उत्तर-दक्षिण के लेखन विचारों पर केंद्रित रहा काशी-तमिल संगमम 2.0 का पांचवां अकादमिक सत्र

0

गुरुवार को नमो घाट पर काशी-तमिल संगमम के दूसरे संस्करण का पांचवां अकादमिक सत्र आयोजित हुआ. “तमिल और हिंदी साहित्य के समावेशी एवं प्रगतिवादी विचार” पर काशी और तमिलनाडु के साहित्यकारों ने परिचर्चा की. तमिलनाडु से आए डेलीगेट्स से काफी चर्चा-परिचर्चा और सवाल-जवाब भी किए.

Also Read : विश्व के आधुनिक शहरों को चुनौती दे रही काशी

नमो घाट के अकादमिक मंच पर गुरुवार को काशी की सुप्रसिद्ध लेखिका डॉ. नीरजा माधव और तमिलनाडु से आए कलाईमंगल मैगजीन के संपादक किजांबुर एस. शंकरासुब्रमण्यन ने तमिलनाडु के 200 से ज्यादा लेखकों के डेलीगेट्स को संबोधित किया. एकेडमिक सत्रों का समन्वयन पीजे सौंदर्यराजन और धन्यवाद ज्ञापन शिक्षा मंत्रालय के ज्वाइंट सेक्रेटरी एसई रिजवी ने किया.

दक्षिण भारत से ही शुरू हुआ भक्तिकाल का साहित्य- किजांबुर एस. शंकरासुब्रमण्यन

संपादक किजांबुर एस. शंकरासुब्रमण्यन ने भक्ति काल के बारे में बताया. कहा कि भक्तिकाल का साहित्य दक्षिण भारत से ही शुरू हुआ था. उनके अलावा तमिल लेखकों ने तमिल कवियित्री ने अपनी कविता से नरेंद्र मोदी की दृष्टि को काफी बेहतर बताया. वाराणसी से चार कवि प्रो. अशोक सिंह, ओम धीरज, कविंद्र नारायण, हिमांशु उपाध्याय आदि ने अपनी विचार प्रस्तुत किए. तमिल लेखकों के डेलीगेट्स ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कराए जा रहे काशी-तमिल संगमम की खूब तारीफ की.

कार्यक्रम की मुख्य वक्ता डॉ. नीरजा माधव ने कहा कि भारत का प्राचीन साहित्य और आज तक प्राय: सभी लेखकों ने समावेशी साहित्य वो भी प्रोग्रसिव ही लिखा है. बीच में आजादी के बाद लेखकों के एक समूह को प्रगतिशील लेखक माना गया. लेकिन, आज का विषय उनसे संबंधित नहीं है. क्योंकि, वो जो तथाकथित प्रगतिशील संघ के लेखक थे. उनके साहित्य में अधिकतर भारतीयता, भारतीय मूल्य और भारतीय जीवन शैलियों का विरोध होता था। वे लेखक मार्क्सवाद के करीब होते थे.

डॉ. नीरजा माधव ने कहा कि सृष्टि के केंद्र में भी मनुष्य है और साहित्य के केंद्र में भी मनुष्य ही होता है. मनुष्य के कल्याण या विकास की बात ही साहित्य का उद्देश्य है कि किस तरह साहित्य की सहायता से मनुष्य जीवन को और बेहतर बनाया जा सकता है. ऐसे में हमारा जो प्राचीन साहित्य है, वो समावेशी साहित्य रहा है. जो शोषित, पीड़ित और वंचित रहे हैं उनका स्वर बनकर हमारा साहित्य बनकर उभरा है. साहित्य हमेशा उनका पक्ष लेता रहा है जो हाशिए पर धकेल दिए गए थे. जिनका दमन हो रहा था. साहित्य का अर्थ ही है समावेशी यानी कि सबको साथ लेकर चले। समावेश का अर्थ होता है कि हम समाज के किसी भी वर्ग को न छोड़े. सबको साथ लेकर चलें.

डॉ. नीरजा माधव ने तमिल डेलीगेट्स से कहा कि थर्ड जेंडर जो सदियों से उपेक्षित रहा है, उस पर साहित्य ने एक दृष्टि डाली. सबसे पहले 2002 में यमदीप पुस्तक के द्वारा साहित्य से उनको जोड़ा. उनको मुख्य धारा में शामिल करने की एक अपील की. हमने एक उपन्यास के माध्यम से उनके सुधार पर काम किया. धीरे-धीरे पूरे देश में एक विमर्श खड़ा हो गया. आज उनमें काफी बदलाव और सुधार हुआ है. वह अपने अधिकारों के लिए सजग भी हुए हैं. जो प्रोग्रेसिव साहित्य है, वो अपने समय के विसंगतियों को साथ लेकर चलता है. हमारी जो अंतरराष्ट्रीय सीमाएं हैं, जैसे चीन और भारत की सीमा पर जो टकराहट है, ये समस्या केवल उत्तराखंड और मध्य भारत की ही नहीं है. ये समस्या उतनी ही तमिलनाडु की भी है. क्योंकि भारत की सीमाओं को अक्षुण्ण रखना है तो साहित्य के माध्यम से जागरुकता आवश्यक है. साहित्य के माध्यम से यह भी बतानी चाहिए कि किस तरह से चीन की विस्तारवादी नीति ने तिब्बत जैसे देश को निगल लिया. अब उसकी दृष्टि अरुणाचल पर है. जनजागरुकता फैलाते रहें, अपने साहित्य के माध्यम से.

डॉ. नीरजा माधव ने कहा कि वर्ष में एक बार हो रहे इस तरह के संवाद कार्यक्रम को बार-बार करने की आवश्यकता है. तमिल के अलावा दक्षिण भारत की बाकी की भाषाओं को भी हिंदी के करीब लाया जाए. दक्षिण भारतीय भाषाओं के साहित्य को हिंदी में ट्रांसलेट किया जाए. इससे हिंदी में दक्षिण भारत की दूसरी भाषाओं का साहित्य और बेहतर होगा. हिंदी राजभाषा है और राष्ट्रभाषा बनने के क्रम में है. इस तरह से यदि अन्य भारतीय भाषाओं में जो कुछ लिखा जा रहा है या शामिल किया जा रहा है, उसको हिंदी के माध्यम से विश्व क्षितिज पर रख पाएंगे. हमारा साहित्य किस तरह से राष्ट्र चेतना के साथ विश्व चेतना पर पहुंचे.

Leave A Reply

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. AcceptRead More