काशी ही पहचान है तुलसी मानस मंदिर, यहां से जुड़ी हैं बहुतों के बचपन की यादें

दुर्गा मंदिर के पास स्थित है यह एतिहासिक स्थल

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वाराणसी के दुर्गाकुंड स्थित दुर्गा मंदिर और उससे कुछ ही दूरी पर तुलसी मानस मंदिर के बारे में कौन नही जानता. पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता की आंधी में भले ही वर्तमान पीढ़ी की इस एतिहासिक धरोहर से कुछ दूरियां बढ़ी हों, लेकिन तुलसी मानस मंदिर आज भी बाहर से आये पर्यटकों व श्रद्धालुओं को बरबस अपनी ओर आकृष्ट करता है. न जाने कितने लोगों के बचपन की यादें इस तुलसी मानस मंदिर से जुड़ी हुई हैं. समय के साथ ही इस मंदिर की ऐतिहासिकता को शायद लोग भूलते जा रहे हैं, लेकिन यह मंदिर अब भी लोगों के बीच अपनी पहचान को बरकरार रखे हुए हैं. उधर से गुजरने वाले लोगों की निगाहें एक बार जरुर तुलसी मानस मंदिर को निहारती हैं. वैसे तो तुलसी मानस मंदिर में हमेशा लोगों की भीड़ रहती है, लेकिन सावन के महीने में यहां श्रद्धालुओं की भीड़ कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है. इस बार अधिक मास होने के कारण तुलसी मानस मंदिर का मेला दो माह का हो गया है. साथ ही सावन मास का झूलनोत्सव भी शुरू हो गया है.

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मंदिर में है राम,कृष्ण की लीलाओं की आकर्षक झांकियां

मंदिर में राम व कृष्ण की लीलाओं पर कई आकर्षक झांकियां हैं. इस बार भी सावन में पूर्वांचल, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, कोलकाता, छत्तीसगढ़ और आसपास के ग्रामीण इलाकों लोगों के यहां आने का सिलसिला जारी है. वहीं काशी का प्रसिद्ध दुर्गाजी का मेला कभी एक किमी के दायरे में लगता था. गुरूधाम और रवींद्रपुरी कालोनी चौराहे से लेकर संकटमोचन मंदिर तक विस्तार होता था. तब काफी जमीनें खाली थीं. घरे वृक्षों की हरियाली थी. खाली जमीनों पर भवन और बहुमंजिली इमारतें बनती गई. आधुनिकता के साथ बढ़ते मनोरंजन के साधन और मेला क्षेत्र का दायरा संकुचित हो जाने के चलते बड़े झूले व प्रदर्शनी की जगह छोटी-छोटी दुकानें व चर्खियां ही रह गई हैं. बावजूद इसके तुलसी मानस मंदिर का आकर्षण बना हुआ है. इस मंदिर का विशाल प्रांगण, चारों तरफ हरियाली, शांत वातावरण और मध्य रोशनी वाली सजावट श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचती है. सफेद धारीदार संगमरमर से बना यह यह विशाल मंदिर अपनी विशिष्ट वास्तुकला से अद्वितीय है.

कोलकाता के व्यापारी स्व. सेठ रतनलाल सुरेका ने कराया था निर्माण

इसका निर्माण कोलकाता के प्रसिद्ध व्यापारी स्व. सेठ रतनलाल सुरेका ने सेठ ठाकुरदास सुरेका चौरिटी फंड के तत्वावधान में करवाया था. बताते हैं कि स्व. सुरेका अपने दिवंगत माता-पिता की प्रेरणा से वाराणसी में सत्यनारायण भगवान का मंदिर बनवाने की तैयारी कर रहे थे. इसी दौरान इन्हें ज्ञात हुआ कि वाराणसी के गणमान्य नागरिक गोस्वामी तुलसीदास का स्मारक बनवाने के लिए चंदा जुटा रहे हैं. स्वः सुरेका ने यह भार भी खुद उठाने की बात की और भव्य मंदिर का निर्माण कराया, जिसका नाम श्री सत्यनारायण तुलसी मानस मंदिर रखा गया. मंदिर की आधारशिला सन 1960 में रखी गई. सन 1964 में इसका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया था. उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने अपने उद्बोधन में इसे भारतीय भावनाओं का प्रतीक बताया था. मंदिर प्रांगण और प्रथम तल पर राम और कृष्ण की लीलाओं से जुड़ी लगभग पचास झांकियां हैं.

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पारंपरिक गरिमा को बनाये रखने का होता है प्रयास

यहां झांकियों में बिजली से चलनेवाली मिट्टी और लकड़ी से बनी रंगीन कठपुतलियां दर्शकों को सम्मोहित करती हैं. इसमें हर बार कुछ नया भी जोड़ा जाता है. इसके साथ ही मंदिर के संचालक मधुसूदन सुरेका का प्रयास रहता है कि मंदिर की पारंपरिक गरिमा बनी रहे. तुलसी मानस मंदिर में प्रवेश करने पर भूतल में लक्ष्मी-सत्यनारायण भगवान, शिव-अन्नपूर्णा और लक्ष्मण, हनुमान सहित सीता-राम की मूर्तियां और प्रथम तल पर गोस्वामी तुलसीदास की प्रतिमा है. सभी मूर्तियां राजस्थानी शैली में सफेद संगमरमर से बनी हैं. मंदिर की दीवारों के संगमरकर की पत्थरों पर रामचरित मानस के काशिराज संस्करण का संपूर्ण पाठ उत्कीर्ण है. इस पाठ का संपादन हिंदी साहित्य के प्रमुख विद्वान आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने किया था. मानस का यह संस्करण अध्येताओं में सबसे प्रामाणिक माना जाता है.

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