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पुलवामा आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान को सेना, हथियार, कथित सर्जिकल स्ट्राइक आदि से हराने एवं उससे बदले लेने के आक्रोश के स्वर देश में सुनाई दे रहे हैं। सवाल यह है कि क्या नफरत का जबाव नफरत, क्या हिंसा का जबाव हिंसा, क्या युद्ध का जबाव युद्ध ही है? सवाल यह भी उठता है कि इस प्रकार के आतंकवाद से कैसे निपटा जाए। यह सवाल भारत को ही नहीं बल्कि समूची दुनिया के लिये चिन्तनीय बन गया है।
कारबम, ट्रकबम, मानवबम- ये ईजाद किसने किए? कौन मदद दे रहा है राष्ट्रों की सीमा पर आतंकवादियों को। किसका दिमाग है जिसने अपने हितों के लिए कुछ लोगों को गुमराह कर उनके हाथों में हथियार दे दिए और छापामारों ने उन राष्ट्रों की अनुशासित व राष्ट्रभक्त सेना को सकते में डाल दिया। देश में ही नहीं, बल्कि विश्व के करीब तीन दर्जन छोटे-बड़े देशों में, जो वर्षों से आतंकवाद से जूझ रहे हैं। जहां आतंकवाद प्रतिदिन सैकड़ों लोगों को लील रहा है।
हजारों असहाय हो रहे हैं, लम्बे समय से चला आ रहा आतंकवाद आखिर क्यों नहीं रूक रहा है? क्यों लगातार कश्मीर में आतंकी घटनाओं में सेना के जवानों के साथ-साथ आम आदमी हिंसा का शिकार हो रहा है? अनगिनत विश्वासघात, आक्रमण और विफलता झेलकर भी पुनः उसी लीक के सिवा हम कुछ नहीं सोच पाते, क्योंकि समस्या के मूल यानी जड़ों तक पहुंचने की बजाय पत्तों को सिंचने की ही कवायद होती रही है।
समस्या की पहचान, उन पर उचित विमर्श, फिर नीति तय करना न गांधीजी के समय था, न आज है। गांधीजी और कांग्रेस नेतृत्व इस समस्या पर सदैव तात्कालिकता से ग्रस्त रहे। एक ही समस्या बार-बार नए रूप में आती थी। फिर भी उसका आमूल अध्ययन नहीं किया गया। हमेशा किसी तरह तात्कालिक संकट से छुटकारा पाने तथा मूल समस्या से मुंह फेरने की प्रवृत्ति ही रही। लेकिन अब भी इस समस्या का समाधान नहीं हुआ तो बहुत देर हो जायेगी।
हमेशा पाकिस्तान की ऐसी ही दर्दनाक एवं अमानवीय आतंकी घटना के बाद कोई ‘वार्ता’ या किसी अन्य उपक्रम के माध्यम से अस्थाई शांति स्थापना का शॉर्टकट हमारी स्थाई कमजोरी रही। यह आसान उपाय की लालसा हमारी राजनीतिक कमजोरी थी। यह लड़ने से नहीं, सच्चाई से बचने की भीरुता थी जो आज भी यथावत है। हमें इस बात पर विचार करना होगा कि कैसे आतंकवाद से लड़ा जाये?
पाकिस्तान कोई सहज देश ही नहीं है एवं उसका आतंकवाद का सहारा लेना भी असहज ही है। वह इस्लामी कब्जे वाला भारत ही है। उसे पूरे भारत पर वही कब्जा चाहिए, इस कब्जे को पाने के लिये कश्मीर केवल दरवाजा भर है। उसकी इस चालाक सोच को हमने कोरे कश्मीर तक सीमित मानने की भूल की है। उसे भारत को तोड़ना है, वरना वह स्वयं टूटेगा। यही विडंबना भारत की भी है।
भारत ने पाकिस्तान को परास्त नहीं किया तो भारत सशक्त नहीं हो पायेगा। अब तक की पाकिस्तान ने अंतहीन मारकाट, तबाही और अशांति के सिवा कुछ नहीं दिया है। आज तक की असंख्य घटनाओं ने इसकी पुष्टि ही की है।
पुलवामा आतंकी हमले ने देश की जनता को गहरा आघात दिया है और उसकी प्रतिक्रिया में आक्रोश, विद्रोह एवं बदले की भावना सामने आ रही है, क्योंकि घटना ही इतनी दुखद, त्रासद एवं भयावह थी। उसके प्रति रोष उभरना स्वाभाविक है, लेकिन इन रोषभरी टिप्पणियों व प्रस्तावों से आतंकवाद से लड़ा नहीं जा सकता। आतंकवाद से लड़ना है तो दृढ़ इच्छा-शक्ति चाहिए। विश्व की आर्थिक और सैनिक रणनीति को संचालित करने वाले देश अगर ईमानदारी से ठान लें तो आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है।
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अब आतंकवाद धर्म, जाति और राष्ट्रों के बीच नीतिगत फर्क से भी ज्यादा व्यापक बिन्दुओं पर आधारित हो चुका है और शीतयुद्ध को नया मुखौटा पहनाकर विश्वभर में बारूदी सुरंगें बिछा चुका है। शायद इस प्रश्न पर गंभीरता से चिंतन नहीं किया गया, इसका समाधान गंभीरता से नहीं खोजा गया कि अपराध क्यों बढ़ रहे हैं? हिंसा क्यों बढ़ रही है? आतंक क्यों बढ़ रहा है? अगर कारण खोजा जाए तो बहुत साफ है कि मनुष्य को जितनी हिंसा की घटनाएँ, चर्चाएँ और वार्ताएँ सुनने को मिलती हैं उसकी तुलना में अहिंसा का एक अंश भी देखने-सुनने को नहीं मिलता। हमने अहिंसा को कोरा नारा बना दिया है, जबकि इसे कारगर उपाय बनाया जाना चाहिए।
बार-बार हिंसक वार को झेलना भी अहिंसा नहीं है। कभी-कभी हिंसा का जबाव हिंसा से ही दिया जाना जरूरी हो जाता है। पाकिस्तान से पोषित एवं पल्लवित आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिये भी ऐसी ही तैयारी करनी होगी। इसके समाधान भी उतने ही सख्त एवं तीखें करने होंगे। जैसे शांति, प्रेम खुद नहीं चलते, चलाना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार आतंकवाद भी दूसरों के पैरों से चलता है। जिस दिन उससे पैर ले लिए जाएँगे, वह पंगु हो पाएगा। अगर शक्ति सम्पन्न लोग सक्रिय नहीं होते तो छोटे-छोटे लोगों द्वारा कभी-कभी छोटे-छोटे काम भी दुनिया की तस्वीर बदल देते हैं।
भारत सरकार की सक्रियता एवं पाकिस्तान के खिलाफ उठाये गये कठोर कदम ऐसी ही कार्रवाईयां हैं। आतंकवाद को पोषित करने वाले उससे सहम गये हैं और उनका सहम जाना आतंकवाद को अवरुद्ध करने की दिशा में एक सफलता है। अक्सर हम सभी समस्याओं के समाधान के लिए ‘अहिंसा’ से लेकर ‘विकास’ की दलीलें देते रहे हैं। जो कई दृष्टिकोणों से हमारी कमजोरी बन गया है। पहले हम सच का सामना करना सीखें। अन्यथा परमाणु शक्ति संपन्न होने के बावजूद हम सोवियत संघ की तरह धराशायी हो सकते हैं। हम दुनिया की बड़ी ताकत बनने का सपना देख रहे हैं, हम अहिंसक होने का दम भी भरते हैं, लेकिन हमारी सोच एवं हमारे कृत्य हमें कमजोर बना रहे हैं।
इसलिये अहिंसा को हमें व्यापक बनाना होगा, ताकत बनाना होगा, कमजोरी नहीं। अन्यथा पाकिस्तान तो चाहता ही है कि यह सैन्य लड़ाई चलती रहे, आतंकवाद दिन दुना रात चैगुना बढ़े। यही उसके लिए अच्छा है, क्योंकि वह इसके सिवा कुछ नहीं जानता। उसे हिंसा की भाषा एवं आतंकवाद ही आसान तरीका प्रतीत होता है, क्योंकि अन्य पैमानों पर वह एकदम खोखला है।
पाकिस्तान के साथ हमारा संघर्ष मूलतः वैचारिक, असैनिक, नितांत अहिंसक युद्ध है। यह जितना पाकिस्तान से लड़ना है, उतना ही देश के अंदर भी इसे लड़ना होगा। अपने ही लोगों से लड़ना होगा। रक्षात्मक नहीं, आक्रामक रूप से लड़ना होगा। यह शत्रु के पैरों तले जमीन खिसकाने की लड़ाई है। इसमें उसकी हार अवश्यंभावी है। केवल इसे शुरू करने में हमें अपनी हिचक दूर करनी होगी, हमें साहस का परिचय देना होगा। इससे कतराना न धर्म है, न अहिंसा है, न लाभकारी।
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यह सत्यनिष्ठा, स्वाभिमान, मनोबल और चरित्र का युद्ध है। अस्त्र-शस्त्र या कूटनीति उसके बाद आते हैं। यह समझकर इस युद्ध को सरलता से जीत सकते हैं। इसमें कूटनीति उपेक्षित है, हथियारबंद सैनिकों की जरूरत नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री रहते हुए पाकिस्तान को इसी तरह परास्त किया है, यह पुलवामा की आतंकी घटना पाकिस्तान की टूटती सांसों की ही निष्पत्ति है, परिचायक है। कुछ और समय तक यदि पाकिस्तान को इसी तरह कमजोर किया जाता रहा, उस पर अहिंसक वार होते रहे तो उसे अपनी आतंकवादी सोच को विराम देना ही होगा।
ललित गर्ग