MP Govt Crisis: कांग्रेस नेतृत्व पर हावी जड़ता और अवसाद

क्षेत्रीय स्तर पर भारी गुटबाजी है, नेता दिशाहीन हैं लेकिन आलाकमान को इससे कोई मतलब नहीं

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मध्य प्रदेश(MP Govt Crisis) के घटनाक्रम से एक बार फिर साफ हुआ कि कांग्रेस गहरे अंदरूनी संकट से गुजर रही है। पार्टी का जनाधार सिकुड़ रहा है। नेताओं में महत्वाकांक्षा की टकराहट है। क्षेत्रीय स्तर पर भारी गुटबाजी है, अंतर्कलह है। लेकिन पार्टी आलाकमान यह सब चुपचाप देखते रहने को मजबूर है। पार्टी में जब भी टूट होती है, कांग्रेसी इसके लिए बीजेपी को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं लेकिन सचाई यह है कि इसके लिए पार्टी नेतृत्व ही जवाबदेह है। क्या एमपी(MP Govt Crisis) की टूट को बचाया नहीं जा सकता था/ केंद्रीय नेतृत्व यदि सक्षम होता तो कमलनाथ, दिग्विजय और ज्योतिरादित्य को साथ बिठाता, फिर जो भी शिकायतें हैं उन्हें दूर करता। कमलनाथ को अगर सोनिया गांधी यह आदेश देतीं कि ज्योतिरादित्य से मिलकर काम करना है तो नौबत यहां तक आती ही नहीं।

MP Govt Crisis: सत्ता के बावजूद

गुजरात में राज्यसभा चुनाव के पहले चार विधायक इस्तीफा दे चुके हैं। अपने विधायकों को भागने से बचाने के लिए 37 विधायकों को जयपुर भेजना पड़ा। मध्य प्रदेश के विधायकों को भी जयपुर ही भेजा गया। गुजरात में 2018 से ही पार्टी बिखर रही है। जिले-जिले से लोग पार्टी छोड़ रहे हैं। लगता ही नहीं कि पार्टी की रक्षा करने वाला कोई है। अल्पेश ठाकोर तक को पार्टी छोड़नी पड़ी। बिहार में जैसे-जैसे असेंबली चुनाव नजदीक आ रहा है, विधायक दल के बिखर जाने की आशंका गहरा रही है। जेडीयू नेता और कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी ने दावा किया कि बिहार कांग्रेस में बड़ी टूट हो सकती है क्योंकि नेताओं को अपनी जीत की फिक्र सताने लगी है, तो प्रदेश अध्यक्ष ने इसका खंडन किया। कई कांग्रेसी दबे-छुपे कह रहे हैं कि जब आरजेडी ने एक राज्यसभा सीट तक देने की विनती स्वीकार नहीं की और केंद्रीय नेतृत्व चुप्पी साधे हुए है तो हम ऐसी पार्टी में क्यों रहें।

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वैसे भी बिहार कांग्रेस विधायक दल के कई नेता नीतीश कुमार की सार्वजनिक रूप से तारीफ कर चुके हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया के विद्रोह से बिहार के असंतुष्ट कांग्रेसी नेताओं का हौसला बढ़ा है। वे पार्टी छोड़ने की घोषणा कर सकते हैं, बशर्ते दूसरी पार्टी उन्हें लेने को तैयार हो। 2015 के चुनाव में नीतीश कुमार ने कांग्रेस की अपेक्षाओं से ज्यादा 40 सीटें लड़ने के लिए पार्टी को दे दीं थीं। जेडीयू और आरजेडी दोनों ने अपने-अपने लोगों को कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़वाया था। जाहिर है, उनकी निष्ठा कांग्रेस के प्रति हो नहीं सकती। महाराष्ट्र में सरकार का हिस्सा होने के बावजूद प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ असंतोष खुलकर प्रकट हो रहा है। प्रदेश से नेता दिल्ली यह शिकायत लेकर आ रहे हैं कि प्रदेश अध्यक्ष ने शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सामने पार्टी को समर्पित कर दिया है। अच्छे मंत्रालय न मिलने को लेकर असंतोष पहले ही व्यक्त किया जा चुका है।

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पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह मजबूत नेता हैं, अन्यथा वहां प्रताप सिंह बाजवा ने उनकी कुर्सी हिला दी होती। नवजोत सिंह सिद्धू सरकार से तो छोड़िए, पार्टी की मुख्यधारा से ही बाहर हैं। हरियाणा में यदि दीपेन्दर सिंह हुड्डा को राज्यसभा का टिकट नहीं दिया जाता तो संभव है, भूपेंद्र सिंह हुड्डा वहां विद्रोह कर देते। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच की खींचतान तथा सरकार और पार्टी के बीच तीखा विभाजन बढ़ रहा है। कोई इसे रोकने वाला नहीं। कर्नाटक में असंतोष परवान चढ़ रहा था। पार्टी कभी भी टूटने की स्थिति में थी। न तो पहले केंद्रीय नेतृत्व इसे रोकने में सफल हुआ और न आज वह कुछ कर पाने की स्थिति में दिख रहा है। इसलिए आनन-फानन में डी. के. शिवकुमार को अध्यक्ष बना दिया गया है। वास्तव में शायद ही ऐसा कोई राज्य हो जहां कांग्रेस असंतोष और विद्रोह की शिकार न हो। और ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि बीजेपी या कोई अन्य पार्टी सेंध लगा रही है।

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दरअसल 2019 लोकसभा चुनावों में पराजय के बाद व्यवहार में कांग्रेस का कोई केंद्रीय नेतृत्व है ही नहीं। नेताओं को पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई चेहरा नहीं दिख रहा जो उनके राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित कर सके। यानी जिसके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग कांग्रेस से जुड़ें और वोट दें। लोगों को जोड़ने और जोड़े रखने के लिए तीन चीजों की सर्वप्रमुख भूमिका होती है- विचारधारा, नेता और कार्यक्रम। तीनों स्तरों पर पार्टी अस्पष्टता और दिशाभ्रम से ग्रस्त है। राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद नए अध्यक्ष के चयन में विफल पार्टी पर कब्जा जमाए चौकड़ी ने सोनिया गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर रास्ता निकाला। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य पहले की तरह सक्रिय होने की इजाजत नहीं देता, यह तो ठीक है किंतु पार्टी की चुनावी दुर्दशा से लेकर संगठनात्मक क्षरण तक पर वह मंथन और बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर सकतीं थी। ऐसा न करने का अर्थ ही है कि उनके पास स्वयं संकट के कारणों को लेकर साफ समझ का अभाव है। • भरोसे की कमी

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जब कारण की समझ न हो तो उससे उबरने के रास्ते भी दिखाई नहीं देंगे। विचार और नेतृत्व, दोनों स्तरों पर कोई पार्टी जर्जर हो जाए तो फिर उसे बचाना कठिन हो जाता है। राहुल गांधी कहते हैं कि हमारे और बीजेपी के बीच विचारधारा की लड़ाई है तो उनकी पार्टी के लोग ही सवाल उठाते हैं कि हमारी विचारधारा है क्या/ जहां तक नेतृत्व का प्रश्न है तो एक बार उसकी चमक खोने या उससे जनता के मोहभंग होने के बाद दोबारा उसे उसकी पुरानी हैसियत में लाना आसान नहीं होता। सोनिया, राहुल और प्रियंका तीनों मिलकर भी वैसे शक्तिशाली नेतृत्व का संदेश देने में विफल हैं, जो पार्टी को बचाए रखे और सरकार को कड़ी चुनौती भी दे सके। इसलिए कांग्रेस की दशा में सुधार या उसके बेहतर भविष्य की उम्मीद फिलहाल नहीं दिखती। भारत जैसे विविधता वाले देश में कभी धुरी जैसी भूमिका निभाने वाली इस पार्टी का यूं मुरझाना चिंता का विषय है।

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