‘जातिगत जनगणना’ क्या है? इससे फायदा होगा या नुकसान! जानिए सब कुछ

भारत में पहली जनगणना गवर्नर-जनरल लॉर्ड मेयो के शासनकाल में वर्ष 1872 में की गई थी।

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देशों को उनकी आर्थिक स्थिति के आधार पर 2 श्रेणियों में बांटा गया है। विकसित देश और विकासशील देश। इन देशों का वर्गीकरण विभिन्न आर्थिक कारकों जैसे प्रति व्यक्ति आय, सकल घरेलू उत्पाद, जीवन स्तर, शिक्षा का स्तर, जीवन प्रत्याशा इत्यादि पर किया जाता है। विकासशील देश में रह रहे लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से जब मजबूत होते हैं तो वो देश विकास के पथ पर काफी तेजी से आगे बढ़ता है। देश का विकास, उन्नति को गति देने के लिए सरकार नई नीतियां और योजनाएं बनाती रहती है। लेकिन कई बार ये योजनाएं और नीतियां विफल भी साबित हो जाती हैं। योजनाओं की विफलता को लेकर कई लोगों का मत होता है कि सरकार के पास जनगणना के सही आंकड़े नहीं हैं या फिर जनगणना सही तरीके के नहीं की गई। भारत में किस जाति की आबादी कितनी है इसको लेकर जातीय जनगणना की मांग काफी पहले से उठती रही है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से जातिय जनगणना का मुद्दा सुर्ख़ियों में बना हुआ है। भारत देश के तमाम राज्यों, संगठनों ने केंद्र सरकार से जातिगत जनगणना की मांग उठाई है। ऐसे में आइये सिलसिलेवार ढंग से जानते हैं कि क्या है जातिगत जनगणना, इसके नुकसान और फायदे के बारे में….

जनगणना:

जनगणना वह प्रक्रिया है, जिसके तहत एक निश्चित समयांतराल पर किसी भी देश में एक निर्धारित सीमा में रह रहे लोगों की विधिवत रूप से सूचना एकत्रित की जाती है। इसमें लोंगो की संख्या, उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन से संबंधित आँकड़ों को एकत्रित करना शामिल है। यह एक निश्चित समयांतराल पर शासकीय आदेश के तहत की जाती है। भारत में प्रत्येक दस वर्ष की अवधि में जनगणना की जाती है।

देश में कब शुरू हुयी जनगणना:

भारत में पहली जनगणना गवर्नर-जनरल लॉर्ड मेयो के शासनकाल में वर्ष 1872 में की गई थी। हालांकि भारत की पहली संपूर्ण जनगणना 1881 में हुई थी। इसके बाद से हर दस साल पर जनगणना हो रही है। हालाँकि देश की पहली जनगणना प्रक्रिया देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग समय पर पूर्ण किया गया था।

जातिय आधारित जनगणना:

अंग्रेज़ों के समय में भारत में जातियों के हिसाब जनगणना की जाती थी। आखिरी बार 1931 में जाति जनगणना हुई थी। जनगणना की रिपोर्ट में हर जाति की संख्या और उसकी शैक्षणिक, आर्थिक हालात का लेखा जोखा होता था। 1941 में भी जनगणना जाति के आधार पर ही हुई थी, लेकिन उसके आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए। आजादी के बाद जनगणना का तरीका बदल दिया गया था। आजादी के बाद, तत्कालीन नेहरू सरकार ने फैसला किया था कि जनगणना में जाति की गिनती बंद कर दी जाए। जिसके बाद से जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया। ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

भारतीय प्राचीन साहित्य ‘ऋग्वेद’ में 800-600 ई०पू० में जनगणना का उल्लेख किया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (लगभग 321-296 ई०पू०) में कराधान के उद्देश्य से जनगणना को राज्य की नीति में शामिल करने पर जोर दिया गया है। मुगल काल में भी अकबर के शासन में जनगणना का उल्लेख मिलता है। अकबर शासनकाल के दौरान प्रशासनिक रिपोर्ट ‘आईन-ए-अकबरी’ में जनसंख्या, उद्योगों और समाज के अन्य विविध पहलुओं से संबंधित तमाम आँकड़ों को शामिल किया जाता था।

जनगणना अधिनियम, 1948:

जनगणना अधिनयम को वर्ष 1948 में लागू किया गया। इस अधिनियम के माध्यम से जनगणना अधिकारियों के उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया गया। इस अधिनियम के तहत देश के सभी नागरिकों को जनगणना में शामिल होना अनिवार्य हो गया। इसके साथ ही इसमें जनगणना में प्रश्नों का गलत जानकारी देने वाले नागरिकों पर दांडिक कार्रवाई का भी प्रावधान बनाया गया। जनगणना अधिनियम, 1948 का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान ये है की जनगणना के दौरान एकत्र की गयी प्रत्येक नागरिक की सभी जानकारी गोपनीय रखी जायेगी। किसी भी परिस्थिति में जानकारी को सरकारी या निजी संस्था के साथ साझा नहीं किया जाएगा। इस कार्य को करने वाला व्यक्ति सरकारी ड्यूटी पर माना जाता है।

जनगणना का महत्त्व:

कोई भी जनगणना सरकार को वह आंकड़े देती है, जिसके आधार पर विकास की नीतियां बनाने में मदद मिलती है। जनगणना के माध्यम से एकत्र किये गए आँकड़ों का प्रयोग शासन, प्रशासन, योजनाओं और नीतियों के निर्माण में किया जाता है। जनगणना के आँकड़ों के माध्यम से समाज के सबसे निचले तबके के लोगों को ध्यान में रखते हुए सरकारी योजनाओं को ज़मीनी स्तर तक पहुंचा कर उसकी सफलता को सुनिश्चित किया जाता है।

जातिगत जनगणना की ज़रूरत क्यों है?:

देश में राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग है, पिछड़ा वर्ग डेवलपमेंट फंड है, राज्यों में पिछड़ी जातियों के मंत्रालय हैं। लेकिन जातियों की सही जानकारी उपलब्ध नहीं है। जातियों की गिनती न होने से देश में विभिन्न जातियों के कितने लोग हैं, उनकी सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्थि्ति की सही और समुचित जानकारी नहीं मिल पाती है। जिस वजह से सरकार आवश्यकता अनुरूप नीतियां नहीं बना पाती है।

जातिगत जनगणना से नुकसान:

shrikant singh
डॉ श्रीकांत सिंह (MCU, भोपाल)

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्विद्यालय के प्रोफ़ेसर डॉ श्रीकांत सिंह का मानना है, ‘जातिगत जनगणना का एक नकारात्मक पहलू है। जातिय जनगणना से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा जिससे सामाजिक वैमनस्यता एवं संघर्ष बढ़ने की संभावना रहेगी। साथ ही देश की एकता-अखंडता भी प्रभावित होगी। जातिय जनगणना से जातियों व उपजातियों के बीच आरक्षण को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, जिससे नयी नयी समस्याएं पैदा होगी। जो कभी कभार आराजक भी हो सकती हैं। ’

सियासी समीकरण:

अभी जो भारत देश में राजनीति होती है, वो किसी ठोस आधार पर नहीं होती है। लेकिन यदि जातिय आधार पर जनगणना होती है और आंकड़े दर्ज हो जाएंगे तो देश एक बड़े राजनीतिक बदलाव का गवाह बन सकता है। तब देश की राजनीतिक परिस्थिति बदलने की संभावना भी बढ़ जायेगी। जिसकी जितनी संख्या ज्यादा होगी, उसकी उतनी हिस्सेदारी दी जाने लगेगी तो सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है। फिर सवाल ये है की उस स्थिति में कम संख्या वालों का क्या होगा?

 

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