1971 की जीत के नायक सैम मानेक शॉ ने इंदिरा गांधी को कहा था- स्वीटी, हंस पड़ी थी पीएम

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1971 वह साल है, जब भारत-पाकिस्तान युद्ध में हिंदुस्तान की आत्मा तक जख्मी हो गई थी। साल 1971 का नाम आते ही सैम मानेक शॉ का नाम जुबां पर खुद ही चला आता है। भारत-पाकिस्तान के युद्ध में सैम मानेक शॉ का योगदान कभी नहीं भूल सकता। आज भी इस महान आत्मा द्वारा किए गए उस योगदान के लिए देश कृतज्ञ है और रहेगा। सैम मानेक शॉ भारतीय सेना के प्रथम फील्ड मार्शल और भूतपूर्व सेनाध्यक्ष थे। इन्हीं के नेतृत्व में भारत ने 1971 का युद्ध जीता था। आज सैम मानेक शॉ की पुण्यितिथि है। आज देश फिर से उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें नमन कर रहा है।

सैम मानेक शॉ ने दिलाई थी 1971 में जीत

देश के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ का जन्म आज ही के दिन यानी 3 अप्रैल 1914 को हुआ था। सैम मानेक शॉ भारतीय सेना के प्रमुख थे और भूतपूर्व सेनाध्यक्ष भी थे। उनके नेतृत्व में ही भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध 1971 की लड़ाई में विजय पताका फहराई थी। इस युद्ध की जीत के परिणाम के रूप में ही बांग्लादेश का जन्म हुआ था।

कुशल सैन्य कमांडर थे सैम मानेक शॉ

भारतीय सेना के लिए सैम मानेक शॉ अपने अदम्य साहस और कुशल युद्ध नीति के लिए जाने जाते थे। गोल्डन सिग्नेचर सैम मानेक शॉ भारतीय सेना के इतिहास में सबसे कुशल सैन्य कमांडर थे। सैम मैनशॉ भारत के पहले ‘फील्ड मार्शल’ थे।

सैम को मिला था पद्म भूषण-पद्म विभूषण 

सैम मानेक शॉ को पद्म भूषण व पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। यह सम्मान शॉ को उनकी वीरता और साहस को देखते हुए भारतीय सेना में उनके किए गए योगदान के लिए दिया गया था। 1971 में पाकिस्तान को करारी हार दिलाकर भारत को विजयी बनाने का पूरा श्रेय भारतीय फील्ड मार्शल सैम मैनशॉ को ही जाता है। पाकिस्तान की ये हार इतनी  बड़ी थी कि आज भी उस युद्ध का जिक्र होते ही पाकिस्तान को तीखी मिर्च लगती है।

अमृतसर में हुआ था सैम का जन्म

भारतीय सेना के नायक सैम मैनशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर के एक पारसी परिवार में हुआ था। सैम के जन्म के बाद उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आ गया। जिसके बाद सैम मैन्शॉ ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में की और बाद में उन्होंने नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में प्रवेश लिया।

विद्रोही स्वभाव के थे सैम मानेक शॉ

सैम के पिता एक डॉक्टर थे और सैम खुद भी डॉक्टर बनना चाहते थे। इसलिए सैम मानेक शॉ चिकित्सा का अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे। लेकिन उनके पिता ने उन्हें इंग्लैंड भेजने से इंकार कर दिया था। इसलिए सैम अपने पिता से नाराज हो गये थे। यहीं से सैम मानेक शॉ ने विद्रोही रवैया अपना लिया और भारतीय सेना में भर्ती हो गए थे। सैम के रौद्र व्यवहार का फायदा हमेशा भारतीय सेना को मिला।

पाक पर हमला करने से किया था इंकार

सैम मानेक शॉ भारतीय सैन्य अकादमी के पहले बैच के लिए चुने गए 40 छात्रों में से एक थे। इसके बाद उन्हें कमीशन मिला और वे भारतीय सेना में शामिल हो गये। 1969 में सैम मैनकशॉ को सेना प्रमुख बनाया गया। 1971 में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चाहती थीं कि भारत अप्रैल महीने में ही पूर्वी पाकिस्तान पर हमला कर दें। लेकिन उस वक्त सैम मानेक शॉ ने हमला करने से इनकार कर दिया था। सैम ने तब पूर्व पीएम इंदिरा गांधी को समझाया था कि अभी हमला करने से युद्ध हारने का खतरा हो सकता है। सैम ने पाकिस्तान से युद्ध  करने के लिए समय मांगा था और सेना को तैयार करना शुरू कर दिया था।

1973 में सैम हुए थे सेवानिवृत्त

इस तरह 1971 का युद्ध अप्रैल माह की जगह दिसंबर में लड़ा गया था। सैम मानेक शॉ की सटीक युद्ध नीति के चलते ही भारत को यह जीत हासिल हुई थी। युद्ध ख़त्म होने के बाद सैम मानेक शॉ ने पाकिस्तान के 90 हज़ार सैनिकों को बंदी बना लिया था। 15 जनवरी 1973 को सेना प्रमुख के पद से सेवानिवृत्त हुए। साल 1973 में सैम मानेक शॉ को फील्ड मार्शल के सम्मान से सम्मानित किया गया था।

सैम ने इंदिरा गांधी को कहा था- स्वीटी

सैम मानेक शॉ अपनी शरारतों और चुटकुलों के लिए भी सेना के बीच काफी प्रसिद्ध थे। सैम मानेक शॉ एक निडर व्यक्ति थे। वह भारत के एक ऐसे सेना प्रमुख थे, जो तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी की बात को काटने से भी नहीं डरते थे। उन्होंने एक बार तो पीएम इंदिरा गांधी को स्वीटी भी कह दिया था। इसपर इंदिरा गांधी ने भी हंसकर मुस्कुरा दिया था।

गुलामी के समय अंग्रेजों के लिए लड़ा था युद्ध

जब देश द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों का गुलाम हो गया था। इस दौरान भारतीय सैनिकों को ना चाहते हुए ब्रिटिश सेना के पक्ष में लड़ना पड़ा था। तब तब सैम मानेक शॉ को भी बर्मा में जापानी सेना के विरुद्ध युद्ध लड़ना पड़ा था। इस दौरान पहली बार 17वें इन्फैंट्री डिवीजन में तैनात सैम मानेक शॉ को युद्ध का पहला स्वाद चखने को मिला था। सैम जापानियों से लड़ते हुए सेतांग नदी के तट पर गंभीर रूप से घायल हो गए थे। सैम मानेक शॉ के शरीर में 7 गोलियां लगी थीं और उनके बचने की संभावना लगभग कम थी। ऐसा कहा जाता है कि ऑपरेशन के दौरान जब एक सर्जन ने सैम मानेक शॉ से पूछा ‘तुम्हें क्या हुआ’ तो उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया ‘मुझे एक खूनी खच्चर ने लात मार दी थी!’

देश के विभाजन के बाद भी लड़ी थी लड़ाई

जापान से युद्ध के दौरान सैम मानेक शॉ ने मौत को भी चकमा दे दिया था।  एक बार फिर वह जापानियों से आमने-सामने लड़ने के लिए जनरल स्लिम्स की 14वीं सेना की 12 फ्रंटियर राइफल फोर्स में लेफ्टिनेंट के रूप में बर्मा के जंगलों में पहुंच गए। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, सैम मानेक शॉ को एक कर्मचारी अधिकारी बनाया गया था। फिर उन्हें जापानियों के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए इंडो-चीन भेजा गया था। वहां सैम ने लगभग 10,000 युद्धबंदियों के पुनर्वास में योगदान दिया था। इसके साथ ही सैम मानेक शॉ ने 1947-48 में देश के विभाजन के बाद कश्मीर की लड़ाई में भी अहम भूमिका निभाई थी।

 

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