इमरजेंसी के किस्से : …जब बनारस की आवाज बनकर उभरी थी रणभेरी
वाराणसी। 25 जून साल 1975। 45 साल पहले भारतीय इतिहास में ये तारीख काले अध्याय के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गई। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करने वाले हिंदुस्तान को तानाशाही की बेड़ियों में जकड़ दिया गया। पूरे देश इमरजेंसी लगा दी गई। हर उठती आवाज को दबा दिया गया। लोकतंत्र की हत्या के कई गवाह आज भी जिंदा हैं। इन्हीं में से एक हैं वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार और समाजवादी चिंतक योगेंद्र नारायण।
तानाशाही के खिलाफ गूंज उठी थी रणभेरी
तानाशाही के उस दौर के बहुत से किस्से हैं। जर्नलिस्ट कैफे से बात करते हुए योगेंद्र नारायण ने ‘रणभेरी’ अखबार का जिक्र किया। उन्होंने बताया की इमरजेंसी के दौरान बीएचयू समाजवादी विचारधारा से जुड़े छात्रों का बड़ा केंद्र था। इमरजेंसी लागू होते ही छात्रों की गिरफ्तारी शुरु हो गई। उनके कई साथी गिरफ्तार कर लिए गए थे। उन लोगों के सामने भी विकल्प था। या तो गिरफ्तारी दें या बाहर रहकर संघर्ष करें। योगेंद्र जी बताते हैं कि उस दौर में सरकार के खिलाफ तानाशाही के खिलाफ लोगों की आवाज बनी थी रणभेरी। रणभेरी अखबार का छोटा रूप था।
इसमें इमरजेंसी से जुड़ी प्रमुख खबरें प्रकाशित होती थी। कुछ दिनों में ही रणभेरी ने सरकार के नाक में दम कर दिया। पुलिस प्रशासन इस बात की तस्दीक करने में जुटा था कि अखबार कहां से निकलता है ? संपादक कौन है ? अख़बार को रोकने के लिए पुलिस ने काफी मशक्कत की लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई। पुलिस अखबार के प्रकाशन और उसके वितरण को रोकने के लिए बनारस की गलियों की खाक छानती रही।
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