बिना पिता ‘अबला’ नहीं ये बेटियां..
ज्योति जब नौ साल की थी, तभी उसके पिता दिल का दौरा पड़ने से चल बसे। मां ने बड़ी जद्दोजहद से ज्योति और उसकी बहनों की परवरिश की। बचपन से किशोरावस्था और फिर यौवन की दहलीज पर पहुंचने तक इन बहनों का सफर पिता के बिना आसान नहीं रहा। लेकिन संघर्षो से जूझती हुई ज्योति आज अपने पैरों पर खड़ी है।
एक बारगी सोचकर देखिए कि बिना पिता के साए के जिंदगी कैसे होती होगी? एक स्कूली बच्ची के लिए वह दौर कितना भावनात्मक आलोड़न-विलोड़न भरा रहा होगा, जब वह हमउम्र बच्चों को उनके माता-पिता के साथ देखती होगी?
ज्योति कहती हैं, “मैं जब छोटी थी, तो यही सोचती थी कि काश मेरे भी पापा होते। समाज यही समझता है कि बेटियों की सही परवरिश तभी हो सकती है, जब उसके सिर पर पिता का हाथ हो। हां, मुझे अपने पिता की कमी हमेशा खलती है, लेकिन मेरी मां ने हमारी परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ी।”
ज्योति की दो छोटी बहनें और हैं, जिनकी जिम्मेदारी अब ज्योति पर ही है। वह समाज की मानसिकता पर कटाक्ष करते हुए कहती हैं, “समाज में ओछी सोच के लोगों की कमी नहीं है। लोगों को जब पता चलता है कि हम अकेली मां की तीन बेटियां हैं और घर में कोई मर्द नहीं है तो उनके चेहरे पर एक अलग भाव होता है। ऐसा भी कई बार हुआ है कि लड़के पीछा करते हैं और वे यकीनन सोच रहे होते होंगे कि ये तो अबला हैं, किससे शिकायत करेंगी। ऐसा लगता है कि हर कोई हमारा शोषण करने की ताक में बैठा है।”
ज्योति की मां कहती हैं, “बिना पति के सहारे के तीन बेटियों को पाल-पोसकर बड़ा करना किसी चुनौती से कम नहीं रहा। बहुत कुछ झेला है इनके लिए। अब सबसे बड़ी चिंता इनकी शादी की है।”
ज्योति 27 साल की है, इच्छा तो उसकी डॉक्टर बनने की थी, लेकिन पैसे की तंगी और परिवार की जिम्मेदारी ने उसे पैर पीछे खींचने को मजबूर कर दिया। दो छोटी बहनों को पढ़ाना और घर के खर्च में मां का हाथ बंटाना ज्योति की प्राथमिकता बन गई, जिसके आगे उन्हें अपना डॉक्टर बनने का सपना छोटा लगने लगा।
ज्योति ने पास के सिलाई कोचिंग सेंटर से सिलाई सीखी है और वह गांव के ही एक बुटिक में पांच हजार रुपये महीने के मेहनताने पर कपड़े सिलने का काम करती है। बुटिक की संचालिका मनीषा कहती हैं, “ज्योति की मां को मैं अच्छे से जानती हूं और यह भी कि उन्होंने बड़े दुख झेलकर इन लड़कियों को बड़ा किया है, मैंने यही सोचकर इसे सिलाई के काम के लिए रखा था, लेकिन इसके काम शुरू करने के बाद पता चला कि इसके हाथ में सफाई है, हुनर है और मेरे यहां जितनी भी लड़कियां काम करती हैं, उनमें ज्योति सबसे काबिल है।”
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यह सिर्फ ज्योति और उनकी बहनों की कहानी नहीं है, बल्कि हमारे देश में ऐसी असंख्य लड़कियां हैं, जो बिना पिता के साए के बड़ी हुईं और अपनी जिंदगी को कामयाब बना सकीं। इन्हीं में से एक हैं 12वीं में पढ़ने वाली दीक्षा सभरवाल।
दिल्ली के बुद्धविहार की रहने वाली दीक्षा अपने पिता को नहीं देख पाईं। वह कहती हैं, “बहुत छोटी थी, जब पिता का देहांत हुआ। मां बताती है कि ढाई साल की थी। पिता के प्यार से अछूती रही हूं और अक्सर सोचती हूं कि अगर वह होते तो आज जिंदगी और बेहतर होती।”
दीक्षा की मां कांति सभरवाल खुद एक अध्यापिका हैं और उन्होंने अपनी एकलौती संतान की अच्छी परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह कहती हैं, “बच्चे के जीवन में मां और पिता दोनों की अलग जगह होती है। दीक्षा जब छोटी थी, तो पूछती थी कि पापा कहां हैं। अब समझदार हो गई है। समय के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व में बदलाव आ रहा है और वह जिम्मेदार बन रही है।”
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कांति कहती हैं, “मैंने अपनी बेटी की इस तरीके से परवरिश की है कि वह खुद को असुरक्षित न समझे, क्योंकि मैंने अक्सर देखा है कि इस तरह की परिस्थति में बच्चे, विशेषकर लड़कियां खुद को काफी असुरक्षित और दबी-कुचली महसूस करती हैं और मैं नहीं चाहती थी कि दीक्षा भी ऐसा महसूस करे।”
बिना पिता के बच्चे क्या भावनात्मक रूप से कमजोर होते हैं? इस बारे में पूछे जाने पर एम्स के मनोविज्ञान विभाग की डॉक्टर प्रतिमा ठाकुर कहती हैं, “जिन बच्चों का बचपन बिना पिता के गुजरा है, वह भावनात्मक रूप से कमजोर नहीं, ज्यादा सशक्त होते हैं, क्योंकि उनके अंदर जिम्मेदारी का बोध होता है। वह अपने परिवार की जिम्मेदारी उठाना चाहते हैं। कई मायनों में ऐसी लड़कियां एक्सट्रा बोल्ड तक हो जाती हैं, जिसका मतलब यही है कि पिता नहीं हैं तो हमें कमजोर नहीं समझना।”
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