कभी करती थी मजदूरी …आज है सब इंस्पेक्टर
भगवान ने हथेली से पहले अंगुलियां दी ताकि इंसान अपनी मेहनत के बल पर अपनी किस्मत बदल सकता है। महाराष्ट्र के नासिक की पद्मशिला ने भी अपने हौंसलों से अपने न सिर्फ अपने हाथों की लकीरों को बल्कि अपनी किस्मत को ही बदल कर रख दिया है। पत्थरों को काट कर सिल को तराशने वाली पद्मशिला ने अपने भाग्य को ही तराश डाला। 24 साल की पद्मशिला घर घर जाकर शिल बेचने का काम करती थी। आज वो मेहनत और जूनुन से सब इंस्पेक्टर बन चुकी है।
शिला तोड़ सिल-बट्टे बनाती और बेचने निकल पड़ती
बात वर्ष 2017 की नासिक के पथ पर शिला तोड़ संघर्ष करने वाली पद्मशिला तिरपुडे 23-24 की उम्र। गोद में बच्चा। सिर पर टोकरी। टोकरी में वजनदार सिल-बट्टे। जीवन की तमतमाती दोपहर। झुलसाती लू। रुई सी जलती भू। प्राय: यूं ही दोपहर होती। पद्मशिला शिला तोड़ सिल-बट्टे बनाती और बेचने निकल पड़ती। तपती सड़कों पर दर-दर भटकती। घर-घर दस्तक देती।
मजदूर पति की मजबूरी बच्चों की बेबसी न बनने पाए
गोद में सिमटा बच्चा रो उठता, तो आंचल की ओट कर दूध पिलाती। सिल-बट्टे बिक जाते तो ठीक, न बिकते तो दिहाड़ी करती। ताकि मजदूर पति की मजबूरी बच्चों की बेबसी न बनने पाए। पत्थरों को तोड़ती पद्मशिला ने दरअसल हर उस मजबूरी को तोड़ा, जो इंसानी हौसले को पस्त कर डालती है। यही शिक्षा की शक्ति है पद्मशिला के पास आसमानी हौसले और गजब की संकल्पशक्ति के अलावा यदि कुछ और था, तो वह था शिक्षाधन। शिलारूपी चुनौतियों को उसने शिक्षारूपी हथौड़े से चूर-चूर कर दिखाया।
उसके बच्चों को पत्थर नहीं तोड़ने पड़ेंगे
आज वह महाराष्ट्र पुलिस में सब-इंस्पेक्टर है। पति को आर्थिक सहयोग और अपने दोनों बच्चों की बेहतर परवरिश कर पाने में पूरी तरह सक्षम। इसी सक्षमता को हासिल करने का उसका महासंकल्प था। जिसे उसने पूर्ण किया। उसके इस महासंकल्प का सुपरिणाम पीढ़ियों तक प्रवाहित होगा। यदि वह इसमें असफल होती तो क्या होता? उसके बच्चों को पत्थर नहीं तोड़ने पड़ेंगे, अब यह पूर्ण सुनिश्चित हो चुका है। पद्मशिला की कहानी आज के सामाजिक-आर्थिक दौर में, गरीबी उन्मूलन, जनसंख्या नियोजन और नारी सशक्तीकरण के केंद्र में शिक्षा की व्यावहारिक भूमिका को निरूपित करती है।
जब पद्मशिला करीब महज 17-18 साल की थी
महाराष्ट्र के भंडारा जिले के एक गरीब ग्रामीण परिवार की बिटिया है पद्मशिला रमेश तिरपुडे। पिता गरीब थे, लेकिन बिटिया को पढ़ने-लिखने से कभी रोका नहीं। हालांकि स्कूली शिक्षा पूरी करते ही उसका ब्याह कर चिंतामुक्त हो गए। आज से 11 साल पहले, जब पद्मशिला करीब महज 17-18 साल की थी, पास के ही वाकेश्वर गांव में रहने वाले तुकाराम खोब्रागडे के बेटे पवन से उनकी शादी हुई। ससुराल की माली हालत पतली थी। पवन अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे।
दुधमुंहे को गोद में थाम दिहाड़ी को निकल पड़तीं…
कुछ समय में परिवार भी बढ़ गया। पद्मशिला दो बच्चों की मां बन गई। परिवार ने रोजी-रोटी के लिए नासिक शहर का रुख किया। पवन ईंट भट्टे में काम करने लगे। दिहाड़ी के रूप में 50 रुपये कमा लाते थे। दो बच्चे, वृद्ध सास-ससुर भी साथ थे। गुजारा कठिन हो चला था। पद्मशिला को दोहरी जिम्मेदारी उठानी पड़ी। बड़े बच्चे को घर पर छोड़ और दुधमुंहे को गोद में थाम दिहाड़ी को निकल पड़तीं। लाखों गरीब परिवारों की तरह ही पद्मशिला इसे ही नियति मान लेतीं, लेकिन उनका शिक्षित मन इसके लिए कतई तैयार न था। एक पढ़ी-लिखी मां अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने को संकल्पित हो उठी।
प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में स्नातक पूरा किया
पद्मशिला ने बताया कि पति को मिले दिहाड़ी के 50 रुपये एक दिन मुझसे खो गए। दूसरे क्या खाएंगे, इसी चिंता में रात बीती। लेकिन वह रात मुझे एक मकसद दे गई। मुझे पता था कि शिक्षा के बूते ही कुछ बेहतर हो सकता था। तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद मैंने अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। पति को समझाया, तो उन्होंने भी हामी भर दी। दिन में मजदूरी और रात में पढ़ाई। पुरानी किताबें जुटाईं। प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में स्नातक पूरा किया।
पढ़ी-लिखी न होती तो शायद यह न कर पाती
स्नातक के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी शुरू कर दी। समय बीता और फैसले का दिन आया। महाराष्ट्र पुलिस अकादमी की प्रतियोगी परीक्षा में पद्मशिला ने बाजी मार ली। आज वह अमरावती रेंज में बतौर सब-इंस्पेक्टर पदस्थ हैं। अमरावती से फोन पर बात करते हुए उन्होंने कहा, मैं उन परिस्थितियों में जो कर सकती थी, वही मैंने किया। पढ़ी-लिखी न होती तो शायद यह न कर पाती। जीवन कुछ और होता। लेकिन अब मेरे बच्चों का भविष्य सुरक्षित है। इस बात की खुशी है। पद्मशिला ने कहा, सर, मैं मशहूर होना नहीं चाहती। इससे कहीं मेरे काम पर असर न पड़े।
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