Varanasi: काशी ने दिया था भारत को पहला जासूस, जिसने संभाला था देश की गुप्तचर एजेंसी RAW का दायित्व
वाराणसी में 10 मई 1918 को हुआ था रॉ के पहले निदेशक रामेश्वरनाथ काव का जन्म
Varanasi: काशी की धरती मंदिरों व तीर्थस्थलों तक सीमित नहीं है. महादेव की नगरी में कई ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया जिन्होंने आगे चलकर विभिन्न क्षेत्रों में देश का नाम रौशन किया. उनमें से ही एक थे देश की सुरक्षा को बेहद पुख्ता करने वाले रामेश्वर नाथ काव जिनका जन्म 10 मई 1918 को इसी शहर में हुआ था. जी हां, उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में जन्मे रॉ के पहले निदेशक रामेश्वषर नाथ काव को काशी में शायद ही अब लोग जानते हों लेकिन काशी के पुराने बसावट वाले क्षेत्र में ही उनका जन्म हुआ था. बनारसी रंग ढंग का जीवन भले ही उन्होंने शुरू किया हो लेकिन उनकी मेधा इतनी जबरदस्त थी कि मात्र 22 साल की उम्र में ब्रिटिश काल की भारतीय पुलिस सेवा की परीक्षा पास कर आईपी में सेवाएं शुरू कर दी थीं.
1968 में इंदिरा गांधी ने रखी थी नींव
देश की बाजादी के संग ब्रिटिश सेवाओं के युग की भी इतिश्री हो चुकी थी. राष्ट्र में आंतरिक और बाह्य सुरक्षा और खुफिया इनपुट को लेकर नए सिरे से रणनीति बननी शुरू हुई तो वर्ष 1948 में इंटेलिजेंस ब्यूरो का गठन हुआ और रामेश्व रनाथ काव को इस संस्था का सहायक निदेशक बनाने के साथ ही प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई. मगर सुरक्षा के साथ ही खुफिया सूत्रों को भी काफी पुख्ता करने पर उन्हों ने जोर दिया. भारत की सुरक्षा के लिए इंदिरा गांधी ने वर्ष 1968 में खुफिया सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) की बुनियाद रखी और रामेश्वर नाथ काव को इसके विस्तार के साथ ही देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई.
स्वतंत्रता के साथ ही चीन और पाकिस्तान की निगाहें भारतीय सरजमीं पर लगीं तो देश की सुरक्षा के लिए रॉ ने दायित्व कुछ इस तरह संभाला कि भारतीय खुफिया एजेंसी पड़ोसी देशों में खौफ का पर्याय बन गई. उनकी टीम में उच्च दक्षता के जासूस चयनित किए गए. उनके करीबी मानते हैं कि वह खुद की पहचान को लेकर सतर्क रहते थे और कभी भी अपनी फोटो और पहचान को लेकर लाइमलाइट से पूरी तरह से दूर रहते थे. उनकी पहचान कुछ ही करीबी और शासन के शीर्ष स्तर पर ही थी. उनकी रणनीति के कायल प्रधानमंत्री से लेकर पड़ोसी देश ही नहीं बल्कि विश्व के सभी विकसित व विकासशील देश भी थे.
काव ने दिया रॉ को वैश्विक स्वरूप
देश जब आजाद हुआ तो उस समय अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी यानी सीआईए और ब्रिटेन की एमआई सिक्स को बड़ी गुप्तचर एजेंसी माना जाता था. इसके बाद रॉ का गठन हुआ तो रामेश्वर नाथ काव ने भी इसे वैश्विक स्वरूप दिया. उनके जीवन पर कई किताबें लिखी गई हैं. उनमें काव को देश की इतनी महत्व पूर्ण जिम्मेदारी देने के पीछे काव की दुनिया के शीर्ष जासूसों में उनकी पहचान और पैठ होना एक बड़ी वजह माना गया. दूसरे देशों से संपर्क के साथ ही बेहतर तालमेल से वैश्विक साजिशों की भी पूर्व पड़ताल से उनकी वैश्विक धमक भी खूब रही.
चीन ने भी किया था सम्मानित
एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1955 में चीन सरकार ने एयर इंडिया का एक विमान लिया जो इंडोनेशिया में दुर्घटनाग्रस्ता हो गया था. दरअसल इसके पीछे ताइवान की खुफिया एजेंसी का हाथ था. इसमें चीन के प्रधानमंत्री चू एन लाइ को बाडुंग सम्मेालन में शामिल होने जाना था. लेकिन इस पूरी साजिश को काव ने ही उजागर किया था. इस हादसे में चीन के पीएम के अचानक यात्रा रद करने से कई चीनी अधिकारियों और पत्रकारों की मौत हुई थी.
इससे चीन के प्रधानमंत्री उनसे प्रभावित हुए और उन्होंने काव को अपने कार्यालय में बुलाकर सम्मानित किया था. पाकिस्तान में उनके सूत्र इतने तगड़े हुआ करते थे कि पाकिस्ताान की हर साजिश का कोड उनके सामने पहले आ जाता और उस कोड को डिकोड करके देश की सुरक्षा एजेंसियों को पहले ही अलर्ट कर देते थे. इसमें पाक द्वारा हवाई हमले की तैयारी को पहले ही जान लेने की वजह से पाकिस्तान को बुरी तरह से नुकसान झेलना पड़ा था.
Also Read: प्रज्वल रेवन्ना के खिलाफ शिकायत करने वाले बीजेपी नेता पर लगा यौन उत्पीड़न का आरोप…
सिक्किम को भारत में मिलाने में था योगदान
वहीं सिक्किम को भारत का 22वां राज्य बनाने में आरएन काव की बड़ी भूमिका थी. चीन की साजिशों के बीच सिक्किम के भारत में विलय ने काव की प्रतिभा का लोहा मनवाया. ख्याकत लेखक नितिन ए गोखले ने ‘आर एन काव: जेंटलमेन स्पाइमास्टर’ में इस पूरी घटना को विस्ताेर से दर्ज किया है. मगर एक समय वह भी आया जब काव को लेकर जांच भी की गई. वर्ष 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार की ओर से आरोप लगाया गया कि इमरजेंसी के दौरान लागू नीतियों में काव शामिल थे.
इसकी जांच के लिए चौधरी चरण सिंह के दामाद के नेतृत्वे में कमेटी का गठन भी हुआ और रिपोर्ट सामने आई तो उनकी कोई भी भूमिका सामने नहीं आई. इसके बाद से वह लंबी सेवा के बाद रिटायरमेंट लेने के बाद भी खोज और वैश्विक संबंधों को लेकर सक्रिय बने रहे. उनका निधन मुंबई में हुआ तो उनका अंतिम दर्शन करने के लिए लोगों का हुजूम टूट पड़ा था.