राज परंपरा निर्बाध चलती रहेगी

0

सन् 1422 में फ्रांस के सम्राट चार्ल्स-6 की मृत्यु के बाद उनके पुत्र चार्ल्स-7 द्वारा सम्राट बनने के अवसर पर पहली बार एक ऐसी घोषणा की गई जो बाद के समय में एक स्थापित परंपरा बन गई। उस समय जो घोषणा की गई उसका अंग्रेज़ी अनुवाद था – द किंग इज़ डेड, लांग लिव दि किंग। इस विरोधाभासी दिखने वाली घोषणा का आशय था कि राजा की मृत्यु हो गई है लेकिन राज परंपरा निर्बाध चलती रहेगी। कर्नाटक में जो हुआ है यह परंपरा उसका सबसे बढ़िया उदाहरण है।

जी हां, मैं कहना चाहता हूं कि कर्नाटक में भाजपा का नाटक समाप्त हो गया है (दि किंग इज़ डेड) और जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन का नाटक हमें देखने को मिलता रहेगा (लांग लिव दि किंग), यानी, नाटक निर्बाध जारी रहेगा! सीटों के मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही अपने-अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पायी। भाजपा विपक्ष में है और कांग्रेस चोर दरवाजे से सत्ता में, और दोनों की हालत यह है कि फिसल पड़े, तो हर-हर गंगे।

कर्नाटक प्रकरण के संदर्भ में बुज़ुर्ग स्तंभकार वेद प्रताप वैदिक ने तीन महत्वपूर्ण कानूनों के सुझाव दिये हैं। उनका पहला सुझाव है कि अस्पष्ट बहुमत की स्थिति में बहुमत वाले गठबंधन को सरकार बनाने का मौका सबसे पहले दिया जाए चाहे वह गठबंधन चुनाव के पहले बना हो या बाद में। दूसरा, विधायकों और सांसदों की शपथ के पहले या बाद में, चाहे उनकी संख्या कितनी ही हो, उन्हें दल-बदल की सुविधा न हो। इसके लिए वर्तमान दल-बदल कानून में आवश्यक संशोधन किया जाए। तीसरा, अस्पष्ट बहुमत की स्थिति में सदन में शक्ति-परीक्षण तुरंत करवाया जाए।

उन्होंने चौथा सुझाव यह भी दिया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को स्वविवेक के नाम पर मनमानी करने का मौका न मिले, जो वस्तुत: उनके पहले सुझाव का ही दोहराव है।  मेरे परम मित्र, दिप्रिंट में इन्वेस्टिगेशन्स व स्पेशल प्रोजेक्ट्स के संपादक मनीष छिब्बर और ज़्यादा गहराई में गए हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव से उत्पन्न स्थिति पर जेडीएस के नेता एचडी कुमारस्वामी तथा कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष जी. परमेश्वर की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई होना बाकी है।

यह याचिका से उत्पन्न अवसर का प्रयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ऐसा निर्णय दे सकता है जो कर्नाटक जैसी स्थिति दोबारा आने पर एक स्थापित नियम का रूप ले ले। यह एक ऐसा संस्थागत सुधार होगा, जिसकी देश को बहुत आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला एक ऐसे कानून के रूप में स्वीकृत हो जाएगा जो अस्पष्टता की स्थिति में स्पष्टता लाएगा।

इस विषय पर थोड़े और विमर्श की आवश्यकता है। 15 तारीख को कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद से ही दुखद घटनाक्रम बना, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जब-जब भी ऐसा हुआ है, तत्कालीन सत्ताधारी दल ने उसका लाभ उठाने की जुगत भिड़ाई है।

बहुत थोड़े अंतराल में ही बार-बार दल-बदल, विधायकों की खरीद-फरोख्त आदि घटनाओं ने हमें उस मोड़ पर ला खड़ा किया है कि अब हर कोई इस नाटक का अंत चाहता है। यानी, भविष्य में फिर कभी दोबारा किसी चुनाव में यदि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले तो समस्या के हल के लिए एक निश्चित प्रक्रिया को ही अपनाया जाए। कुमारस्वामी तथा जी. परमेश्वर की याचिका के कारण अब सर्वोच्च न्यायालय के पास अवसर है कि वह ऐसा फैसला दे जो इस समस्या का स्थाई समाधान बन जाए।

सर्वोच्च न्यायालय इस समय आशा की एकमात्र किरण है क्योंकि कोई भी दल इस संबंध में कानून बनाना नहीं चाहेगा क्योंकि जो आज सत्ता में है, वह कल विरोधी दल हो सकता है, ऐसे में आज का विरोधी दल भी नहीं चाहेगा कि कल को वही कानून उसके आड़े आये। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका नामक हमारी सरकार के तीन अंग हैं लेकिन विधायिका जनहित के कानून नहीं बना रही, कार्यपालिका शासन के अलावा हर अन्य कार्य में व्यस्त है जिसने न्यायपालिका को एक्टिविस्ट बनने का अवसर दे दिया है।

यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, उसके बावजूद आज हम उस मुकाम पर हैं जहां हमें न्यायपालिका के एक्टिविस्ट वाले रूप की वकालत कर रहे हैं। यह एक और बड़ी समस्या है और हमें इसके स्थाई समाधान की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।

येदियुरप्पा द्वारा मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते ही हिंदुस्तान एकता पार्टी ने ट्वीट करके कहा कि कर्नाटक का नाटक भाजपा की असफलता तो है ही, यह उससे भी ज़्यादा संविधान की असफलता है जो ऐसी स्थितियों में समाधान देने के बजाए समस्याओं का कारण बन रहा है। संविधान की समग्र समीक्षा समय की दरकार है। इस सच की उपेक्षा देश के लिए हानिकारक है।

हिंदुस्तान एकता पार्टी का अगला ट्वीट और भी स्पष्ट था जिसमें कहा गया था कि पार्टी युनाइटेड स्टेट्स आफ इंडिया के विचार का समर्थन करती है। खुले दिमाग से देश के संविधान की समीक्षा होनी चाहिए। सरकार के तीनों अंगों की शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा होना चाहिए और घाटा दे रहे सार्वजनिक उपक्रमों को बंद किया जाना चाहिए।

ह्रिंदुस्तान एकता पार्टी के इस ट्वीट को तुरंत ह्वाई इंडिया नीड्स दि प्रेजि़डेंशियल सिस्टम के यशस्वी लेखक भानु धमीजा ने रिट्वीट करते हुए बताया कि अब देश के कई राजनीतिक दल राष्ट्रपति प्रणाली का समर्थन करते हैं। इनमें फोरम फार प्रेजि़डेंशियल डेमोक्रेसी, सैनिक समाज पार्टी, जागो पार्टी और हिंदुस्तान एकता पार्टी शामिल हैं। नयी दिशा नाम की एक वेबसाइट के माध्यम से बुद्धिजीवियों का एक समूह भी हिंदुस्तान एकता पार्टी के इस विचार की पैरवी करता है।

भाजपा के वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी और राजीव प्रताप रूडी भी देश में राष्ट्रपति प्रणाली के शासन की स्थापना का समर्थन करते रहे हैं, हालांकि विपक्षी दलों में इस विचार की शुरुआत कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े से हुई थी।

यह समझना आवश्यक है कि राष्ट्रपति प्रणाली में चूंकि देश और राज्य का मुखिया सीधे जनता द्वारा चुना जाता है अत: उसे अपनी कुर्सी बचाने के लिए न विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त करनी पड़ती है न दल-बदल का सहारा लेना पड़ता है। राष्ट्रपति प्रणाली में विधायिका सिर्फ कानून बनाती है, कार्यपालिका उन कानूनों के अनुसार अपना काम करती है और न्यायपालिका किसी विवाद की स्थिति में न्याय देती है, यानी, सरकार के तीनों अंग अपना-अपना काम करते हैं।

तिरुअंनतपुरम से कांग्रेसी सांसद शशि थरूर ने गत वर्ष मानसून सत्र में एक निजी बिल के माध्यम से स्थानीय स्तर पर इस परिवर्तन की शुरुआत की वकालत की थी। शशि थरूर के इस बिल में प्रावधान था कि नगरपालिकाओं का महापौर (मेयर) सीधे जनता द्वारा चुना जाए, महापौर का कार्यकाल निश्चित हो और उसके पास विधायी शक्तियां न हों, लेकिन जैसा कि संसदीय प्रणाली में होता आया है, इस बिल को सत्ताधारी पार्टी का समर्थन न मिलने के कारण यह बिल कानून नहीं बन सका।

इसी संदर्भ में यह वांछित है कि एचडी कुमारस्वामी तथा जी. परमेश्वर की याचिका के माध्यम से न्यायपालिका ऐसा निर्णय दे ताकि कर्नाटक जैसा नाटक दोबारा न हो, अन्यथा हम तब तक द किंग इज़ डेड, लांग लिव दि किंग जैसी समस्या से जूझते रहेंगे और विवशता में मन ही मन कुढ़ते रहेंगे।

(नोट- ये लेखक के निजी विचार हैं इस लेख को जर्नलिस्ट कैफे की तरफ से संपादित नहीं किया गया है)

पी.के.खुरानापी.के.खुराना : एक परिचय

(दि हैपीनेस गुरू के नाम से विख्यात, पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे।
एक नामचीन जनसंपर्क सलाहकार, राजनीतिक रणनीतिकार एवं मोटिवेशनल स्पीकर होने के साथ- साथ वे एक नियमित स्तंभकार भी हैं और लगभग हर विषय पर कलम चलाते हैं।)

Leave A Reply

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More