पीएम : पर-उपदेश से अधिक आत्मविवेचना करें

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सतीश राय

प्रधानमंत्री द्वारा ऊठाई गई आंतरिक लोकतंत्र की बहस महत्वपूर्ण है,लेकिन पर-उपदेश से अधिक आत्मविवेचना की अपेक्षा रखती है। लोकतंत्र में आलोचना का अधिकार है,तो उसके साथ ही आत्मालोचना की जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है।जहां तक कांग्रेस का सवाल है, जिसपर पीएम का निशाना है, उसके भीतर आंतरिक लोकतंत्र की परम्परा बहुत पुरानी व सशक्त रही है। कह सकते हैं कि समय के साथ उसमें क्षरण भी हुआ है,किंतु इसके बावजूद यह कहने में कोई भी संकोच नहीं है कि तुलनात्मक दृष्टि से अभी भी कांग्रेस में औरों से बेहतर स्थिति है।

इस दावे का पुख्ता आधार है,क्योंकि अन्य ऐसे दल नहीं हैं जिसमें खुले चुनाव की प्रक्रिया से पार्टी अध्यक्ष का चयन होता हो।कांग्रेस में सोनिया गांधी जहां सभी प्रदेश मुख्यालयों पर मतदान पेटिकायें रखकर हुए विधिवत चुनाव द्वारा जितेन्द्र प्रसाद को हराकर कांग्रेस की अध्यक्ष निर्वाचित हुईं थीं, वहीं सीताराम केसरी को भी वैसे ही खुले आमचुनाव में राजेश पायलट को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष पद प्राप्त हुआ।

चन्द्रशेखर भी तो इंदिरा जी की इच्छा के विपरीत ही चुनाव लड़कर चुनाव समिति या कार्यसमिति में निर्वाचित हुए थे।क्या इस तरह की नजीरें दूसरे बड़े दल भाजपा के पास भी मौजूद हैं? बेशक नहीं हैं।कांग्रेस में कभी किसी परिवार विशेष से भी कोई चुना गया,तो वह कार्यकर्ताओं पर थोपा नहीं गया, बल्कि लोकप्रिय आधार पर और लोकतांत्रिक, संवैधानिक प्रक्रिया के तहत ही हुआ।जहां तक भाजपा का सवाल है, उसमें ऐसे चयन के फैसले पार्टी के संवैधानिक दायरे से परे जाकर तय होते हैं,क्योंकि वहां सब कुछ संघ का नागपुर स्थित नेतृत्व ही अंतिम रूप से तय करता है और उसे कोई चुनौती देना असंभव है।

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उल्लेखनीय है कि संघ-नेतृत्व की शीर्ष अधिकारसम्पन्न ऐसी सत्ता का कोई उल्लेख भाजपा के अपने संविधान में नहीं है। राजनाथ सिंह के भाजपाध्यक्ष के पहले वाले कार्यकाल की सम्पूर्ति (जो तब के विधान के अनुसार एक वर्ष थी)के समय भाजपा में अध्यक्ष बनने की महत्वाकांक्षायें मुखर भी थीं और उन्हें लेकर अखबारों में चर्चा का बाजार भी सरगर्म था। उसी बीच नागपुर से सरसंघचालक दिल्ली आये, झण्डेवालान में एक प्रेस- कान्फ्रेंस कर साफ एलान किया कि भाजपा-अध्यक्ष कौन होगा, ये हम बतायेंगे।इतना कहकर के वह नागपुर लौट गये और नाम नहीं बताया।

इसके बाद अध्यक्ष के सवाल पर आंतरिक लोकतंत्र के मिथ्या दंभ वाली भाजपा में कोई मुंह खोलने वाला भी नहीं था। सभी को सांप सूंघ गया। उसके तीन हफ्ते के बाद वह नागपुर से पुन: लौटे तो पत्रकार वार्ता करके एक ऐसा नाम घोषित किया,जिसे उस वक्त तक भाजपा के भीतर महाराष्ट्र से बाहर के शायद 5% लोग भी नहीं जानते थे।वह व्यक्ति निर्विरोध भाजपाध्यक्ष चुना गया, सर्वशक्तिमान अध्यक्ष हुआ और उसे पुन: अध्यक्ष बनाने के लिए पार्टी के संविधान में संशोधन कर दो साल के अध्यक्ष का प्राविधान बना दिया गया,भले ही स्केंडल्स के आरोप की चर्चायें उठने पर वह बन नहीं सके।

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चुनाव में भी अंतिम फैसले लेने की यह अधिकारसंपन्न सत्ता भाजपा के स्वामी जैसी एक संविधानेतर सत्ता है। दूसरी ओर स्वयं उस संगठन में आंतरिक तो आंतरिक लोकतंत्र की कोई भी परिकल्पना न तो सिद्धान्त में है और न तो व्यवहार में। उसका न कोई पंजीकृत संविधान है और न वहां पदासीन होने वालों की कोई निर्वाचन प्रक्रिया है। अत: भाजपा में तो आंतरिक लोकतंत्र की दूर तक कोई गुंजाइश न है और न तो कभी हो ही सकती है। बेशक वहां संसदीय लोकतंत्र की संस्कृति में निजी तौर पर गहरे संस्कार वाले अटल जी जैसे लोग हुए हैं,लेकिन संस्थागत आधार पर आंतरिक लोकतंत्र की कोई गुंजाइश नहीं है।

कांग्रेस में यदि राहुल गांधी अध्यक्ष बनते हैं,तो बेशक पार्टी के कार्यकर्ताओं के लोकप्रिय समर्थन से ही बनेंगे, न कि सोनिया गांधी उन्हें थोप देंगी। कार्यकर्ताओं का विश्वास, उस परिवार द्वारा पार्टी व देश की सेवाओं के लिए असंदिग्ध योगदान के कारण तो हो सकता है, लेकिन उनका फैसला न केवल लोकप्रिय आधार पर फैसला कहा जायेगा,बल्कि पूरी तरह वैधानिक प्रक्रिया से भी हुआ फैसला होगा। कांग्रेसी प्रदेश इकाईयों ने उनके पक्ष में प्रस्ताव पारित किये हैं,पर चयन तो कांग्रेस कार्यसमिति या कांग्रेस महासममिति ही करेगी। कोई संविधानेतर सत्ता चयन करे, इसकी कोई गुजायश कांग्रेस में तो नहीं है।

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श्रीमती सोनिया गांधी को भी पहले कांग्रेस कार्यसमिति ने चुना। बाद में खुले आम चुनाव में कांग्रेस महासममिति एवं प्रदेश कांग्रेस कमेटियों के सदस्यों ने मिलकर,उनके विरुद्ध अधिकृत प्रतिद्वंदी प्रत्याशी जितेंद्र प्रसाद के विरुद्ध चुना।अच्छी साख वाले परिवारों के प्रति विश्वास के लोकप्रिय चलन भारतीय समाज के और भी क्षेत्रों में प्रचलित रहे हैं।भारतीय समाज के उस वैशिष्ट्य को लोकप्रिय एवं विधिक धरातल की लोकतांत्रिक कसौटी के बावजूद खारिज करने का हक ऐसे लोगों को तो नहीं हो सकता ,जिनके खुद के यहां इन कसौटियों पर खड़ी लोकतंत्र की मर्यादा दूर दूर तक नदारद हैं।

(सतीश राय महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर रह चुके हैं। इन दिनों वह राजीव गांधी स्टडी सर्किल के राष्ट्रीय समन्वयक हैं। इसे उनके फेसबुक वाल से लिया गया है)

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