प्रेरणा: जिन्होंने पढ़ाई के लिए त्याग दिया ससुराल
कहते हैं जिंदगी अपना रास्ता खुद ढूंढती है। एक टूटती है तो दूसरी राह दिखने लगती है। वाराणसी के सारनाथ, आशापुर में रहने वाली चंदा मौर्य ने कुछ ऐसा ही कर दिखाया है। चंदा ने वो कर दिखाया है जिनके एवज में कहना जरूरी है कि जिंदगी चलने का नाम है, इंसान को रास्ते खुद बनाने होंगे और उस पर चलकर मिसाल कायम करना होगा।
पढ़ाई का जुनून
चंदा को उनके घरवालों ने पढ़ने नहीं दिया और बचपन में उनकी शादी कर दी। वो ससुराल तो चली गईं लेकिन वहां भी उन्होंने ससुराल वालों से पढ़ाई की गुहार लगाई। ससुराल वालों ने भी उनकी गुजारिश को नजरअंदाज कर दिया। तब पढ़ाई को लेकर इस जिद्दी महिला ने आगे पढ़ने और उसे जारी रखने के लिए ससुराल को ही हमेशा के लिए त्याग दिया। आज चंदा संस्कृत और हिंदी से एमए पास है। सैकड़ों महिलाओं और लड़कियों को ना केवल पढ़ा रही है बल्कि उनको अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा रही है। चंदा आज दूसरी महिलाओं के लिए एक मिसाल हैं।
बचपन में हो गई शादी
चंदा जब 8वीं क्लास में थी तभी उनके माता-पिता ने 15 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी। जबकि चंदा उस समय शादी के खिलाफ थी, क्योंकि वो अभी पढ़ना चाहती थी। हालांकि चंदा के पिता की दलील थी कि अगर वो ज्यादा पढ़ लेगी तो उसका खर्चा कौन उठाएगा। यही वजह थी कि चंदा की बड़ी बहनों की भी पढ़ाई 5वीं क्लास के बाद छूट गई थी।
…जब छोड़ना पड़ा ससुराल
चंदा जब 21 साल की हुई तो उन्होंने जिद्द कर 9वीं कक्षा में प्रवेश ले लिया और फीस का इंतजाम करने के लिए उन्होंने अपने परिवार के खिलाफ जाकर दूसरी लड़कियों को सिलाई सिखाने लगी। साथ ही गांव की महिलाओं के कपड़े भी सिलने लगी। चंदा के ससुराल वालों को ये सब पसंद नहीं था। इसलिए उन्हें मजबूरन अपना ससुराल छोड़ना पड़ा और चंदा अपने मायके आकर रहने लगी।
पिता को भी झुकना पड़ा
पढ़ाई के लेकर चंदा की लगन और उसकी इच्छा के आगे उनके पिता को भी झुकना पड़ा और वो भी चंदा की पढ़ाई में मदद करने लगे। इस तरह चंदा अनुभव हासिल करने के लिए बच्चों को मुफ्त में पढ़ाने लगीं, साथ ही अपना खर्चा चलाने के लिए सिलाई सिखाने के साथ-साथ दूसरी महिलाओं के कपड़े सीलने का भी काम करने लगीं। करीब एक साल मायके में रहने के बाद चंदा ने पिता के घर से थोड़ी दूर किराए का एक मकान ले लिया।
पति का मिला सहारा
चंदा के पति को भी समझ में आ गया था कि चंदा के पढ़ने का फैसला सही है। इसलिए वो भी अपना घर छोड़ चंदा के साथ रहने के लिए आ गए। यहां भी चंदा ने पढ़ने और पढ़ाने का काम जारी रखा। उन्होंने करीब 11 सालों तक एक हाई स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का काम किया। इस स्कूल में वो पहली कक्षा से लेकर आठवीं क्लास तक के बच्चों को हिन्दी और गणित पढ़ाती थी।
MA की पढ़ाई पूरी
चंदा का गणित में बहुत अच्छी पकड़ थी। स्कूल के अलावा वे अपने गांव में छोटे बच्चों को निशुल्क में गणित, हिंदी और अंग्रेजी सिखाती थी, ताकि जब ये बच्चे स्कूल जायें तो उनको पढ़ाई में आसानी हो। इस तरह चंदा एक ओर पढ़ा रही थीं और दूसरी ओर अपनी पढ़ाई भी जारी रखे हुए थी। जिसके बाद उन्होंने साल 2009 में एमए की पढ़ाई पूरी की।
खोला खुद का बैंक
एमए की पढ़ाई पूरी करने के बाद चंदा ने ह्यूमन वेल्फेयर एसोसिएशन के सहयोग से गांव की महिलाओं को साथ लेकर सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाया। इसमें महिलाएं अपने ही समूह में पैसा इकट्ठा करती है और जब किसी महिला को पैसे की जरूरत होती है तो वो मामूली ब्याज पर पैसा ले सकती हैं। इस ग्रुप में हर महिला अपना योगदान करती है और इसके ब्याज के पैसों से जमा राशी में वृद्धि की जाती है।
हजारों महिलाओं की हैं प्रेरणा
इस तरह जब महिलाओं के समूह में करीब पांच लाख रूपये जमा हो गए तो उसी वक्त टाटा प्रेस ने एक योजना निकाली कि जिन समूहों में चार लाख से ज्यादा पैसा जमा हो गया है उस समूह की महिलाओं को शिक्षित किया जाएगा। जिससे कि वो बैंकों में पैसा जमा करने और निकालने जैसे काम खुद कर सकें। इसके लिए उन्होंने 20 अध्यापक रखे। तब चंदा ने अपने समूह की 50 महिलाओं को अपने सेंटर में पढ़ाने का काम किया। महिलाओं के शिक्षित होने का असर ये हुआ कि जो महिला कल तक घर की चौखट बिना घूघंट नहीं निकला करती थीं आज वो उनके लिए चलाई जा रही योजनाओं की बैठकों में भाग लेती हैं।
महिलाओं को बनाया आत्मनिर्भर
चंदा ने अपने काम की शुरूआत महिलाओं के लिए दो सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर की थी जिनकी संख्या आज बढ़कर 32 हो गई है। हर समूह में 20 तक महिलाएं होती हैं। इसके अलावा चंदा महिलाओं को बैंकों से भी लोन दिलवाने में मदद करती है। कई महिलाएं बैंकों से लोन लेकर पशु पालन कर दूध बेचती हैं। इस तरह चंदा की कोशिशों से आज ये महिलाएं आत्मनिर्भर बन कर अपने परिवार का खर्च चला रही हैं।