कहे घाघ सुन घाघनी …
घाघ के जन्म स्थान के बावत लोगों में अनेकों कयास हैं. कुछ लोग उनका पैतृक निवास कन्नौज मानते हैं, जबकि पंडित राम निवास त्रिपाठी के अनुसार घाघ बिहार के छपरा के रहने वाले थे. पंडित राम निवास त्रिपाठी की यह उक्ति ज्यादा सटीक जान पड़ती है, क्योंकि घाघ की कहावतें भोजपुरी भाषा में हैं. छपरा की भाषा भी भोजपुरी है. घाघ की कहावतों की कुछ बानगी देखिए, जिनसे घाघ की मातृ भाषा भोजपुरी थी, यह पता चलता है…
नाटा खोटा बेचि के चार धुरंधर लेहु,
आपन काम निकारि के औरन मंगनि देहु.
करिया बादर जिव डेरवाये,
भूरा बादर पानी लावे.
उत्तम खेती मध्यम बान,
निषिद्ध चाकरी भीखि निदान.
गोबर,मैला,नीम की खली,
या से खेती दूनी फली
सावन मास बहे पुरवईया,
बछवा बेचु लेहु धेनु गइया.
हथिया पोंछि डोलावे,
घर बईठल गेहूं पावे.
घाघ का जन्म साल कोई 1693 तो कोई 1753 बताता है. ज्यादातर विद्वान 1753 को ही घाघ का जन्म साल मानते हैं. पंडित राम नरेश त्रिपाठी भी 1753 को हीं घाघ का जन्म साल मानते हैं. रामनरेश त्रिपाठी ने शोध कर घाघ का नाम देवकुली दूबे पता किया है. देवकुली दूबे “घाघ ” उपनाम से अपनी कहावतें कहा करते थे. घाघ की पत्नी का नाम पता नहीं चल पाया है. घाघ ने अक्सर अपनी पत्नी को घाघनी नाम से हीं पुकारा है – “कहे घाघ सुन घाघनी …”
घाघ की कृषि सम्बंधी कहावतें इतनी सटीक हुआ करती थीं कि दूर दूर से लोग उनसे कृषि सम्बंधी सलाह लेने आया करते थे . उनकी प्रसिद्धि सुन बादशाह अकबर शाह द्वितीय ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया. कन्नौज में जागीर देकर उनका सम्मान किया. घाघ ने एक गांव ही कन्नौज में बसा दिया था.चूंकि जागीर अकबर शाह ने दी थी, इसलिए गांव का नाम अकबर व घाघ दोनों के नाम पर रखा गया – “अकबराबाद सराय घाघ “. आज भी इस गांव का नाम सराय घाघ है.
देवकुली दुबे (घाघ ) के दो पुत्र थे – मार्कण्डेय दूबे और धीरधर दूबे.आज इस गांव में घाघ की सातवीं/आठवीं पीढ़ी निवास कर रही है.एक घाघ से इस गांव में अब 25 परिवार दूबे लोगों का हो गया है. इनकी भाषा भोजपुरी न होकर कन्नौजिया हो गयी है. ये लोग दान नहीं लेते. यजमानी नहीं करते. घाघ अपने धार्मिक विश्वासों के कट्टर समर्थक थे. इसलिए उनकी मुगल शासकों से कभी नहीं बनी. घाघ की ज्यादातर जागीर बाद में जब्त कर ली गयी थी. घाघ की अपनी एक बहू से भी कभी नहीं बनी. वह उनकी कहावतों के उलट लिखा करती थी .
घाघ ( देव कुली दूबे ) की कुंडली में लिखा था कि उनकी मृत्यु पानी में डूबने से होगी. इसलिए वे नदी में नहाने से बचते थे. एक बार वे अत्यंत आवश्यक होने पर नदी में नहाने गये. डुबकी लगाते समय उनकी चुटिया जरांठ में फंस गयी. जुरांठ नदी में गाड़े हुए बांस को कहते हैं. उन्हें बाहर निकाला गया. उनकी सांस रुक रही थी. मरते मरते घाघ ने एक दोहा कहा था –
जानत रहलS घाघ निर्बुद्धि ,
आइल काल विनासे बुद्धि.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
(लेखक एसडी ओझा के फेसबुक वाल से। वे समय समय पर बेहद जोरदार ढंग से विभिन्न विषयों पर लिखते रहते हैं)