CEO की नौकरी छोड़ संवार रहे हैं फुटपाथी बच्चों को जिंदगी

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देश में ऐसे बच्चों की तादाद काफी है, जिनके पास रहने को घर नहीं है। जो फुटपाथ पर ही अपना जीवन बस करने को मजबूर हैं। हम अक्सर ऐसे बच्चों को अपने आस-पास बस स्टॉप, रेलवे स्टेशन या फिर किसी रेस्टोरेंट के बाहर देखते हैं। रोटी कपड़े के लिए दर-दर भटकते ये बच्चे अक्सर शोषण का शिकार होते हैं। ऐसे ही गरीब और ज़रूरतमंद बच्चों की मदद करने, उन्हें पढ़ा-लिखाकर अच्छे काम करने लायक बंनाने के मकसद से एक शख्स ने जो योजना बनाई वो आज देश-भर में सरकारों के लिए भी आदर्श बनी हुई है।

कई गैर-सरकारी संगठन भी इसी योजना के ज़रिये गरीब बच्चों को शिक्षा देकर उन्हें काबिल बना रहे हैं। ये एक ऐसी योजना है, जिसमें बच्चों को खेल-खेल में ही शिक्षा दी जाती है। यानी मनोरंजन और शिक्षा साथ-साथ।

मैथ्यू स्पेसी

इस योजना को देशभर में अमल में लाने के मकसद से इसके योजनाकार ने बड़ी ही मोटी और तगड़ी रकम वाली अपनी नौकरी छोड़ दी और गरीब बच्चों के सर्वांगिण विकास में समर्पित हो गए। हम जिस शख्स की बात कर रहे हैं, उनका नाम है मैथ्यू स्पेसी। आज वो अपने इसी कार्यक्रम की वजह से दुनिया-भर में जाने जाने लगे हैं और अपने नाम कई सम्मान और पुरस्कार हासिल कर चुके हैं।

1986 में पहली बार आए भारत

मैथ्यू स्पेसी 1986 में पहली बार भारत आये थे। कोलकाता में उन्होंने ‘दि सिस्टर्स ऑफ़ चैरिटी’ के लिए बतौर स्वयंसेवी काम किया। तभी से उनका मन समाज-सेवा में लग गया था। ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैथ्यू को नौकरी मिल गयी। उन्होंने यूनाइटेड किंगडम में कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया। उनकी प्रतिभा और दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए उनकी कंपनी ने उन्हें भारत भेजा। वो कॉक्स एंड किंग्स नाम की कंपनी के मुख्य कार्य अधिकारी यांनी सीइओ बनकर भारत आये। उस समय मैथ्यू की उम्र महज़ 29 साल थी। यानी वे एक युवा और जोश से भरे अधिकारी थे। उन दिनों ब्रिटिश कंपनी कॉक्स एंड किंग्स भारत में भी सबसे बड़ी ट्रैवल एजेंसी थी। युवा अवस्था में ही मैथ्यू को बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी , जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।

रग्बी खेलने के दौरान आया बदलाव

मैथ्यू की ज़िन्दगी में एक बहुत बड़ा बदलाव उस समय आया, जब वो भारत की रग्बी टीम के लिए खेला करते थे। मैथ्यू को खेल में बेहद दिलचस्पी थी और रग्बी उनका पसंदीदा खेल था। दिलचस्पी इतनी ज्यादा थी कि मैथ्यू ने अपने कौशल के बल पर रग्बी की नेशनल टीम में जगह बना ली। मैथ्यू अन्य खिलाडियों के साथ मुंबई के मशहूर फैशन स्ट्रीट के सामने वाले मैदान में प्रैक्टिस किया करते थे।

खिलाड़ियों को देखने के लिए बच्चे जमा हो जाते थे

प्रैक्टिस कर रहे खिलाड़ियों का खेल देखने के लिए आसपास के बच्चे वहां जमा हो जाते। इन बच्चों में ज्यादातर बच्चे फुटपाथी बच्चे होते, जिनके रहने को कोई स्थाई ठिकाना या पक्का घर नहीं होता। इनकी ज़िन्दगी फुटपाथों पर ही गुजरती। ये फुटपाथी बच्चे हर दिन रग्बी टीम की प्रैक्टिस देखने आते। उन्हें खिलाड़ियों का खेल देखने में बहुत मज़ा आता। ये बच्चे अक्सर खिलाड़ियों की हौसलाअफ़ज़ाही करते। कुछ तालियां बजाते तो कुछ सीटियां। बच्चों का जोश देखकर खिलाड़ियों का भी उत्साह बढ़ता। मैथ्यू भी इन बच्चों के उत्साह से अछूते नहीं थे।

खेल में बच्चों को शामिल करने लगे मैथ्यू

बच्चों का जोश देखकर मैथ्यू उन्हें अपने साथ खेलने के लिए बुलाने लगे। धीरे-धीरे बच्चे भी अब रग्बी खेलने लगे थे। बच्चों को रग्बी खेलने में बहुत मज़ा आने लगा था। वो समय पर मैदान आ जाते और खूब रग्बी खेलते। बच्चे मैथ्यू को बहुत पसंद करने लगे । वजह साफ़ थी- मैथ्यू ने बच्चों को रग्बी खेलने का मौका दिया दिया था। वो अब सिर्फ दर्शक नहीं रह गए थे , वो भी खिलाड़ी बन गए थे। सडकों और फुटपाथों पर ज़िन्दगी गुज़र-बसर करने वालों को हंसने-खेलने का इस सुनहरा मौका मिला था।

बच्चों में अब अनुशासन था

इसी सबके बीच मैथ्यू ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण और दिलचस्प बात गौर की। मैथ्यू ने देखा कि रग्बी खेलने की शुरुआत करने के बाद बच्चों के बर्ताव में एक सकारात्मक परिवर्तन आया था। बच्चों में अब अनुशासन था। बच्चे अब एक दूसरे से अच्छी तरह बर्ताव कर रहे थे। पहले आपस में बहुत गाली-गलौच होती थी। बर्ताव भी अजीब-सा और एक किस्म से गन्दा था। लेकिन, धीरे-धीरेखेल के मैदान में खेलते-खेलते वो बदलते जा रहे थे। वो नेशनल टीम के खिलाड़ियों से बहुत कुछ अच्छा सीख चुके थे। इस बदलाव ने मैथ्यू के मन में एक क्रांतिकारी विचार को जन्म दिया।

क्रांतिकारी विचार का हुआ जन्म

मैथ्यू ने सप्ताह के अंत में छुट्टियों के दिन एक बस किराये पर लेना शुरू। इस बस में वे बहुत सारे खिलौने, मिठाईयां और दूसरे ऐसे सामान लेते जो बच्चों को बहुत पसंद आते। इस बस को लेकर मैथ्यू धारावी और दूसरी झुग्गी बस्तियों में जाते और बच्चों में ये सामन बांटते। मैथ्यू कुछ गरीब और फुटपाथी बच्चों को अपनी बस में पिकनिक पर भी ले जाते। बच्चे भी पिकनिक का खूब मज़ा लेते।

फुटपाथी बच्चों के हीरो बन गए

एक वक्त की रोटी, अच्छे कपड़ों, खिलौनों के लिए तरसते बच्चों के लिए मैथ्यू की बस का बेसब्री से इंतज़ार रहता। इस बस-सेवा की वजह से मैथ्यू गरीब और फुटपाथी बच्चों के हीरो बन गए थे। यही बस आगे चलकर “मैजिक बस” नाम के बड़े महत्वपूर्ण कार्यक्रम का आधार बनी।

मैथ्यू के मने में आया नया विचार

कुछ दिनों के बाद मैथ्यू वो ये एहसास हुआ कि हफ्ते में जब वो बस लेकर बच्चों के बीच जाते हैं, तभी बच्चे खुश रहते हैं। बाकी सारे दिन उनकी ज़िन्दगी एक-सी होती है। रोटी के लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ता है। रात में सोने के लिए उनके पास कोई घर या मकान नहीं होता। खेलने के लिए खिलौने नहीं होते। गुज़र-बसर सड़क या फूटपाथ पर ही करनी पड़ती है। कई बार तो ये बच्चे शरारती तत्वों और बदमाशों के हाथों शोषण का शिकार भी होते हैं।

बच्चों को दिलवाई नौकरियां

सो मैथ्यू ने ठान ली की कुछ ऐसा किया जाय जिससे इन बच्चों की समस्या का स्थाई समाधान निकले। ये बच्चे भी पढ़-लिखकर आगे बढ़ें। अच्छी नौकरी करें, अच्छे घर में रहें। अलग-अलग कॉर्पोरेट कंपनियों में अपने दोस्तों की मदद से मैथ्यू ने फूटपाथ और झुग्गी बस्तियों में रहने वाले कुछ बच्चों को इन कंपनियों के दफ्तरों में नौकरियां दिलवाई, लेकिन, इन बच्चों में अनुशासन , शिष्टाचार और कार्य-कौशल की कमी की वजह से वो ज्यादा दिन तक इन कंपनियों में नहीं टिक पाये।

पढ़ाई लिखाई के लिए लिया खेल कूद का सहारा

इस कटु अनुभव ने मैथ्यू को एक नया पाठ पढ़ाया। मैथ्यू ने अब नए सिरे से फुटपाथ और झुग्गी बस्तियों में रहने वाले बच्चों के विकास और उत्थान के लिए काम करने की ठान ली। मैथ्यू ने अपने पुराने अनुभव के आधार पर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए खेल-कूद का सहारा लेने का फैसला लिया।

“मैजिक बस” की शुरुआत

1999 में मैथ्यू ने अपने एनजीओ “मैजिक बस” की औपचारिक रूप से शुरुआत की। 2001 मैथ्यू ने बच्चों की सेवा के अपने काम को तेज़ी से आगे बढ़ने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी और अपनी परियोजना “मैजिक बस” पर पूरा ध्यान देना शुरू किया।

“एक समय पर एक काम” का नारा

मैथ्यू ने सबसे पहले ये सुनिश्चित किया कि सरकारी स्कूलों में दाखिल लेने वाले बच्चे हर हाल में स्कूल जाएं और किसी सूरतोहाल अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ें। इसके लिए मैथ्यू ने सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में खेल-कूद को काफी तवज्जो दी। मैथ्यू ने बच्चों के लिए “शिक्षा-नेतृत्व-कमाई” की कड़ी बनाने वाले पाठ्यक्रम को तैयार किया। मैथ्यू का नारा था “एक समय पर एक काम”। बच्चों के बेहतर जीवन के लिए मैथ्यू ने उनमें शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने के अलावा उन्हें हुनर सीखने, नौकरी के मौके देने किया। कोशिश थी कि बच्चे इतना पढ़-लिख और सीख लें कि उन्हें एक अच्छी नौकरी मिल जाय और वो पूरी तरह आत्म-निर्भर बने ताकि उन्हें समाज में सम्मान मिले।

कामयाबी का नया मंत्र

मैथ्यू की कोशिश कामयाब हुई। उनका बनाया पाठ्यक्रम अब स्कूलों के लिए कामयाबी का नया मंत्र था।

-मैजिक स्कूल प्रोग्राम की वजह से 95.7% बच्चों की स्कूलों में उपस्थिति 80% से ज्यादा है।

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-98% प्रौढ़ लडकियां स्कूल की पढ़ाई कर रहीं हैं।

-“मैजिक बस ” प्रोग्राम की वजह से ही एक समय फुटपाथ और झुग्गियों में रहने वाले हज़ारों बच्चे आज बड़े होकर अच्छी-अच्छी नौकरियां कर रहे हैं।

-“मैजिक बस ” प्रोग्राम देश के 19 राज्यों में लागू है और इससे अब तक करीब 3 लाख बच्चे लाभ पा चुके हैं।

-“मैजिक बस” की कामयाबी में बड़ा हाथ उन स्वयंसेवी युवकों का है जो लगातार मेहनत करते रहते हैं।

-देश में आज कई राज्यों में सरकारें गरीब और ज़रूरतमंद बच्चों की मदद के लिए मैजिक बस का ही सहारा ले रही है।

-“मैजिक बस” प्रोग्राम की मदद करने के लिए कई बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियां आगे आई हैं।

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