विद्याभास्करजी की जयंती पर विशेष: तेलगू भाषी होकर भी हिंदी पत्रकारिता की मिसाल बनकर उभरे

पारदर्शी और जवाबदेह पत्रकारिता की परम्परा की वह आखिरी कड़ी थे

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पत्रकारिता के क्षेत्र में रूचि रखनेवाले आपने विद्या भास्करजी के नाम से जरूर परिचित हैं. पारदर्शी और जवाबदेह पत्रकारिता की परम्परा की वह आखिरी कड़ी थे, जब संपादक सिर्फ अखबार के कर्ता- धर्ता नहीं, बल्कि सामाजिक सरकारों के चलते-फिरते प्रकाश पुंज हुआ करते थे. मूल रूप से तेलगू भाषी पारिवारिक पृष्टभूमि से होने के बावजूद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में अपनी धाक जमा ली. भारत माता की आजादी के जूनून ने अंग्रेजी हूकूमत के खिलाफ उन्हें आग उगलनेवाला शोला बना दिया और वह पत्रकारिता के मजबूत स्तम्भ बनकर उभरे.

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आज पूरा देश पत्रकारिता के इस शलाका पुरूष विद्या भास्करजी की जयंती मना रहा हैं. बता दें कि उनका हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में उल्लेखनीय नाम है. वह एक दक्षिण-भारतीय परिवार से संबंद्ध रखते थे जिसकी जड़ें आंध्र प्रदेश से जुडी थीं. इतना ही नहीं उन्होंने अपने जीवन के पांच दशक राष्ट्र की सेवा और पत्रकारिता के लिए समर्पित कर दिया.

बनारस में जन्में …

विद्या भास्कर का जन्म 28 जून 1913 को वाराणसी में हुआ था. कहा जाता हैं कि इनके पिता यहां व्यवसाय करने के लिए आए थे, लेकिन वह स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए. इस दौरान उनके पिता का जल्द ही निधान हो गया. गुलामी की जंजीरों में जकड़े देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष के इस दौर में पिता का साया उठ जाना उनके लिए बड़ा सदमा था. पिता का साथ क्या छूटा इस अंधेरेपन में उनका व्यवसाय और उनके दो भाइयों का जीवन भी डूब गया. इसके बाद इस परिवार ने वाराणसी प्रवास के दौरान सुब्रमण्यम भारती की सुरक्षा की और समर्थन दिया. .

18 साल की आयु में कुमार विद्यालय में हुए शामिल

विद्या भास्करजी ने अपने जीवन में जटिल से जटिल संघर्षों का सामना किया. पिता की मृत्यु के बाद उनको पैसों के अभाव का सामना करना पड़ा. इसके चलते वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सके और 1931 में 18 साल की उम्र में काशी विद्यापीठ द्वारा संचालित कुमार विद्यालय में शामिल हो गए. उस समय काशी विद्यापीठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का केंद्र हुआ करता था और अंग्रेजी हूकुमत ने 1932 में इसे बंद कर दिया. इससे विद्या भास्कर के शैक्षिक करियर पर एक बार फिर असर पड़ा और वह आगे की पढ़ाई नही कर सके. विद्या भास्कर को हिंदी के प्रति लगाव किशोरावस्था में ही हो गया था. हिंदी उन्हें विरासत के तौर पर उनके परिवार से ही मिली थी. इसके बाद वर्ष 1930 से लेकर 1933 तक उन्होंने कांग्रेस बुलेटिन के संपादन, संकलन, प्रकाशन और वितरण में स्वतंत्रता सेनानियों की भरपूर सहायता की. आजादी के आंदोलन में शामिल इस विभूति को 1931 में कांग्रेस के कलकत्ता सम्मेलन के दौरान पहली बार कारावास की सजा भुगतनी पड़ी और 12 साल बाद, औपनिवेशिक शासकों ने उन्हें भारत रक्षा अधिनियम के तहत फिर से गिरफ्तार कर लिया.

पत्रकारिता में बनाया कॅरियर

उथल-पुथल भरे जीवन के बावजूद विद्या भास्कर ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए कलम को हथियार बनाना मुनासिब समझा. इसके बाद एक पत्रकार के रूप में अपना कॅरियर शुरू किया. उन्हें एसोसिएटेड प्रेस के वाराणसी प्रतिनिधि उमाशंकर ने पत्रकारिता की बुनियादी बातों के लिए प्रशिक्षित किया था. इसके बाद उनकी कलम की धार तलवार से भी तेज होती गई और हिंदी पर मजबूत पकड़ के साथ उनके लेखन ने विद्वानों और पत्रकारों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया. इसी दौरान वाराणसी से प्रकाशित हिंदी दैनिक. अग्रगामी के संपादक शचीन्द्रनाथ सान्याल सेवानिवृत्त हो गए और विद्या भास्कर ने उनका स्थान ले लिया. उनके संपादकत्व में नियमित रूप से धार्मिक प्रचार-प्रसार में लगा रहनेवाला ‘अग्रगामी‘ और उदार हो गया. यहां से उन्होंने उत्कृष्ट पुस्तकें प्रकाशित करने में मदद की और अकादमी के लिए अपनी खुद की एक इमारत हासिल की जो आज भी साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यों के केंद्र के रूप में कार्य करती है.

1966 में बने ‘आज‘ के कार्यकारी संपादक

अंततः वह सितंबर 1966 में उस जमाने के प्रमुख समाचार पत्र ‘आज‘ के कार्यकारी संपादक बने और 1983 तक यह जिम्मेदारी उन्होंने बखूबी निभाई. इस दौरान उनके हस्ताक्षरित लेख व्यापक रूप से पढ़े गए. उनका कॉलम, ‘अपना भारत‘, प्रत्येक सोमवार को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों का उत्कृष्ट विश्लेषण प्रस्तुत करता था. जो उस दौर में विद्वानों और अखबार के पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय था. प्रत्येक दिन, वह अपने सहयोगियों के साथ बैठते थे और हर दिन के समाचार पत्र की समीक्षा करते थे. उन्होंने ‘आज‘ की गंभीरता और गरिमा के स्तर को बनाए रखने का पूरा प्रयास किया.

साक्षात्कार के प्रणेता रहे

विद्या भास्करजी कई पत्रकार संगठनों से भी जुड़े रहे. उन्हें हिंदी पत्रकारिता में साक्षात्कार को एक प्रभावी उपकरण के रूप में विकसित करने में अग्रणी माना जाता था. उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों का साक्षात्कार लिया. विद्या भास्कर ने इंदिरा गांधी का तीन बार साक्षात्कार लिया. उन्होंने पहला साक्षात्कार 1976 में आपातकाल के दौरान, दूसरा 1979 में और तीसरा 1981 में लिया जो चर्चा का विषय रहा.

एक पत्रकार के रूप में जवाबदेही सुनिश्चित करते थे 

विद्या भास्करजी एक संतुलित, ईमानदार, गंभीर और जागरूक पत्रकार व सम्पादक थे उन्होंने अपने जीवनकाल के अंत तक पत्रकारिता की गरिमा, विश्वसनीयता और ईमानदारी को डिगने नही दिया. वह संपादक के रूप में एक पाठक के पति अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करते थे. उनका पूरा प्रयास था कि उनके समाचार पत्र के पाठक को सटीक, सही जानकारी मिले. पत्रकारिता भी अपने पाठकों के प्रति जवाबदेह हो.

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