जनांदोलन में बदल गया था राज्यसभा Election

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1974 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के मध्यावधि चुनाव(Election) के नतीजे काफी रोचक रहे। कुछ वर्ष पहले 1971 के आम चुनाव(Election) में श्रीमती गांधी अपने सभी प्रमुख राजनीतिक विरोधियों को हाशिये पर ला चुकी थीं। 85 लोकसभा सीटों में मात्र आधा दर्जन सीटों पर ही विपक्ष को सफलता मिल पाई थी। चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, राजनारायण, मधुलिमये, जॉर्ज फर्नांडिस सरीखे सभी नेता पराजित हो गए थे। लेकिन जनता का धीरे-धीरे मोहभंग हुआ, इसकी बानगी उत्तर प्रदेश में ही देखने को मिली। उस समय तक प्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था और विधान सभा में 425 की संख्या बल वाला सदन था।

चरण सिंह के नेतृत्व वाला मोर्चा जिसमें बीकेडी, संयुक्त समाजवादी पार्टी और मुस्लिम मजलिस शामिल थे, सबको चौंकाने में सफल रहा। इसके 106 सदस्य निर्वाचित हो गए। 60 से अधिक सीटों पर जनसंघ ने सफलता प्राप्त की। साम्यवादी आंदोलन आज की तरह कमजोर नहीं था और उसके रुझान भी कांग्रेस विरोधी थे। इसके सदस्यों की संख्या भी 15 का आंकड़ा पार कर गई। अगर निर्दलीयों को भी जोड़ा जाए तो एक सशक्त विपक्ष सत्ता पक्ष का मुकाबला करने के लिए सामने आ चुका था। कांग्रेस में भी नए नेतृत्व के रूप में हेमवती नंदन बहुगुणा कमान संभाल चुके थे। सीबी गुप्ता, सुचिता कृपलानी, पंडित कमलापति त्रिपाठी जैसे दिग्गज नेता लुप्तप्राय थे। बहुगुणा राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे। एक तरफ वह अल्पसंख्यकों के बीच लोकप्रिय थे तो दूसरी तरफ वह कांग्रेस में सोवियत संघ समर्थक विचारों के प्रतिनिधि के रूप में उभर रहे थे। उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के लिए 12 सीटों के चुनाव की घोषणा हो गई। लोक दल के कोटे में तीन, जनसंघ के कोटे में दो और कांग्रेस के कोटे में सात सीटें रहेंगी यह लगभग तय था।

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अलग-अलग तरह के उम्मीदवार

जनसंघ के दोनों उम्मीदवार अनोखे व्यक्तित्व वाले थे। प्रकाश वीर शास्त्री सबसे कुशल वक्ता के रूप में तीन पारियां खेल चुके थे। सुब्रमण्यम स्वामी की सनसनीखेज एंट्री जनसंघ के माध्यम से देश की राजनीति में हुई जो कैम्ब्रिज में अध्यापन का कार्य छोड़ देश लौटे थे। कांग्रेस पार्टी में चंद्रशेखर से लेकर कल्पनाथ राय जैसे दिग्गज उम्मीदवार बन चुके थे। लोकदल ने अपने तीनों उम्मीदवारों की घोषणा की। यद्यपि कुछ संख्या बल अभी बटोरना बाकी था। डॉ. लोहिया की मृत्यु के बाद एक बड़े समाजवादी खेमे का नेतृत्व राजनारायण कर रहे थे जिनकी छवि संसद के अंदर और बाहर इंदिरा गांधी के प्रबल विरोधी की बन चुकी थी। 1971 के लोकसभा चुनाव में वह रायबरेली संसदीय क्षेत्र से श्रीमती गांधी के विरुद्ध चुनाव लड़ चुके थे। इस चुनाव में पराजित होने के बाद भी उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सनसनी मचा दी थी कि श्रीमती गांधी ने सरकारी तंत्र का दुरुपयोग कर चुनाव में जीत हासिल की है। उन्होंने इंदिरा गांधी के सहायक यशपाल कपूर को भी अभियुक्त बनाया था जो कि सरकारी सेवा में रहते हुए इंदिरा गांधी के चुनाव का संचालन कर रहे थे। रोचक पहलू है कि एक वर्ष बाद ही 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राजनारायण की याचिका पर अपना फैसला दे दिया कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने गलत तरीके अख्तियार कर चुनाव जीता है। चुनाव अवैध ठहरा दिया गया।

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उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव(Election) को लेकर शह-मात का खेल शुरू हो चुका था। प्रसिद्ध उद्योगपति के.के. बिड़ला ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया। लखनऊ में विधायकों की खरीद-फरोख्त के चर्चे होने लगे। बिड़ला उत्तर प्रदेश के कई महत्वपूर्ण औद्योगिक प्रतिष्ठानों को संचालित कर रहे थे जिनके बड़े अफसर उस समय के बड़े नेताओं के साथ तालमेल बनाने में संलग्न थे। बिड़ला की चुनौती दोहरी थी। वह अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए दोनों खेमों के विधायकों की जोड़-तोड़ में लगे हुए थे। यशपाल कपूर उनके चुनाव संचालन के लिए लखनऊ पहुंच गए। उन्होंने बहुगुणाजी के सरकारी आवास को अपना ठिकाना बना लिया और वहीं से बिड़ला के लिए चुनावी रणनीति बनानी शुरू कर दी। कांग्रेस के किसी उम्मीदवार की पराजय बहुगुणा जी की कुर्सी के लिए खतरा बन सकती थी, इसलिए उन्होंने आक्रामक रुख अपनाया और यशपाल कपूर का सामान हजरतगंज स्थित एक नामी होटल में रखवा दिया। कपूर को भी मुख्यमंत्री आवास छोड़ने को कह दिया। राजनीतिक गलियारों में चर्चा गर्म रही थी कि केंद्रीय नेतृत्व से बाद में जो उनके रिश्ते खराब हुए उसकी एक बड़ी वजह यह घटना भी थी। दूसरी ओर लोकदल की कमान समाजवादी युवजन सभा के पुराने नेता अपने हाथ में लिए हुए थे जिसका कुशल संचालन चरण सिंह और राजनारायण के विश्वस्त विधायक सत्यपाल मलिक कर रहे थे जो वर्तमान में गोवा के राज्यपाल हैं।

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ब्रीफकेस वाले की घेरेबंदी

हम लोगों ने समाजवादी नौजवानों की कई टोलियां बनाईं जो लखनऊ की सड़कों और खासतौर से विधायक निवास जो दारूलसफा के नाम से प्रसिद्ध है, में जन अभियान छेड़ चुकी थीं। नुक्कड़ सभाएं करती हुई, पूंजीवाद के विरुद्ध नारे लगाती हुई, गीत गाती हुई ये टोलियां आकर्षण का केंद्र बिन्दु बनी हुई थीं। विधायक निवास के चारों तरफ समाजवादियों का बोलबाला था। माहौल ऐसा विस्फोटक हो चुका था कि चुनाव से कई दिन पूर्व हाथ में ब्रीफकेस लेकर घूमना खतरा मोल लेने जैसा माना जाने लगा था। जब भी किसी बड़ी गाड़ी की आहट सुनाई देती या सूट-बूट पहने कोई अफसरनुमा व्यक्ति दिखता, नौजवानों का हल्ला बोल शुरू हो जाता था। देश की राजनीति में यह अकेला और अनूठा राज्य सभा चुनाव(Election) था जो सड़कों पर लड़ा जाता हुआ दिख रहा था। बिड़ला जी के लिए वोट मांगना अपराध जैसा साबित होने लगा था। कांग्रेस के भी कई दिग्गज नेता जो राजनारायण को पराजित करने में रुचि रखते थे, धीरे-धीरे किनारा काटने लगे थे। अंततः लोकशाही की जीत हुई और राजनारायण ने देश के सबसे धनाढ्य पूंजीपति को पराजित किया।

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