडेंट्स पर ही कोरोना वायरस का प्रतिकूल असर पड़ा है। शिक्षक भी काफी बड़े स्तर पर इससे प्रभावित हुए हैं।
भारत की स्कूल शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक स्तर पर 10,93,166 संविदा शिक्षक शामिल हैं। अकेले दिल्ली में लगभग 29,000 संविदा शिक्षक हैं।
बिहार और दिल्ली जैसे कई राज्यों में इन शिक्षकों को महामारी शुरू होने से पहले भी कई महीनों तक वेतन नहीं मिला था। इस महामारी से इनकी स्थिति और बदतर हो गई है, दिल्ली सरकार ने इनके कॉन्ट्रैक्ट को अगले अवकाश तक बढ़ा दिया है लेकिन उसके बाद के समय में इनके लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। लेकिन इन सब के बाद भी देश के हर एक शिक्षक एक अहम् भूमिका निभा रहा है।
बच्चों को ऑनलाइन क्लास देना तो इनकी ड्यूटी है। इसके अलावा जिन-जिन स्कूलों को राहत वितरण केंद्र बनाया गया है, वहां पर भी शिक्षक सुबह से लकर रात तक अपनी सेवाएं दे रहे है। केवल दिल्ली में ही 250 स्कूलों को राहत वितरण केंद्र बनाया गया है।
एजुकेशन सिस्टम में आएगा बदलाव-
हर जगह “New Normal” की बात हो रही है। हमें ये समझने की ज़रूरत है की कोविड के बाद ज़िंदगी पुराने ढर्रे पर नहीं चल पाएंगी। कई चीज़ें बदलेंगी जिसे हमें एक्सेप्ट करके आगे बढ़ना है। लाज़मी है कि स्कूलों में बच्चों की वापसी एक नई स्थिति लाने वाली है। यह “New Normal” लोगों के व्यवहार में बदलाव लाएगा। सेंट्रल गाइडलाइन भी बदल सकती है। सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन करने के लिए शायद वर्चुअल एजुकेशन को बढ़ावा दिया जा सकता है। लेकिन इस वर्चुअल एजुकेशन में पढाई का वो स्तर शायद नहीं रह पायेगा।
इसके अलावा इस नई तकनीक की वजह से शायद एक बच्चों के मन में एक भेदभाव की भावना आ सकती है, शायद क्लास डिफ्रेंस भी आगे चलकर एक परेशानी बन जाए। और इस बीच एक सवाल ये उठता है कि आखिर बच्चों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आने वाले इन बदलावों की क्या प्रतिक्रिया होगी?
[bs-quote quote=”इस आर्टिकल के लेखक एक स्टूडेंट हैं। जो सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर लिखते रहते हैं।
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