अलविदा ‘नेता जी’ -हेमंत शर्मा
नेताजी स्व. मुलायम सिंह यादव को वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने इन शब्दों में दी श्रद्धांजलि
वे अन्तिम समाजवादी थे. उनके बाद सिर्फ़ नाम की समाजवादी पार्टियां तो रहेंगी, पर लोहिया का गढ़ा कोई समाजवादी नहीं होगा. डॉ. लोहिया ने उन्हें अपने हाथों से गढ़ा था यानी समाजवादी राजनीति के उत्तर लोहिया युग का अंत हुआ है. लफ़्फ़ाज़ी और नीतियों की बाल की खाल निकाले बिना मुलायम सिंह ने समाजवाद को अपने जीवन में उतारा था. गॉंव और खेत की मेड़ से उठे इस धरती पुत्र नें सही मायनो में लोहिया के ग़ैर कॉंग्रेस वाद को अमली जामा पहनाया. 1989 में मुलायम सिंह ने जिस कॉंग्रेस को उत्तर प्रदेश से उखाड़ा वह आज तक देश में जड़ें न जमा सकी. उनसे सहमत और असहमत हुआ जा सकता है पर उत्तर प्रदेश की राजनीति के वे नेता नहीं एक इमोशन थे.
केवल संबंधों को निभाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने वाले इस पॉंच फुट के ज़िद्दी और ग़रीबों के लिए प्रतिबद्ध नेता ने अपने वसूलों से कभी समझौता नहीं किया. मुद्दों पर अड़ना और डटना उनकी फ़ितरत थी. इसीलिए मुस्लिम वोट बैंक के ख़ज़ांची जामा मस्जिद के शाही इमाम को सबसे पहले राजनीति छोड़ सिर्फ़ इमामियत की सलाह देने वाले और फिर क़ानून की हिफ़ाज़त के लिए शंकराचार्य स्वरूपानंद जी की गिरफ़्तारी की हिम्मत मुलायम सिंह में ही थी. ये हिम्मत उन्हें गॉंव, गरीब, किसान से जुड़े अपने गर्भनाल रिश्तों से मिलती थी. यह हिम्मत उनमें राममनोहर लोहिया की वैचारिक ट्रेनिंग, चौधरी चरण सिंह की सादगी और दृढ़ता और जय प्रकाश नारायण की संघर्ष क्षमता से मिली थी. वे एकमात्र नेता जिनकी राजनीति वाकपटुता और भाषणों पर नहीं, बल्कि लोक क्षेम और अपने कार्यकर्ताओं से वैयक्तिक संपर्क पर आधारित थी. आजादी के बाद इस मुल्क में नेताओं के लिए ‘दीदी’ ‘अम्मा’ ‘अन्ना’ ‘बहिन जी’ ‘दादा’ ‘ताऊ’ जैसे तमाम उपाख्य हर राज्य में गढ़े गए, पर ‘नेता जी’ का प्रयोग केवल उन्हीं के लिए हुआ. यह उनकी लोकप्रियता ही थी कि वे 9 बार विधायक, 7 बार सॉंसद और 3 बार राज्य के मुख्यमंत्री बने.
ग़ैर कॉंग्रेसवाद के बाद वे देश में ग़ैर भाजपावाद के प्रतीक भी बने. देश के ताने बाने की हिफ़ाज़त के लिए उन्होंने बहुसंख्यक ग़ुस्से का जोखिम भी उठाया. इसका उन्हें नतीजा भी भुगतना पड़ा. उनसे चूक सिर्फ़ इतनी हुई की भाजपा से लड़ते लड़ते हनुमान का यह भक्त राम से लड़ गया, पर हर बार वे यह ज़रूर कहते थे कि देशभक्ति, सीमा सुरक्षा और भाषा के सवाल पर उनकी और भाजपा की नीति एक है. घुटनों तक टंगी उनकी धोती और उनका सहज देशी देहाती व्यक्तित्व उन्हें आम आदमी से हमेशा जोड़े रखता था. यारों के यार मुलायम सिंह की सादगी और विनम्रता मनमोहक थी. राजनीति विज्ञान में एमए मुलायम सिंह पार्टी और समाज के लिए अपने धुर विरोधियों को भी गले लगा लेते है. उनके मन में कभी कोई कटुता उन्हें गाली देने वालों के प्रति भी नहीं रही. पहले बलराम सिंह यादव फिर दर्शन सिंह यादव इटावा मैनपुरी की राजनीति में उनके धुर विरोधी थे. दोनों से आमने सामने गोलियाँ भी चलीं. मुलायम सिंह पर जानलेवा हमला हुआ. एक बार जसवंतनगर चुनाव में जब दर्शन सिंह के लोगों ने मुलायम सिंह के क़ाफ़िले पर गोलियाँ दागी तो मैं भी उनकी गाड़ी में था. मौत बग़ल से गुजरी थी, पर मुलायम सिंह ने बाद में इन्हे भी गले लगाया. उन्होंने इन दोनों को बाद में न सिर्फ़ अपनी पार्टी में शामिल किया, बल्कि टिकट दे राज्यसभा में भी पहुँचाया. अमर सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा ने पार्टी छोड़ने के बाद न जाने कितनी गालियाँ मुलायम सिंह को दी, पर दोनों को उन्होंने फिर गले लगाया. ऐसी थी उनकी उदारता और सदाशयता.
आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति ने जिस जिस मोड़ पर अपना रास्ता बदला मुलायम सिंह यादव वहॉं खड़े नज़र आते हैं. चाहे वह 77 का जनता पार्टी प्रयोग हो, 89 में चन्द्रशेखर और बहुगुणा को किनारे कर वीपी सिंह का समर्थन हो, रामजन्मभूमि का देशव्यापी आन्दोलन हो या फिर उत्तराखंड के जन्म लेने की वजह रामपुर तिराहा गोलीकाण्ड हो. मुलायम सिंह यादव हर कहीं आपको दिखायी देगें. यह बात दूसरी है जब वीपी सिंह ने उनसे छल किया तो उन्होंने चन्द्रशेखर का साथ ले वीपी सिंह को भी राजनीति की पटरी पर बिठाया. राजनीति में दुस्साहस की हद तक जा अपने विचारों के लिए लड़ना कोई उनसे सीखे. बिना परिणाम की परवाह किए. यहीं उनकी ताक़त थी. हर बार वे किसी पर स्टैंड लेते फिर उस स्टैंड के समर्थन में जनता के बीच जाते. 30-35 रैलियों करते और अपने स्टैंड के प्रति जनसमर्थन जुटा लेते।यह उनकी राजनीति का तरीका था.
मेरी उनकी मित्रता तब की थी, जब चौधरी चरण सिंह की विरासत की लड़ाई में लोकदल ने उन्हें नेता विरोधी पद से हटा सत्यपाल यादव को नेता विरोधी दल बना दिया. मुलायम सिंह ने अजित सिंह से कहा, आप उनके सम्पत्ति के वारिस हो सकते है, पर राजनीति और विचारों का वारिस में ही रहूँगा. मुलायम सिंह ने अलग पार्टी बनाई. जनता पार्टी और कम्यूनिस्ट दलों का समर्थन ले क्रांन्तिकारी मोर्चे का गठन किया. फिर पूरे प्रदेश में क्रान्ति रथ निकाला. इस अभियान को कवर करने 86 में मैं भी उस रथ पर गया था. मुलायम सिंह तब तक नेता जी हो चुके थे. कार्यकर्ताओं से जुड़ाव उनका ऐसा था कि वे प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं का नाम लेकर बुलाते थे. मुलायम सिंह का आधार बढ़ता रहा, अजित सिंह का घटता रहा. चौधरी साहब की विरासत ट्रांसफ़र हो चुकी थी. उसके बाद फिर मुलायम सिंह ने पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखा.
देश की चिन्ता उन्हें अस्पताल के बिस्तर पर भी रही. गुड़गाँव के मेदान्ता अस्पताल की पन्द्रहवीं मंज़िल के 4401 कमरे के बिस्तर पर लेटे जब वे मौत से लड़ रहे थे, मैं उन्हें देखने गया था. लोगों ने बताया उन्हें कुछ याद नहीं है. बातचीत नहीं कर रहे, पहचानते भी कम है. मुझे देखते ही बोले अंतरराष्ट्रीय स्थिति अच्छी नहीं है. मैंने सुना है हमारा बरसों का साथी रूस भी हमसे नाराज़ हो गया है. मैंने उनसे कहा की यूक्रेन पर एक बार ऐसी स्थिति बनी थी, पर बाद में हमारी कूटनीति ने सब ठीक कर लिया. वे फिर कहने लगे. देखिए मेरी कोई सुनता नहीं. मैं बार-बार कहता हूँ कि पाकिस्तान हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. वह बहुत कमजोर हो गया है. राजनैतिक ताक़त भी नहीं है. कंगाली से जूझ रहा है. हमारा असल दुश्मन चीन है. हमें उससे सावधान रहना होगा. लोहिया ने भी यह कहा था. किसी ने नहीं सुना. बाद में सही साबित हुआ. इसके बाद थोड़ा ख़ांसे मुझे लगा बातचीत ठीक नहीं है. फिर आने को कह मैंने उन्हें नमस्कार किया और लौट आया यह सोचते हुए, देश के मुद्दे पर अब भी वे कितने सजग हैं.
मुलायम सिंह ने अपने से धोखा भी बहुत खाया. बात 90 की होगी. बिहार में विधानसभा का चुनाव था. मुलायम सिंह मुख्यमंत्री हो चुके थे, इसलिए बिहार के चुनाव की ज़िम्मेदारी उनपर थी. वे धुआँधार प्रचार कर रहे थे. प्रचार के बाद शाम को हम चम्पारण के किसी डाकबगंले में रूके थे. बिहार में जनतादल के मुख्यमंत्री के तीनो दावेदार रामसुंदर दास जो पहले मुख्यमंत्री रह चुके थे. लालूयादव और रघुनाथ झॉ नेता जी से मिलने आए. बग़ल के कमरे में ही मैं था. तीनो अपनी-अपनी पैरवी कर रहे थे. बाद में नेता जी ने कहा रामसुंदर दास बूढ़े हो गए है. रघुनाथ झॉ के पीछे वह जनसमर्थन नहीं है. उम्मीदवार लालू ही ठीक है. बता दें कि बाद में रामसुंदर दास के समर्थन में वीपी सिंह भी थे, पर मुलायम सिंह ने अड़कर लालू को मुख्यमंत्री बनवाया. वहीं लालू 1996 में जब देवेगौडा के बाद प्रधानमंत्री का सवाल खड़ा हुआ तो मुलायम सिंह का डटकर विरोध किया, तब लॉटरी लगी इंद्र गुजराल की, पर मुलायम सिंह को इसका मलाल कभी नहीं रहा.
मुलायम सिंह यादव राजनीति में आने पहले अध्यापक और उससे पहले पहलवान थे. कुश्ती में चरखा दॉंव उनका प्रिय था. राजनीति में भी वे अपने अलग अलग दॉंव और बयानों से विरोधी खेमे को हमेशा चौंकाते रहे. 1999 में कांग्रेस के सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनाए जाने के प्रस्ताव का मुलायम सिंह ने ही पहले विरोध किया था. मुलायम ने उनके इटली मूल के होने का मुद्दा उठाकर मामले को नया रंग दे दिया था. जब सारा विपक्ष एक तरफ़ था तो 2002 में एनडीए उम्मीदवार अब्दुल कलाम का समर्थन कर उन्हें राष्ट्रपति बनवा दिया. 2008 में यूपीए के इंडो-यूएस सिविल न्यूक्लियर डील को समर्थन देकर उन्होंने लेफ्ट का साथ छोड़ा. इसका उन्हें हमेशा अफ़सोस रहा. यह काम उनसे अमर सिंह ने करवा दिया था. फिर 2012 में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर वे ममता के साथ थे, पर यकायक सबको चौंकाते हुए ममता से अलग होकर प्रणब मुखर्जी का समर्थन कर दिया.
नेता जी की नज़रों में समाजवाद सिर्फ विचार या सिद्धांत नहीं था, बल्कि एक आचरण था. उनका मानना था कि उसे जीवन में उतारकर ही समाज, देश, आदमी एवं उसकी समास्याओं को देखा जा सकता है. समाजवाद वही है, जो किसी पर अन्याय नहीं होने दे, बल्कि कमजोर के साथ खड़े होकर उसे मजबूत बनाए. सीधी और सपाट परिभाषा. शोषणमुक्त समाज के लिए संघर्ष करना ही समाजवाद है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के तमाम समस्याओं पर भी मुलायम सिंह अपने बेबाक विचार रखते थे. उनके भीतर एक बाल सुलभ भोलापन भी था जिसका बेजा इस्तेमाल कई लोगों ने किया. धरती से जुड़े इस नेता के न रहने से गॉंव, गरीब, किसान की राजनीति में एक ज़बर्दस्त ख़ालीपन होगा. डॉ लोहिया, चौधरी चरण सिंह की राजनैतिक विरासत का अंत होगा.
प्रणाम।