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जब लाशों का ढेर छोड़कर अपनी जान बचाने को भागे लोग

देश की नदियों में लाशें बह रही हैं. यह बेहद अफसोस जनक है कि महामारी ने कुछ एसा कहर बरपाया है कि इंसान का अंतिम संस्कार भी रीति-रिवाजों से नहीं हो पा रहा है. लेकिन मानव इतिहास में एसा पहली बार नहीं हुआ है. इससे पहले भी जब-जब महामारी ने अपना प्रकोप दिखाया तो भारत समेत दुनिया के हालात कुछ एसे हुए कि इंसान को सम्मानजनक मौत भी नसीब नहीं हो सकी.

जगह-जगह पड़ी रहती थीं लाशें

इंसानी इतिहास में प्लेग का प्रकोप काफी भयानक रहा. इसके कई प्रकार ने मौत का एसा तांडव किया कि कायनात भी सिहर उठी. सबसे खतरनाक रहा ब्यूबेनिक प्लेग, इसे ब्लैक डेथ के नाम से भी जानते हैं. इसका प्रकोप वर्ष 1346 से 1353 के बीच रहा. इस दौरान 20 करोड़ लोगों की मौत हो गई थी. कहा जाता है कि यूरोप के व्यापारियों के जहाज के सहारे कुछ काले चूहे भी इस बीमारी से ग्रसित हो कर आ गए और यह मध्य एशिया तक में फैल गए. इस के कारण यूरोप में कुल आबादी के 30–60% लोगों की मौत हो गई थी. इस बीमारी से इतनी तेजी से मौतें होती थीं कि लोग अंतिम संस्कार तक नहीं कर पाते थे. अपनी जान बचाने के लिए लाशों के ढेर छोड़ कर भागते थे और जहां जाते थे लाशों के ढेर लगा देते थे. बीमारी का आतंक इतना जबरदस्त था कि डाक्टरों ने घबरा कर मरीजों को देखना तक बंद कर दिया। पादरी अंतिम संस्कार में जाने से बचने लगे. इंसान ही नहीं गाय भैस, भेड़ बकरी, सुअर व मुर्गे तक इस रोग से प्रभावित हो गए व खाने की जबरदस्त कमी हो गई थी. लोग अपने बीमार लोगों को छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए भाग गए थे.

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शवों का रीति-रिवाज से नहीं हुआ अंतिम संस्कार

1918 से 1920 के बीच पूरी दुनिया में स्पैनिश फ़्लू फैल गया था. इसने दुनिया की एक-तिहाई आबादी को संक्रमित कर दिया था. महज पांच सालों में पांच करोड़ लोग इससे मारे जा चुके थे. इसे अक्सर ‘मदर ऑफ़ ऑल पैंडेमिक्स’ यानी सबसे बड़ी महामारी कहा जाता है. जिस वक्त यह बिमारी आयी उस वक्त दुनिया की आबादी 1.8 अरब थी. इस महामारी से मरने वालों की तादाद पहले विश्व युद्ध में मरने वालों की संख्या से ज्यादा थी. डॉक्टरों को पता चला स्पैनिश फ़्लू के पीछे माइक्रो-ऑर्गेनिज़्म है. यह बीमारी एक शख़्स से दूसरे शख़्स में फैल सकती है. स्पैनिश फ़्लू बेहद खतरनाक साबित हुऐ. इससे पहले 1889-90 में फैली महामारी से 10 लाख से ज्यादा लोग पूरी दुनिया में मारे गए थे, लेकिन इसका दायरा स्पैनिश फ़्लू जैसा नहीं था. स्पैनिश फ़्लू में मरने वालों में ज्यादातर 20 से 40 साल के युवा थे.
भारत में स्पैनिश फ़्लू से मरने वालों की तादाद आबादी की 5.2 फीसदी यानी करीब 1.7 करोड़ लोग थे. भारत में स्पेनिश फ़्लू 1918 मई में आया. भारतीय राष्ट्रवादियों के मुताबिक ब्रिटिश शासकों ने इस संकट के दौरान कुप्रबंधन का परिचय दिया है. 1919 में ‘यंग इंडिया’ के एक संस्करण में ब्रिटिश अधिकारियों की आलोचना की गई. यंग इंडिया का प्रकाशन महात्मा गांधी करते थे. स्पैनिश फ्लू से मरने वालों के शवों का रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार नहीं हो सका. मेडिकल हिस्टोरियन मार्क होनिग्सबॉम लिखते हैं कि ‘स्पैनिश फ़्लू महामारी से जूझने वाले डॉक्टरों और नर्सों की कब्रों पर उन्हें सम्मान नहीं दिया गया.’

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लाखों परिवार निगल गया हैजा

वर्ष 1817 से 1824 तक दुनिया के कई देशों खासतौर पर एशिया में हैजा का भीषण प्रकोप रहा. इसने कुछ सालों में ही लगभग 90 लाख लोगों की जान ले ली. विब्रियो कोलेरा (बैक्टीरिया का एक प्रकार) वैश्विक रूप से हैजा की महामारी का कारण बना. भारत में भी इसकी बड़ी संख्या में जनहानि की. थाईलैण्ड के बैंकाक में 30 हजार मौते हुईं थीं. जावा में अप्रैल 1821 में महज 11 दिन में 1225 लोगों की जान गयी. जबकि यहां कुल दस हजार लोग मरे थे. इसी साल ईराक के बसरा शहर में एक माह में 18000 हजार लोगों की मौतें हुईं. कोरिया में एक लाख लोग मरे. भारत में हैजा से मरने की वालों की संख्या लगभग 13 लाख थी. कोलकाता में खराब जल संचय प्रणाली ने इस शहर को भारत में हैजा की महामारी का केंद्र बना दिया था. इस वक्त भी शवों के अंतिम संस्कार की समस्या सामने आ खड़ी हुई थी. कई परिवार एसे थे जिनके सभी सदस्य को इस बीमारी ने लील लिया था. इस वक्त भी शवों को नदियों में बहाया गया या जमीन में गाड़ दिया गया.

कई और बीमारियों ने बरपाया कहर

1974 में भारत में चेचक ने भारत में काफी नुकसान पहुंचाया. विश्व में चेचक के 60% मामले भारत में रिपोर्ट किए गए थे और दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में अधिक विषैले थे.
इससे छुटकारे के लिए भारत में राष्ट्रीय चेचक उन्मूलन कार्यक्रम (NSEP) शुरू किया था. यह बहुत सफल नहीं हो सका. सोवियत संघ के साथ WHO ने भारत को कुछ चिकित्सा सहायता भेजी और मार्च 1977 में भारत चेचक से मुक्त हुआ था. 1968 में, फ्लू, इन्फ्लूएंजा ए वायरस के H3N2 स्ट्रेन के कारण हांगकांग में फैला और दो महीने के भीतर भारत पहुंच गया.

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