भगवामय होना नरेश अग्रवाल का : विपक्ष ऐसे ही होगा कमजोर

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सपा के मुखर वक्‍ता व राज्‍यसभा सदस्‍य नरेश अग्रवाल (Naresh agrawal) का अचानक भाजपाई हो जाना किसी आश्‍चर्य से कम नहीं है। यों भी वे अपने दल से नाराज चल रहे थे क्‍योंकि पार्टी ने उन्‍हें राज्‍यसभा का टिकट नहीं दिया था। इसके बदले जया बच्‍चन को राज्‍यसभा का टिकट दिया। माना जा रहा है कि 2019 लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा बाकी पार्टियों के लिए ऐसे झटके देना जारी रखेगी।

एक ही आदमी को राज्‍यसभा भेजने की स्थिति में थी पार्टी

उत्‍तर प्रदेश में सपा के 47 विधायक हैं। इस संख्‍या के दम पर पार्टी एक ही व्‍यक्ति को राज्‍यसभा भेजने की स्थिति में थी। माना जा रहा है कि सपा का टिकट कटने से नाराज नरेश अग्रवाल ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्‍व से संपर्क साधा और उन्‍हें भगवामय करने के लिए आलाकमान से हरी झंडी मिल गयी।

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पार्टियां बदलना नरेश अग्रवाल का नया खेल नहीं है। पहले वे कांग्रेसी हुआ करते थे। बाद में कई दलों से गुजरते हुए वे सपा में चले गये थे। कुछ दिनों पहले तक रम में राम को बसाने वाले नरेश अग्रवाल अब बीजेपी में जय श्री राम कहेंगे।

सत्‍तारूढ़ दल के साथ सभी जाना चाहते हैं

ऐसा माना जाता है कि जो दल सत्‍ता की सीढि़यां चढ़ता है उसकी ओर लोगों का झुकाव बढ़ जाता है। अब यही हो रहा है। यह भी साबित होता है कि भारतीय राजनीति में शुचिता और वैचारिक प्रतिबद्धता का लोप होता जा रहा है। लंबे समय से ही ऐसा चल रहा है।

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मजे की बात यह कि नरेश या नितिन अग्रवाल या किसी का भी किसी भी पार्टी में जाना अब चौंकाता नहीं है। किसी में हैरानी भी नहीं जगा करती जैसे पहले जगा करती थी। यह हमारे राजनीतिज्ञों के पतन को दर्शाता है। छोटे राज्‍यों में तो दलबदल लगातार होते आ रहे हैं और राजनीतिक अस्थिरता के वायस ऐसी स्थिति हमेशा से रही है। इसीलिए लोगों में राजनीतिज्ञों के प्रति विद्वेष और नाराजगी की भावना लगातार पैदा हो रही है।

लोकतंत्र मजबूत होता है

देखा जाये तो लोकतांत्रिक राजनीति में दलबदल अपने आप में बुराई नहीं है। हर खुले और लोकतांत्रिक समाज में सोच-विचार बदलने का अधिकार सभी के पास होता है। अगर ऐसा किया गया तो यह उसके अधिकारों का हनन माना जाता है।

नरेश अग्रवाल का भाजपा में जाना इसीलिए कोई अभिनव घटना नहीं मानी जा रही है। कारण कि अतीत में दलबदल की ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। कईयों का मानना है कि इससे हमारा लोकतंत्र मजबूत ही होता है।

दलबल का इतिहास

अतीत में देखा जाये तो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी यानी राजाजी और भारतीय जनसंघ के संस्‍थापक श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। बाद में दोनों ने ही पार्टियां बदलीं। राजाजी ने स्‍वतंत्र पार्टी बनाई और मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्‍थापना की, आरएसएस के सहयोग से। इस तरह स्‍वतंत्र भारत में पार्टियां बदलने की परिपार्टी लंबे समय से चली आ रही है।

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 नरेंद्र देव व जयप्रकाश नारायण ने भी कांग्रेस छोड़ी थी

इसके पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर रहे समाजवादी धड़े के आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया आदि नेताओं ने तो बड़ी संख्या में अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था। उसी दौर में महात्मा गांधी के अनन्यतम अनुयायी आचार्य जेबी कृपलानी ने भी कांग्रेस से नाता तोड़कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई थी।

यह नग्‍न अवसरवाद है

इस तरह देखा जाये तो अचानक दल बदलना नग्न अवसरवाद और मूल्यहीनता का खुला नमूना है। अभी जरूरत है दल-बदल विरोधी कानून को और मजबूत किया जाये और संसदीय प्रणाली में अनुशासन और सुशासन सुनिश्चित किया जाये। इसके लिए यह भी जरूरी है कि इस कानून को और परिष्कृत भी किया जाये। तभी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे बेहतर स्‍वरुप को परिभाषित कर सकेगा।

आशीष बागची की कलम से…

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