रिश्तों की तुरपाई करता दर्ज़ी
हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से...
दर्ज़ी कभी हमारे समाज जीवन का जीवन्त हिस्सा होते थे,आज अचानक से ग़ायब हो गए हैं।उनकी जगह ले ली है डिजायनर्स ने। इन बड़े बड़े फ़ैशन और स्टाइल डिजायनर्स को आप दर्जी कह दें, तो मार पीट हो सकती है। आखिर ये दर्जी कहां से आए और कैसे हमारे समाज जीवन में किसी ज़रूरी जरूरत की तरह दाखिल हो गए इसकी कहानी रोचक है। ये लेख हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से. बता दें कि हेमंत शर्मा एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. फ़िलहाल में वो TV 9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर है….
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सृष्टि की शुरुआत में आदमजात नंगा था…
सृष्टि की शुरुआत में आदमजात नंगा था। फिर उसके शील और संकोच ने पेड़ों के पत्ते और छाल को अपना आवरण बनाया।कपास की खोज के बाद धागा और फिर कपड़ा बना। मनुष्य इसे ही पहनने और ओढ़ने लगा।अंग्रेज़ मानते हैं कि सिले हुए वस्त्रों का चलन भारत में मुसलमानों के आने के बाद हुआ।पर बुध्द के समय भी इसका उल्लेख मिलता है और वैदिक साहित्य में भी।
इस दर्ज़ीनामे की शुरूआत रामचंदर से।रामचंदर हमारे दर्ज़ी थे।घर के सामने ही रहते थे।बनारस की एक बड़ी टेलरिंग कम्पनी में कारीगर थे।हमारे कपड़ों की सिलाई तो उनकी ‘प्राईवेट प्रैक्टिस’ थी।यानी टैग कम्पनी का, धागा, बटन, बकरम और अस्तर( लाईनिंग )भी कम्पनी का और सिलाई आधी।यही रामचंदर से अपना ‘अरेंजमेंट’ था।रामचंदर दिन भर टेलरिंग कम्पनी में काम करते थे।शाम को आते वक़्त भी वहॉं से बचा हुआ काम लाते थे।फिर जब उससे समय बचता तब हमारे कपड़ों का नंबर आता।यानी अपने कपड़े सिलवाने के लिये उनके यहॉं डेरा जमाना पड़ता।वो कहावत है न, नाई,धोबी,दर्ज़ी…..तीनों बड़े अलगर्जी।
उस दौर में साल में दो बार ही हमारे कपड़े बनते थे।होली, दिवाली और हॉं बीच में अगर परिवार में किसी की शादी पड़ गयी तो वह मौक़ा बोनस था।इन त्यौहारों के दौरान रामचंदर पर काम का भारी दबाब होता।सो उनके यहॉ बैठ कर कपड़े सिलवाने पड़ते।रामचंदर के पिता जी‘आज’ अख़बार में कम्पोजिटर थे।उस वक्त लेड के अक्षरों से कॉम्पोजिंग होती थी।खबरे कम्पोज़ करते करते वे भी अपने को भारी राजनीतिज्ञ समझने लगे थे।और गाहे ब गाहे कोई मिल जाता तो उसे पूरा भाषण पेल देते।
कपड़ा सस्ता सिलवाना था सो भाषण तो सुनना ही पड़ता
हलॉंकि पूरे वक्त मूर्खतापूर्ण बहस करते।विचारों से कॉंग्रेसी थे।गॉंधी के असर से एक बकरी पाले थे जिसका दूध पीते थे।देश में इमरजेंसी लगी।तो पूरे इमरजेंसी भर अपने घर की खिड़की पर बैठ आज कौन नेता पकडायल, इन्दिरा जी ने क्या बहादुरी के काम किए….ये सब चिढ़ाने के अंदाज में बताते।क्योंकि पिताजी जेपी की संघर्ष वाहिनी के पदाधिकारी रहे थे।गोकी कपड़ा सस्ता सिलवाना था सो भाषण तो सुनना ही पड़ता।एक बार गजब हुआ।मेरे पिता जी को लोग शहर में मास्टर साहब कहते थे।उनके गुरू बेढब बनारसी (कृष्णदेव प्रसाद गौड़) उनसे पहले नगर में मास्टर साहब के नाम से जाने जाते थे।हमारा घर बेढबजी घर के पास ही था।बेढब जी के बाद अदब और तालीम के लोग पिता जी को मास्टर साहब कहने लगे।मुहल्ले में मेरे घर में ही फ़ोन था।जिसका नं 5574 अभी तक मुझे याद है।पड़ोसियों के अकसर फ़ोन आते तो मुझे ही उन सबको बुलाना पड़ता।
पडोस में एक जज साहब थे।सामने एक मुस्लिम परिवार रहता था।इन सबके फ़ोन मेरे घर आते थे।एक रोज़ एक फ़ोन आया। उधर से कोई मोहतरमा बोल रही थी।पूछा मास्टर साहब है।मैंने कहा बात करवाता हूँ और पिताश्री को बुला दिया।पिता जी ने फ़ोन पर कुछ सेकेण्ड ही बात की होगी और थोड़े ग़ुस्से में यह कहते हुए कि “आपने ग़लत नंबर मिला दिया है” फ़ोन पटक दिया।फिर मुझे डपटते हुए बोले कि अब आप मुझसे भी मज़ाक़ करने लगे है।मैं समझ नहीं पाया।और पीछे पीछे उनके अध्ययन कक्ष तक गया पूछा कि मेरी क्या गलती।“वो किसी टेलर मास्टर को पूछ रही थी।जो उनका ब्लाउज़ सिल रहे है।उन्हें उसमें कुछ बदलाव करवाना था।” मेरी हँसी फूटने को थी।पर रोकने में बड़ी मशक़्क़त करनी पड़ी।अब मेरा काम बढ़ गया था।पता करना था।आख़िर यह हुआ कैसे ? तहक़ीक़ात की तो पता चला श्रीमान रामचंदर ने अपना कोई विज़िटिंग कार्ड छपवाया था जिसमें उन्होंने मेरे घर का पीपी नंबर दे दिया था।उन दिनों पीपी नंबर देने का चलन था।यानी आप उस नंबर पर सम्बन्धित व्यक्ति को बुलवा सकते है।
मुझे लगा इस काण्ड से पिता जी नाराज़ होंगे।पर वे नाराज़ नहीं हुए क्यों कि उनके पैंट शर्ट भी रामचंदर ही सिलते थे।हॉं कोट और शेरवानी गॉंधी आश्रम के प्रबंधक हरिभाई अपने दर्ज़ी रियाज़ मियाँ से सिलवाते थे।वक्त बदला।पैंट की मोहरी चौड़ी होने लगी।ड्रेन पाईप को बेलबॉटम का धक्का लगा।अब हम बेलबॉटम युग में थे ।बदलती दुनिया में रामचंदर पुराने पड़ रहे थे।तो मेरे भाई साहब के आधुनिक टेलर रामकटोरा पर एक सरदार जी थे।वे मेरे अगले दर्ज़ी थे।थोड़े दिन में सरदार जी ने पहनावे में मेरा कायाकल्प कर दिया।तभी एक रोज प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी।देश भर में सिख विरोधी दंगे हुए।
जोड़ने और कपड़ों की तुरपाई के हुनर में माहिर सरदार जी भी दंगों की भेंट चढ़ गए
कुछ उपद्रवियों ने सरदार जी की दुकान जला दी।उसमें मेरे भी दो कपड़े जल गए।कुछ पता नहीं चला।उनकी दुकान खण्डहर में तब्दील थी और सरदार जी ग़ायब हो गए।कुछ दिन बाद मालूम चला कि सरदार जी का एक भाई दंगों में मार दिया गया और सरदार जी पंजाब लौट गए।मैं भी लौट कर फिर रामचंदर पर आ गया। पर यह सवाल अब भी सालता है कि सिलने ,जोड़ने और कपड़ों की तुरपाई के हुनर में माहिर सरदार जी भी दंगों की भेंट चढ़ गए।समाज ने अगर दर्ज़ी से यही कला सीख ली होती।तो आज हम टूटते रिश्तों की तुरपाई कर ध्वस्त होते समाजिक रिश्तों को बचा सकते थे।
अब तक रोजी रोटी की तलाश में मैं बनारस से लखनऊ रवाना हो चुका था।पर नाई,धोबी और दर्ज़ी बनारस वाले ही चल रहे थे।लखनऊ के चौक में स्व०लाल जी टण्डन (जो बाद में बिहार और मध्य प्रदेश के राज्यपाल भी बने) की चिकन के कपड़ों की दुकान थी।जब उधर जाता, वहॉं अपनी बैठकी लगती।आतित्थ में टंडन जी का कोई मुक़ाबला नहीं था।एक बार अच्छे दर्ज़ी की बात चली तो टण्डन जी ने ही हमें एक दर्ज़ी से मिलवाया।ये ख़ुर्शीद मिंया थे।मेडिकल कालेज चौराहे की चरक लैब के पीछे उनकी दुकान थी ‘हिन्दुस्तान टेलर’।शेरवानी,अंगरखा,अचकन,और सदरी बनाने में माहिर।कुर्ते सिलने में भी देश में उनका कोई जोड़ नहीं था।
पूरा कुर्ता हाथ से सिलते थे।1935 में यह दुकान उनके पिता तफ्जुल हुसैन ने खोली थी।उनके पितामह वाजिद अली शाह के ख़ानदानी दर्ज़ी थे।बड़े ही ज़हीन और नफ़ीस आदमी।उन्हीं से मुझे तेपची, मुर्री, बखिया, तुरपाई,कील की समझ बनी।अवधी सिलाई और चिकनकारी के ये प्रकार थे।ख़ुर्शीद को इस बात का मलाल है कि नई पीढ़ी अंगरखा के बारे में नहीं जानती।न कोई अंगरखा और शेरवानी सिलवाने आता है।अपनी दुकान में ख़ुर्शीद भाई अकेले मास्टर और बस दो कारीगर थे।ज़्यादा काम नही होता था।अवध की ध्वस्त हुई नबाबी परम्परा की कहानी सुनाती थी उनकी अस्त व्यस्त पुरानी दुकान थी।
’दर्जी’ का मूल फारसी का ‘darzan’ शब्द है जिसका अर्थ सीवन या ‘सुई’
जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी जी कुर्तो के शौक़ीन थे।एक बार उन्होंने मुझसे अच्छा कुर्ता सिलने वाला पूछा।मैं प्रभाष जी को उनकी दुकान पर ले गया।ख़ुर्शीद भाई प्रभाष जी के पाठक निकले।लम्बी बतकही के बाद नापजोख हुई।संपादक जी उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे।कुर्ता सिला तो प्रभाष जी ख़ुर्शीद मिंया की सिलाई पर भी आसक्त हो गए।उसके बाद यह सिलसिला रूका ही नहीं। एक साथ संपादकजी के दस बारह कुर्ते यहीं सिले जाते ।अगर ख़ुर्शीद मियाँ न मिलते तो प्रभाष जी टाई सूट न छोड़ते।उसके बाद संपादक जी ने पैंट शर्ट कभी पहना ही नहीं।जब प्रभाष जी स्वर्गवासी हुए, उस वक्त भी उनके कुछ कुर्ते ख़ुर्शीद भाई के पास सिलने के लिए पड़े हुए थे।मैं जब उन कुर्तों को लेने गया तो ख़ुर्शीद मियां ने कुर्तो की सिलाई लेने से इंकार कर दिया।संपादकजी के उन कुर्तो में से दो कुर्ते मैं आज भी पहनता हूँ।
ख़ुर्शीद मियाँ ने ही मुझे बताया था कि ‘सारे जहॉं से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा’ गाने वाले अल्लामा इक़बाल के वालिद भी दर्ज़ी थे। अमेरिका के राष्ट्रपति एण्ड्रू जानसन भी दर्ज़ी थे। खुर्शीद भाई की बातों ने दर्जी समाज की विरासत और इतिहास में मेरी दिलचस्पी को और भी गहरा किया। दर्ज़ी शब्द के पीछे एक इतिहास का एक विस्तृत अध्याय है।दर्ज़ी हमारे समाज में कपड़े सिलने वाला हिन्दू और मुसलमान दोनों का व्यावसायिक समुदाय है।भारत में यह शब्द फ़ारस से आया।दर्जी मूलतः फारसी का शब्द है।’दर्जी’ का मूल फारसी का ‘darzan’ शब्द है जिसका अर्थ सीवन या ‘सुई’ (sew) होता है। बाद में दर्ज़ी जाति हो गयी जो हिन्दू मुसलमान दोनों में पाई जाती थी। दर्जी की विरासत में वैदिक काल के अंश भी शामिल हैं।
वैदिक काल में कातने और बुनने की कला का ज्ञान था।अथर्ववेद के एक रूपक में दिन को ताना और रात को बाना कहा गया है।वैदिक साहित्य में बुनकर स्त्री के लिए वाईय और सीयो शब्द का इस्तेमाल हुआ है। बौद्ध काल में भी दर्जी के प्रमाण मिलते हैं। बुद्ध के पास भी कपड़ा सिलने वाला कोई था।बौद्ध साहित्य के महावग्ग के ‘कथिन उत्सव’ में सिलाई कला की तफ़सील से चर्चा है।इस उत्सव में भिक्षुओं के लिए सिल कर तैयार सूती कपड़ों के बॉंटने का ज़िक्र है।इसलिए अंग्रेजों का यह दावा की मुसलमानों के साथ सिलाई भारत आयी, सही नहीं है। हॉं मुसलमानों के साथ कढ़ाई,जरी, जरदोजी ज़रूर आई। बौध्द साहित्य में तो सुई,कैंची,प्रतिग्रह ( सुई से उँगली की रक्षा करने वाला उपकरण) का भी उल्लेख है।
यही ‘टेलर’ कब ‘डिजाइनर’ में तब्दील हो गए, पता ही नही चला
भारत इस कला के मामले में दुनिया को राह दिखाता आया है। विश्व इतिहास में कपास का इस्तेमाल पहले पहल भारत में ही हुआ। 2500 ईसा पूर्व से पहले से ही मनुष्य प्रजाति का एक तबका वस्त्र निर्माण और उसकी डिजाइन बनाने के काम में लगा था।बाद में भारत में वैदिक और उत्तरवैदिक काल में जाति व्यवस्था बनी।मध्यकालीन इतिहास के भी कई प्रतिष्ठित अध्याय दर्ज़ियों के नाम हैं।हमारा भक्ति आन्दोलन कपड़ा बुनने और सिलने वालों के हाथ ही रहा।कबीर कपड़ा बुनते थे।संत नामदेव और संत पीपा दर्ज़ी थे।शायद इसीलिए भक्त कवियों ने समाज के ताने बाने को ठीक करने की पहल की।दर्जी समुदाय के लोग संत पीपा जी को आपना आराध्य देव मानते हैं। बाड़मेर ज़िले के समदड़ी कस्बे में संत पीपा का एक विशाल मंदिर है, जहाँ हर साल मेला लगता है।तब तक सिलाई का काम हाथ से ही होता था।तब सिलने की कला महंगी और समयसाध्य थी इसलिए आम आदमी की पहुँच से यह बाहर थी।
समय ने बहुत कुछ बदला।अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटेन में सिलाई मशीन का अविष्कार होते ही सिलाई आसान हो कर आम आदमी तक पहुंच गयी लेकिन दर्ज़ी टेलर बन गए। यही ‘टेलर’ कब ‘डिजाइनर’ में तब्दील हो गए, पता ही नही चला। समय की इस तेज़ उड़ान में दर्ज़ी कहीं गुम हो गए।मगर उनकी कारीगरी की छाप आज भी कायम है।अब सिले हुए कपड़ों की डिजाइनें नई हैं।फैशन नया है।कशीदाकारी नई है।मगर इन सिले हुए कपड़ों में वो बात नहीं है जो रामचंदर और ख़ुर्शीद भाई के कपड़ों में हुआ करती थी।क्यों कि तब कपड़े की सिलाई में रिश्तों के धागे हुआ करते थे।अब अर्थ ही अर्थ बाक़ी सब व्यर्थ।
रेखांकन -माधव जोशी
हेमंत शर्मा देश के ख्यातिलब्ध पत्रकार और न्यूज चैनल TV9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर है।
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