जिस पाकिस्तान में छिन गयी पहचान उसने ही दिया उड़न सिख का नाम
भारत के ‘उड़न सिख’ यानी फर्राटा धावक मिल्खा सिंह का शुक्रवार देर रात 11:30 बजे चंडीगढ़ में निधन हो गया. उन्होंने एक महीने तक कोरोना संक्रमण से जिंदगी रेस लगाई पर इस बार कोरोना उनसे आगे निकल गया. इससे पहले रविवार को उनकी 85 वर्षीया पत्नी और भारतीय वॉलीबॉल टीम की पूर्व कप्तान निर्मल कौर की भी मृत्यु कोरोना के चलते हो गयी थी . आइए आपको बताते हैं कैसे मिल्खा सिंह को मिला फ्लाइंग सिख का नाम.
विभाजन से जुड़ी है दास्तान
भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हैवानियत का नंगा नाच हुआ. दंगों में इंसानों की लाशें बिछ गयीं. इसकी चपेट में पाकिस्तान के पंजाब में मुजफ्फरगढ़ शहर से कुछ दूर पर बसा गोविंदपुरा भी आया. सिख बस्ती पर दंगाइयों ने हमला बोल दिया. जो सामने आया उसे तलवारों और छूरियों से काट डाला. बस्ती में रहने वाले 16 साल के नौजवान मिल्खा सिंह के सामने उसके मां-बाप, भाई बहन को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया. वो भागा और तब तक भागता रहा जब तक कत्लेआम से उठती चीखें उसे सुनायी देना बंद नहीं हो गयीं. पाकिस्तान में अपना परिवार और पहचान खो चुका मिल्खा भारत पहुंचा और यहीं से दुनिया के महान धावकों की सूची में शामिल हो गया. खेल की दुनिया में उसका कद इतना बड़ा हो गया कि जिस पाकिस्तान में उसका सबकुछ छिन गया उसी सरजमीं पर इसे उड़न सिख का खिताब मिला.
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कई नाकामी के बाद सेना में हुए शामिल
दिल्ली आने के बाद मिल्खा सिंह अपनी बड़ी बहन के पास रहे इसके बाद शरणार्थी शिविर में भी वक्त गुजारा. तीन बार रिजेक्ट होने के बाद वर्ष 1952 में सेना की विद्युत मैकेनिकल इंजीनियरिंग शाखा में शामिल होने में सफल हो गये. एक बार सशस्त्र बल के कोच हवलदार गुरुदेव सिंह ने उन्हें दौड़ के लिए प्रेरित किया. इसके बाद उन्होंने मेहतन शुरू की और बुलंदियों तक पहुंच गए. वर्ष 1956 में पटियाला में हुए राष्ट्रीय खेलों के समय से सुर्खियों में आये. वर्ष 1958 में कटक में हुए राष्ट्रीय खेलों में 200 और 400 मीटर के रिकॉर्ड बनाया. उनके स्पोटर्स करियर में सबका बड़ा दिन तब रहा जब 1960 के रोम ओलंपिक खेल में चौथा स्थान प्राप्त किया. वर्ष 1956 के मेलर्बोन ओलिंपिक खेलों में 200 और 400 मीटर में भारत का प्रतिनिधित्व किया.
उड़न सिख के सम्मान में खड़ी हुई पाकिस्तानी अवाम
वर्ष 1960 में पाकिस्तान में स्पोर्टस इवेंट का आयोजन हुआ. इसमें मिल्खा सिंह को भी बुलाया गया. रूह कंपा देने वाली पाकिस्तान की यादों की वजह से वो जाना नहीं चाहते थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के कहने पर गए. यहां उनका मुकाबला टोक्यो एशियाई खेलों की 100 मीटर रेस के स्वर्ण पदक विजेता अब्दुल बासित से होना था. 400 मीटर रेस के रोमांचक मुकाबले को देखने के लिए पूरा पाकिस्तान बेसब्र था. रेस शुरू हुई और मिल्खा सिंह ने उसे बड़ी ही आसानी से जीत लिया. स्टेडियम में मौजूद पाकिस्तान की अवाम ने खड़े होकर तालियां बजायीं. पोडियम पर मेडल पहनाने आए पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने तब मिल्खा सिंह से कहा कि ट्रैक पर आप दौड़े नहीं उड़ रहे थे. तब से ही उन्हें फ्लाइंग सिंह की उपाधि मिल गयी.
खेल से ही जुड़ा है परिवार
वर्ष 1958 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह को मिली सफलताओं के सम्मान में, उन्हें भारतीय सिपाही के पद से कनिष्ठ कमीशन अधिकारी पर पदोन्नत कर दिया गया. आगे बढ़ते हुए वह पंजाब शिक्षा मंत्रालय में खेल निदेशक बने और वर्ष 1998 में इस पद से सेवानिवृत्त हुए. उनका विवाह निर्मल कौर से हुआ है जो भारतीय महिला वॉलीबॉल टीम की पूर्व कप्तान थीं. उनके एकलौते बेटे जीव मिल्खा सिंह शीर्ष रैंकिंग के अंतर्राष्ट्रीय पेशेवर गोल्फर हैं. मिल्खा सिंह के खेलो में अतुल्य योगदान के लिये भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है. पंडित जवाहरलाल नेहरू मिल्खा सिंह के खेल को देखकर उनकी तारीफ करते थे.
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खेल का ऐसा रहा रिकार्ड
- गोल्ड मेडल-वर्ष 1958 के एशियाई खेलों की 200 मीटर रेस में
- गोल्ड मेडल-वर्ष 1958 के एशियाई खेलों की 400 मीटर रेस में
- गोल्ड मेडल-1958 के राष्ट्रमंडल खेलों की 440 गज रेस में
- गोल्ड मेडल-1962 के एशियाई खेलों की 400 मीटर रेस में
- गोल्ड मेडल-1962 के एशियाई खेलों की 4 गुणे 400 रिले रेस में
- सिल्वर मेडल 1964 के कलकत्ता राष्ट्रीय खेलों की 400 मीटर रेस में
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