भारतीय संस्कृति में समस्त देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना एवं व्रत की विशेष महिमा है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में पंचदेवों में प्रथम पूज्य देव भगवान श्रीगणेशजी को सर्वोपरि माना गया है। सुख-समृद्धि के लिए संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत रखने की धार्मिक परम्परा है।
प्रख्यात ज्योतिषविद् विमल जैन ने बताया कि धार्मिक मान्यता के अनुसार प्रथम पूज्यदेव श्रीगणेशजी का प्राकट्य महोत्सव माघ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन मनाने की धार्मिक व पौराणिक मान्यता है। माघ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को वक्रतुण्ड चौथ, माघी चौथ, संकष्टी तिल चतुर्थी, तिल चौथ, तिलकुटा चौथ एवं गौरी चतुर्थी के नाम से जाना जाता है।
इस बार यह पर्व रविवार, 31 जनवरी को विधि-विधानपूर्वक हर्ष, उमंग व उल्लास के साथ मनाया जाएगा। माघ कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि रविवार, 31 जनवरी को रात्रि 8 बजकर 25 मिनट पर लगेगी जो कि अगले दिन सोमवार, 1 फरवरी को सायं 6 बजकर 26 मिनट तक रहेगी। चन्द्रोदय रात्रि 8 बजकर 24 मिनट पर होगा। चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी तिथि के दिन यह व्रत रखने का विधान है।
कहीं-कहीं पंचांगों के भेद के अनुसार यह पर्व सोमवार, 1 फरवरी को बताया गया है, जबकि काशी के अधिकांश पंचांगों में रविवार, 31 जनवरी को ही श्रीगणेश जी का प्राकट्य महोत्सव मनाकर श्रीगणेश भक्तगण व्रत रखेंगे। रात्रि में चन्द्र उदय होने के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ्य देकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन श्रीगणेशजी की पूजा-अर्चना करके व्रत करना विशेष कल्याणकारी रहता है।
संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत आज से करें प्रारम्भ-
प्रख्यात ज्योतिषविद् विमल जैन ने बताया कि माघ मास के कष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि से संकष्ठी श्रीगणेश चतुर्थी के व्रत का प्रारम्भ किया जाता है। यह व्रत महिला, पुरुष अथवा विद्यार्थी दोनों के लिए समान रूप से फलदायी है। श्रीगणेशजी की विशेष कृपा प्राप्ति के लिए संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत नियमित रूप से चार वर्ष या चौदह वर्ष तक किया जाता है।
व्रत का विधान-
व्रत के दिन प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर समस्त दैनिक कृत्यों से निवृत्त होकर अपने आराध्य देवी-देवता की पूजा-अर्चना करने के पश्चात् श्रीगणेश चतुर्थी के व्रत का संकल्प लेना चाहिए। सम्पूर्ण दिन शुचिता के साथ निराहार व निराजल रहते हुए व्रत के दिन सायंकाल पुनः स्नान करके श्रीगणेश जी की पंचोपचार, दशोपचार या षोडशोपचार पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
श्रीगणेशजी को दर्वा एवं मोदक अति प्रिय है। अतएव दर्वा की माला. ऋतफल, मेवे एवं मोदक अवश्य अ व गड से बने मोदक अर्पित करने की विशेष मान्यता है। श्रीगणेश जी की महिमा में श्रीगणेश स्तति, संकटनाशन श्रीगणेश स्तोत्र, श्रीगणेश सहस्रनाम, श्रीगणेश अथर्वशीर्ष, श्रीगणेश चालीसा एवं श्रीगणेश जी से सम्बन्धित मंत्र-स्तोत्र आदि जो भी सम्भव हो अवश्य किया जाना चाहिए।
श्रीगणेश जी का प्राकट्य-
ब्रह्मपुराण के अनुसार माता पार्वती ने अपने देह के मैल से भगवान श्रीगणेशजी का सृजन कर उन्हें द्वार पर पहरा देने के लिए बिठाकर स्नान करने चली गईं थी। तभी वहाँ भगवान शिवजी आ गए। भगवान श्रीगणेशजी ने माता की आज्ञा पर शिवजी को अन्दर प्रवेश नहीं करने दिया। इस पर भगवान शिवजी ने क्रोधित होकर श्रीगणेशजी का सिर विच्छेद कर दिया। जो चन्द्रमण्डल पर जाकर टिक गया।
बाद में शिवजी को वास्तविकता मालूम होने पर श्रीगणेशजी को हाथी के नवजात शिशु का सिर लगा दिया। सिर विच्छेदन के पश्चात् श्रीगणेशजी का मुख चन्द्रमण्डल पर सुशोभित हो गया, फलस्वरूप चन्द्रमा को अर्घ्य देने की परम्परा प्रारम्भ हो गई। रात्रि में चन्द्र उदय होने के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है।
प्रख्यात ज्योतिषविद् विमल जैन के मुताबिक श्रीगणेशजी की अर्चना से सर्वसंकटों का निवारण तो होता ही है, साथ ही जीवन में सुख-समृद्धि व खुशहाली भी मिलती है। आज के दिन किए गए व्रत से अभीष्ट की प्राप्ति भी बतलाई गई है।
श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत विशेष लाभकारी होता है, जैसा कि नाम से स्पष्ट है-संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी। यह चतुर्थी श्रीगणेशजी को अति प्रिय है, इस दिन व्रत रखकर विधि-विधानपूर्वक पूजा-अर्चना करने से सुख-समृद्धि, खुशहाली मिलती है साथ ही सर्व संकटों का निवारण भी होता है।
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