विचार मंच : मुसलसल उघार हो गई सरकार
प्रदीप कुमार
मुझे तो याद है जहाँ तक समझता हूँ आप सब भी नहीं भूले होगें, जो लोग आज हुकूमत में हैं कभी विपक्ष में थे तब कानून व्यवस्था की बदहाली पर छाती कूटते नहीं थकते थे पर अब मानों उन्हें साँप सूंघ गया है। सोनभद्र के घोरावल में जो कुछ हुआ वो हमारे समूचे निजाम की बेहद बदसूरत शक्ल को उजागर कर रहा है।
सवाल है वहाँ इतना कुछ चल रहा था और हुकूमत तथा उसके कारकुनों को भनक तक नहीं थी? आखिर ऐसा क्यों? कौन है जिम्मेदार, किसकी है जवाबदेही? अगर समय रहते एहतियाती कदम उठाए जाते तो शायद इतनी जानों को बचाया जा सकता था।
जाहिर है कि पुलिस, प्रशासन और खासकर राजस्व महकमा या तो लम्बी ताने सोया था या सोने का नाटक किये हुए था, नहीं तो खुलेआम इतना बड़ा खूनखराबा हुआ कैसे। जमीन को लेकर रंजिश लंबे समय से चल रही थी, मुकदमेबाजी भी जारी थी ऐसे में किसी पल शान्ति भंग की आशंका को नजरंदाज क्यों किया गया।
सोनभद्र जिले के मूर्तिया ग्राम पंचायत में खूनी नरसंहार के पीछे सोसायटी की जमीन है। आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी उभ्भा के नाम पर करीब 600 बीघा जमीन है। इस सोसायटी का रजिस्ट्रेशन 1978 में ही समाप्त हो चुका था। चर्चा है कि 1955 में जब मिर्जापुर जिला था और राबर्ट्सगंज तहसील थी, तब यह जमीन आदर्श कोऑपरेटिव सोसायटी के नाम कर दी गई थी।
दरअसल आदिवासी बाहुल इस गांव में लोगों की जीविका का साधन सिर्फ खेती है। ये भूमिहीन आदिवासी सरकारी जमीन जोतकर अपना गुजर-बसर करते आए हैं। जिस जमीन के लिए यह संघर्ष हुआ उस पर इन आदिवासियों का 1947 के पहले से कब्ज़ा है। 1955 में बिहार के आईएएस प्रभात कुमार मिश्रा और तत्कालीन ग्राम प्रधान ने तहसीलदार के माध्यम से जमीन को आदर्श कोआपरेटिव सोसाइटी के नाम करा लिया।
चूंकि उस वक्त तहसीलदार के पास नामांतरण का अधिकार नहीं था, लिहाजा नाम नहीं चढ़ पाया। इसके बाद आईएएस ने 6 सितंबर, 1989 को अपनी पत्नी और बेटी के नाम जमीन करवा लिया। जबकि कानून यह है कि सोसाइटी की जमीन किसी व्यक्ति के नाम नहीं हो सकती। इसके बाद आईएएस ने जमीन का कुछ हिस्सा बेच दिया। इस विवादित जमीन को आरोपी यज्ञदत्त ने अपने रिश्तदारों के नाम करवा दिया। बावजूद इसके उस पर कब्ज़ा नहीं मिल सका।
इसके बाद बुधवार को करीब 200 की संख्या में हमलावारों के साथ आए ग्राम प्रधान ने यहां खून की होली खेली। भला इस पर कैसे यकीन किया जाए कि सैकड़ों लोग ट्रैक्टरों पर सवार होकर हथियार लहराते हुए पहुँचे और प्रशासन की नजर नही पड़ी। सच तो यह है सरकारी अमला आँख मूंदे रहा। दरअसल यह जल, जंगल और जमीन से आदिवासियों को बेदखल करने की जघन्य आपराधिक कारवाई है। इसकी जितनी निंदा की जाए कम है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)