विभिन्नताओं के रंगों से रंगीन है अवध की Holi….
Holi: भारत को विभिन्नताओं का देश कहा गया है. यहां पर पग-पग पर संस्कृति और परंपराएं बदल जाती है. और अगर बात हो अगर उत्तर प्रदेश की तो, इसे परंपराओं और संस्कृति का गढ़ ही माना जाता है. ऐसे में जब मौसम रंगों के त्यौहार होली का हो तो उत्तर प्रदेश परंपराओं के रंग में चारों तरफ रंगीन नजर आता है. बता दें कि प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में अलग – अलग प्रकार से होली खेले जाने की परंपरा है, फिर वो पूर्वी उत्तर प्रदेश हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश. बुंदेलखंड हो या अवध या फिर बृज मंडल हर जगह अलग प्रकार से होली खेली जाती है. सभी प्रकार की होली का अपना अलग ही महत्व माना गया है.
प्रदेश में पुरानी परंपराएं आज भी होली पर्व की तरह जीवित हैं, जैसे एक धागे में अलग-अलग मोतियों को पिरोया जाता है. जब इन मोतियों की माला बनाई जाती है, तो वह किसी व्यक्ति को अधिक सुंदर बना देती है. वैसे ही हर साल होली पर अलग-अलग स्थानों पर मनाई जाने वाली होली, पूर्वी उत्तर प्रदेश को एक सूत्र में पिरोकर रखती है.लोकगीत के बिना होली पूरी नहीं होती है, ऐसे में होली को पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोकगीत की परंपरा और भी खास बनाती है.ऐसे में आइए जानते हैं कि, प्रदेश किस हिस्से में किस प्रकार की होली खेली जाती है….
मसाने की होली
आज भी काशी की होली को परंपराओं के रंग में रंगी हुई नजर आती है. होली के पहले रंगभरी एकादशी पर माता पार्वती के गवने की परंपरा निभायी जाती है. माता को विदा करने पहुंचे भोलेनाथ अपने भक्तों के कंधे पर सवार होकर निकलते हैं. रजत पालकी में बैठे भोलेनाथ और उनके परिवार पर गुलाल फेंककर होली शुरू होती है.
वहीं अगले दिन महाश्मशान मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर जलती चिताओं के बीच मसान की होली खेली जाती है. इस होली में नागा साधु चिंताओं की राख से होली खेलते है.आज भी काशी की होली उसी पुरानी तरह दिखाई देती है. गुलाब बाड़ी की होली सिर्फ काशी में विख्यात है, जहां छोटी-छोटी चौकियां लगाकर गीत-संगीत की महफिल चलती है.
कृष्णनगरी की होली
बृज की होली न सिर्फ देश बल्कि विश्वविख्यात है. यहां पर होली का पर्व का उत्सव दस दिन पहले से ही शुरू हो जाती है. इन दस दिनों में दस प्रकार से होली खेली जाती है. साथ ही, देश भर में कुछ स्थानों पर होली मनाने की परंपरा लोगों को आकर्षित करती है. 16 दिनों तक चलने वाली होली कृष्ण और राधा के प्रेम का प्रतीक मानी जाती है, मथुरा-वृंदावन में छाई रहती है. इसमें उनके दैवीय प्रेम का स्मरण करते है.
मान्यता है कि, कृष्ण बचपन में माता यशोदा से अपने कृष्ण रंग और राधा के गोरे रंग का सवाल पूछा करते थे. ऐसे में उन्हें बहलाने के लिए माता यशोदा ने राधा के गालों पर रंग लगा दिया था. तब से इस क्षेत्र में लोग एक-दूसरे को प्यार देते हुए रंग और गुलाल लगाते हैं. मथुरा-वृंदावन और राधा मैया की छटा बरसाने और नंदगांव में भी दिखाई देती है. वहीं बरसाने की लट्ठमार होली तो विश्व- प्रसिद्ध है, इसमें महिलाएं पुरूषों को लट्ठ से मारती है और पुरूष उनसे बचते हुए उन पर रंग डालते हैं.
लखनऊ की सवारी वाली होली
लखनऊ में भी विशेष तौर पर होली का पर्व मनाया जाता है. होली के अवसर पर चौक में होली की सवारी निकाली जाती है. ऐसे में पुराने लखनऊ के चौक इलाके में करीब दो किलोमीटर तक हाथी, घोड़ा, ऊंट आदि की सवारी निकाली जाती है. बताते हैं कि, यह परम्परा उस समय की है जब लखनऊ में मुगल शासकों का राज हुआ करता था. उस समय नवाब जनता के साथ होली खेलने के लिए हाथी पर बैठकर निकलते थे. इसी परंपरा को निभाते हुए होली के मौके पर टोली की शान होती है और साथ में इस टोली में मौजूद ढोल, नगाड़े पूरे इलाके मस्ती के रस में डूब जाते हैं.होली के दिन सुबह चौपटियां से मस्तानों की यह टोली चौक चौराहे पर पार्क तक जाती है.
प्रयागराज में तीन दिन की होली
प्रयागराज में होली तीन दिन तक मनाई जाती है. पहले दिन होली को रंग-गुलाल उड़ाकर दूसरे दिन कपड़े फाड़ कर मनाने की परंपरा है. इसमें होलियारों की भीड़ सड़क पर निकलती है और किसी का कपड़ा फाड़ देती है. इस होली की खूबसूरती यह है कि कपड़े फाड़ने पर कोई परेशान नहीं होता है.
प्रयागराज की होली विशिष्ट है क्योंकि यहां बारात निकाली जाती है और सड़कों पर सामूहिक रूप से ठंडई पीने की परंपरा है. पहले दिन वाली मस्ती ही दूसरे दिन भी जारी रहती है. वहीं युवाओ की टोली यह हर मोहल्ले के चौराहे पर मिलती है, जैसे लोकनाथ चौराहा, जानसेनगंज, कटरा, दारागंज, अलोपीबाग, झूंसी, नैनी, फाफामऊ, राजरूपपुर आदि. परंपरा में एक-दूसरे का कपड़ा फाड़कर हवा में लहराते हैं.
श्रावस्ती की लेप वाली होली
भारत-नेपाल सीमा से सटे श्रावस्ती के 12 से अधिक गांवों में थारू जनजाति निवास करती है. यहां लगभग 2000 से ज्यादा लोग रहते हैं. थारू लोगों की वेशभूषा और जीवनशैली दोनों ही अलग होता है. ये वनों के झुरमुटों में और नेपाल की पहाड़ी वादियों में रहते हैं. थारू लोग वसंत पंचमी से होली की शुरूआत मानते हैं.
होलिका दहन की पूर्व संध्या पर गाते-बजाते थारू युवा गांव के तीन चक्कर लगाकर मुखिया के दरवाजे पर पहुंचते हैं. यहां पहले सरसों को भूनकर बनाया गया विशेष लेप, या बुकवा, मुखिया को लगाया जाता है. खाने-पीने के सामान के साथ-साथ मुखिया उन्हें पैसे भी देते हैं. इसके बाद फाग का राग और रंग खेलने की शुरूआत होती है.
गोरखपुर में होली पर नरसिंह शोभायात्रा
होली के मौके पर करीब आठ दशक से गोरखपुर शहर में नरसिंह शोभायात्रा निकाली जाती है. इसकी शुरूआत आठ दशक पूर्व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख ने की थी. लेकिन इस यात्रा की भव्यता नाथपीठ से संबंधित है. बताते हैं कि, शोभायात्रा को पहले ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ के निर्देश पर महंत अवेद्यनाथ ने सुंदर बनाया और जब इसका नेतृत्व योगी आदित्यनाथ ने किया तो देश भर में इसकी ख्याति हुई. साल 1944 में नानाजी ने होली में फूहड़पन को दूर करने के लिए पहले से चली आ रही नरसिंह यात्रा की कमान संभाली थी. नाना जी के प्रयास से गोरखपुर में होली के अवसर पर होने वाली फूहड़ता को तो हटाया जा सका लेकिन, इसे भव्यता नहीं मिल पायी. इसके लिए उन्होंने तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ से संपर्क साधा.
गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ ने नानाजी के इस प्रस्ताव को अपने उत्तराधिकारी अवैद्यनाथ को दे दी. इस परिणाम यह हुआ कि, सन 1950 से अवैद्यनाथ शोभायात्रा का नेतृत्व करने में लग गए. इसके साथ ही संघ की यह शोभायात्रा धीमे – धीमे नाथपीठ की अनिवार्य परंपरा से जुड़ गयी. साल 1998 से गोरक्षपीठ के उत्ताधिकारी के रूप में योगी आदित्यनाथ ने शोभायात्रा की अगुवाई की, जिसमें शहर के सभी प्रमुख लोग भागीदारी करने लगे. योगी की लोकप्रियता के साथ शोभायात्रा भी लोकप्रिय हुई.
कानपुर की एक हफ्ते की होली
कानपुर की परंपरा के अनुसार यह होली दो बार मनाई जाती है. कानपुर में गंगा मेला होली से अधिक प्रसिद्ध है. इसका प्रारंभ अंग्रेजों ने किया था. 1942 से इसका अनुमान है. माना जाता है कि अंग्रेजों के राज में रंजन बाबू पार्क में होली की तैयारी कर रहे 47 युवा लोगों को रंग खेलते समय गिरफ्तार किया गया था. इसके विरोध में लोगों ने 7 दिनों तक सुबह से शाम तक रंग खेला था. बाद में इन युवकों को रिहा करने पर लोगों ने उन्हें ठेले पर बैठाकर खुशी मनाई और यह ठेला सरसैया घाट पर रुका, जहां गंगा मेला लगाया गया था. तभी से यह परंपरा चली आ रही है और कानपुर में 7 दिनों तक के होली का त्यौहार मनाया जाता है. इसकी शुरूआत होली के दिन से होकर सात दिनों तक चलती है.
बुलंदेलखंड की कीचड़ की होली
बुलंदखंड में होली को लेकर अपनी अलग ही मान्यता है. यहां के अलग – अलग क्षेत्रों में अलग तरह की होली मनाई जाती है. यहां रंगों के साथ विशेष तौर पर कीचड़ से होली खेलने की परंपरा है. बुंदेलखंड में होली जलाने और धूल कीचड़ खेलने की एक अलग परंपरा है. इसके अलावा, यहां भाईदूज से रंगों का प्रसार होता है. बुंदेलखंड के झांसी जिले में हिरण्यकश्यप की राजधानी एरच धाम थी. यहीं, होलिका ने भक्त प्रहलाद को गोद में बैठाकर जलाने का प्रयास किया था. इसके बाद होली का रिवाज शुरू हुआ. युवा बुंदेलखंड के इस क्षेत्र में रात को कीचड़ और धूल की होली खेलते हैं. प्रतिपदा के दिन कीचड़, गोबर, धूल और मिट्टी से होली खेली जाती है, अन्नदाताओं की फसल पकने पर घर में आने वाली खुशी को इस तरह मनाया जाता है.
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हमीरपुर में पुरूषों की प्रतिबंधित होली
हमीरपुर के सुमेरपुर के कुंडौरा गांव में 300 साल पुरानी परंपरा चली आ रही है. यहां पूरे गांव की महिलाएं राम जानकी मंदिर से बारात निकालकर होली का आयोजन करती हैं. इस दौरान पुरुषों को गांव में नहीं आने दिया जाता है. महिलाएं फिर होली का आनंद लेती है. हमीरपुर में एकमात्र दूल्हा बारात निकालने की परंपरा है, जिसमें एक व्यक्ति को घोड़े पर बैठाकर बैंडबाजे के साथ पूरे गांव में बड़ी बारात निकाली जाती है. गांव की महिलाएं दूल्हे को टीका लगाकर आरती करती हैं, फिर होली शुरू होती है.