पूरे ज्ञानवापी परिसर के ASI से सर्वे की मांग की याचिका मंजूर…जानिए क्या होती है कार्बन डेटिंग?

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वाराणसी: ज्ञानवापी परिसर में मिले शिवलिंग के विवादित स्थल ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण परिसर की सर्वे की याचिका को मंजूर कर लिया गया है. अब कोर्ट इस मामले पर 22 मई को सुनवाई करेगा. वहीं मुस्लिम पक्ष को भी अपनी आपत्ति याचिका को दाखिल करने को 19 मई तक का समय दिया गया है. इससे पहले इलहाबाद हाईकोर्ट ने भी ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में मिले शिवलिंग की कार्बन डेटिंग और साइंटिफिक सर्वेक्षण कराने की बात कही थी. इसका क्या है तरीका?

वकील विष्णु शंकर जैन ने याचिकाकर्ताओं की तरफ से गुहार लगते हुए सर्वे की मांग की. दरअसल हिंदू पक्ष ने पूरे ज्ञानवापी परिसर की आर्कियोलॉजिस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) से सर्वे और कार्बन डेटिंग कराने की मांग की थी. वकील ने यह भी कहा है कि अगर विवादित स्थल के नीचे कुछ मिलता है तो खुदाई की इजाजत देनी चाहिए.

क्या होती है कार्बन डेटिंग?

कार्बन डेटिंग के जरिए कार्बनिक पदार्थो का पता चलता है. यह एक तरह की वैज्ञानिक विधि है, जिसके जरिए आप भी पुरानी वस्तु की आयु निर्धारित की जाती है. इससे उन प्राचीन वस्तुओं का काल निर्धारण होता है जो कभी जीवित थी. मसलन बाल, कंकाल, चमड़ी व मिट्टी के बने वस्तु आदि. इसके सर्वे से पता चलता है कि ये कितने साल पहले जीवित थीं.

दरअसल किसी भी सजीव वस्तु पर कालांतर मेंं कार्बन जमा हो जाता है. वक्त बीतने के साथ ही साल दर साल उस वस्तु पर कार्बनिक अवशेष परत दर परत जमा होते जाते हैं.

जानकारी के मुताबिक कार्बन डेटिंग से करीब 50 हजार साल पुराने किसी अवशेष के बारे में पता लगाया जा सकता है. बाल, कंकाल, चमड़ी के अलावा ईंट और पत्थरों की भी कार्बन डेटिंग होती है. इस विधि से उनकी आयु का भी पता लगाया जा सकता है.

कार्बन डेटिंग हर परिस्थिति में असरदार नहीं…

वैज्ञानिक तौर पर कार्बन डेटिंग प्रमाणिक है लेकिन यह सभी परिस्थितियों में सटीक तौर पर लागू नहीं की जा सकती. मसलन इसका उपयोग बड़ी चट्टानों जैसी निर्जीव वस्तुओं पर प्रभावी नहीं होता. इस विधि से चट्टानों की आयु निर्धारित नहीं की जा सकती है.

इसकी खोज कब हुई थी…

हमारे वायुमंडल में तीन प्रकार के आइसोटोप होते हैं-कार्बन-12, कार्बन-13 और कार्बन-14. कार्बन डेटिंग के दौरान कार्बन 12 और कार्बन 14 का अनुपात निकाला जाता है. किसी वस्तु की मृत्यु के समय कार्बन 12 होता है और कालांतर में वह कार्बन 14 में परिणत हो जाता है. इस तरह किसी वस्तु की कार्बन 12 से कार्बन 14 तक आने की अवधि निकाली जाती है.

इस तकनीक को सन् 1940 के अंत में शिकागो विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान के प्रोफेसर विलार्ड लिब्बी ने विकसित किया था. जिन्हें बाद में इस काम के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था.

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