शक्ति की पूजा का महापर्व नवरात्र को लेकर 52 शक्तिपीठों में शुमार बिहार के इकलौते रामसर साइट और लाल कमल से भरे काबर झील के बीचों-बीच स्थित बेगूसराय के जयमंगला गढ़ में भी विशेष तैयारी की गई है। यहां माता के सिद्धिदात्री और मंगला स्वरूप का शारदीय नवरात्र में पूजा-दर्शन का विशेष महत्व है। यहां आने वाले हर श्रद्धालुओं की मानोकामनाएं पूर्ण होती हैं, जिसके कारण अन्य जिलों और राज्यों के श्रद्धालु भी मां के दर्शन पूजन के लिए आते हैं। पौराणिक कथाओं और मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव जब माता सती के शव को लेकर तांडव कर रहे थे तो सुदर्शन चक्र से कटकर सती का स्तन और स्कंध इसी स्थान पर गिरा था। जिसके कारण यहां शक्तिपीठ का निर्माण हुआ और पाल कालीन राजाओं ने झील के बीचो-बीच स्थित ऊंचे स्थान पर मंदिर का निर्माण कराया गया। मां भगवती के मंगलकारी रूप माता जयमंगला की पूजा आदिकाल से होती आ रही है।
भगवान भोले शंकर ने खुद की थी पूजा:
पुराणों के अनुसार भगवान भोले शंकर ने खुद यहां आकर माता की पूजा-अर्चना की थी। कहा जाता है कि विद्यापति के साथ उगना के रूप में रहने के दौरान भगवान भोले शंकर ने यहां आकर लाल कमल के फूल से माता जयमंगला की विशेष पूजा की थी । कहा जाता है कि मंगलारूपी माता जयमंगला स्थापित नहीं, बल्कि स्वतः प्रकट हुई है। देवी दानवों के निग्रह एवं भक्तजनों के कल्याण के लिए स्वत: निर्जन वन में प्रकट हुई थी। सिद्ध स्थल नवदुर्गा के नवम स्वरूप में विद्यमान हैं तथा सिद्धिकामियों को सिद्धि प्रदान करती है। सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां रक्तविहीन पूजा होती है, माता पुष्प, जल, अक्षत तथा दर्शन पूजन से ही प्रसन्न होती है। सालों भर मंगलवार तथा शनिवार को माता का पूजा होता है लेकिन शारदीय और वासंतिक नवरात्र में कलश स्थापना के बाद मंदिर परिसर में संकल्प के साथ प्रतिदिन पाठ और पूजन होता है। पंडितों के समूह संपुट शप्तशती पाठ किया जाता है, स्थानीय श्रद्धालु भी पाठ करते हैं।
मन्नतें मांगने वालों की पूरी होती हैं मुरादें:
माता के दरबार में नियमित आने वाले भक्तों का कहना है कि यहां आकर मन्नतें मांगने वालों की मुरादें अवश्य पूरी होती है। जयमंगला गढ़ की खुदाई के दौरान परिसर से मिले भग्नावशेषों और शिलालेखों से अनुमान लगाया जाता है कि मंदिर काफी पुराना है। जयमंगला गढ़ मंदिर के दक्षिणी ओर खुदाई करने पर कुछ ऐसे नवग्रह की मूर्तियां मिली, जिससे प्रमाण मिलता है कि मंदिर का निर्माण पाल वंश के राजाओं ने किया होगा। अवशेष में कुछ ऐसे भी मूर्तियां मिली, जिसमें बौद्ध कलाकृति के भी प्रमाण मिले हैं जो दर्शाता है इस क्षेत्र में भगवान बुद्ध की गतिविधि रही होगी। मंदिर के चारों ओर मीठे पानी का काबर झील शक्तिशाली राजा के सुरक्षित दुर्ग को प्रमाणित करता है।
रोचक है कहानी:
बता दें कि बेगूसराय जिला मुख्यालय से करीब 24 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में एशिया के सबसे बड़े मीठे पानी के काबर झील के मध्य में स्थित इस मंदिर से जुड़ी हुई कई मान्यता और किंवदंतियों प्रचलित है। कहा जाता है कि जब पृथ्वी पर त्रिपुरासुर राक्षस का आतंक और अत्याचार बहुत ही बढ़ गई थी, तब स्वयं महादेव ने इसी स्थान से देवी की आवाहन किया था। जिसके बाद माता प्रकट होकर त्रिपुरासुर का वध किया और पृथ्वी को त्रिपुरासुर के भय से मुक्त किया और तभी से यहां देवी की पूजा की जाती है। एक किवदंती है कि राजा जयमंगल सिंह की पुत्री जयमंगला पर आकर्षित होकर राक्षस राज उससे जबरदस्ती शादी करना चाहता था।
इसके लिए राक्षस जब बहुत परेशान करने लगा तो जयमंगला ने शर्त रखी कि रातों-रात चारों ओर के झील को मिट्टी से भर देने पर वह शादी कर लेगी। इसके बाद तमाम राक्षस झील को भरने में जुट गए, राक्षस जब सफलता की ओर बढ़ने लगे तो माया के बल पर सुबह हो गया और तमाम राक्षस भाग निकले। भागते हुए राक्षसों ने देवी का एक स्तन भी काट लिया और रास्ते में कई जगह टीला बना दिया, तभी से माता की मान्यता और बढ़ गई तथा एक स्थान लाल भगवती के प्रतिमा की पूजा-अर्चना होती है। हालांकि पुरातत्वविद उस टीले को बौद्ध स्तूप कहते हैं। फिलहाल मां दुर्गा की भक्ति कर शक्ति पाने के महाव्रत को लेकर जोरदार तैयारी की गई है।
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