अलगाववादियों को परे रख कश्मीर में सुधार की कितनी संभावना?
केंद्र सरकार ने जम्मू एवं कश्मीर के मौजूदा हालात में सुधार के लिए राजनीतिक बातचीत करने की बात की है, लेकिन उनका कहना है कि वे सिर्फ कश्मीर की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से ही वार्ता करेंगे, अलगाववादियों से नहीं। अब सवाल उठता है कि क्या अलगाववादियों को वार्ता से परे रख कश्मीर में स्थिति को पटरी पर लाया जा सकता है?
कश्मीर के संदर्भ में पिछले अनुभवों को देखते हुए कहा जा सकता है कि ऐसी दशा में कश्मीर में मौजूदा राजनीतिक गतिरोध की स्थिति आगे भी बनी रह सकती है। केंद्र सरकार ने शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि वे उन लोगों से बात नहीं करेंगे, जो कश्मीर को भारत से अलग करने की बात करते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के कश्मीर बार एसोसिएशन द्वारा दायर एक याचिका को भी खारिज कर दिया, जिसमें केंद्र सरकार पर आरोप लगाया गया है कि वह कश्मीर के हालात में सुधार के लिए नाममात्र का प्रयास कर रही है। शीर्ष अदालत ने कश्मीर बार एसोसिएशन से अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए कश्मीर के हालात में सुधार से संबंधित सुझाव देने के लिए कहा।
राज्य में मुख्य विपक्षी दल नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) ने भी अलगाववादियों से बात न करने के केंद्र सरकार के फैसले की आलोचना की है। पार्टी की ओर से जारी वक्तव्य में कहा गया है कि राज्य में सत्तारूढ़ पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की गठबंधन सरकार के एजेंडा में यह फैसला आखिरी कील है।
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उल्लेखनीय है कि पीडीपी और भाजपा के बीच गठबंधन एजेंडा पर हुए समझौते में कहा गया है कि कश्मीर में स्थायी रूप से शांति स्थापित करने के लिए सभी पक्षों से बात की जाएगी।
केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में बीते गुरुवार को राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली में कश्मीर की सुरक्षा और विकास की समीक्षा के लिए हुई उच्चस्तरीय बैठक में कश्मीर के लिए 80,000 करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की घोषणा की गई, जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी। बैठक में यह भी कहा गया कि इनमें से 19,000 करोड़ रुपये पहले ही कश्मीर को दिए जा चुके हैं।
बैठक के दौरान कश्मीर में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की नियुक्ति, विद्यार्थियों द्वारा किए जा रहे विरोध-प्रदर्शनों पर नियंत्रण, आतंकवाद पर रोकथाम और कश्मीर के बदतर होते हालात के लिए जिम्मेदार अन्य मुद्दों पर चर्चा हुई। जब भी कश्मीर में हालात खराब होते हैं तो वार्ता और सुलह की बातें तेज हो जाती हैं।
कश्मीर में 2010 के दौरान जब हालात बेहद अस्थिर चल रहे थे, तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली एनसी-कांग्रेस की गठबंधन सरकार ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर से दो बार सर्वदलीय बैठक की थी। उस दौरान अस्थिरता और हिंसा के चलते कश्मीर में 120 के करीब नागरिकों की मौत हुई थी।
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पिछले वर्ष जुलाई में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर कश्मीर वासी बुरहान वानी की सुरक्षा बलों के हाथों हुई मौत के बाद फिर से उसी तरह की अस्थिरता ने कश्मीर में पांव पसार लिए हैं। तब से कश्मीर में हिंसक विरोध-प्रदर्शनों के चलते 94 नागरिक मारे जा चुके हैं।
कई राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेताओं ने हालात में सुधार के लिए समाधान खोजने की कोशिशों के तहत कश्मीर का दौरा किया। सबसे अधिक विवाद इस बात को लेकर रहा कि अलगाववादियों से बातचीत का हमेशा स्वागत है, लेकिन अब तक एक हद तक यह ज्यादा फायदेमंद नहीं रहा है।
एनसी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा, “समस्या कश्मीर के दूसरे राजनीतिक ध्रुव की ओर से है। अलगाववादियों का दावा है कि हाल ही में श्रीनगर संसदीय उप-चुनाव में मतदाताओं का न निकलना उनकी जीत है। श्रीनगर उप-चुनाव हिंसा से भी प्रभावित रही, लेकिन मतदान में हिस्सा न लेने के पीछे मूल वजह स्थानीय लोगों के भीतर पनपा गुस्सा है।”
पीडीपी के अंदर ऐसी दलीलें दी गईं कि सभी पक्षों के साथ बातचीत करने से मना करने से क्षेत्र में उनका राजनीतिक दायरा घटेगा। पीडीपी नेता ने कहा, “जो अलगाव नहीं चाहते, उन्हीं से बातचीत करना वार्तालाप नहीं, बल्कि एकालाप होगा। इस तरह की बातचीत से सभी मुद्दों का हल कैसे निकलेगा, क्योंकि यह कोई सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या भर तो है नहीं।”
इसी हफ्ते दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर आईं मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने यहां पत्रकारों से कहा कि जब तक अलगाववादियों से बातचीत नहीं होती कश्मीर की स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा। मुफ्ती ने बातचीत के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सिद्धांत ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ को बातचीत में लागू करने की बात भी कही।
इस बीच पीडीपी ने अनंतनाग संसदीय सीट पर 25 मई को होने वाला उप-चुनाव और आगे खिसकाने का अनुरोध किया है। निर्वाचन आयोग ने अनंतनाग उप-चुनाव शांतपूर्ण तरीके से संपन्न करवाने के लिए गृह मंत्रालय से 74,000 अर्धसैनिक सुरक्षा बलों की मांग की है। कश्मीर में बीते दिनों घटी इन घटनाओं ने मुख्यमंत्री महबूबा को अवांछनीय बना दिया है।
एनसी के एक अन्य नेता का कहना है, “पीडीपी जम्मू एवं कश्मीर की राजनीति में एनसी के विकल्प के रूप में उभरी। लेकिन आज न सिर्फ पीडीपी का बल्कि सभी मुख्यधारा की पार्टियों का दायरा सिकुड़ा है।”
वह कहते हैं कि पीडीपी के पुलवामा जिलाध्यक्ष अब्दुल गनी दार की आतंकवादियों के हाथों हुई हत्या की निंदा पार्टी ग्रीष्मकालीन राजधानी जम्मू में बैठकर करती है, लेकिन पुलवामा में पार्टी का कोई भी नेता इसकी निंदा नहीं करता। क्या यह कश्मीर के भविष्य का शुभ संकेत देता है?